Full text of "Aabu"
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ गर्र्नभ्रेएट म्यूजियम अजमेर के पयुरेटर राय-
महादुर महामहोपाध्याय पंडित यौरीशेकरजी ओझा, रोहिदा
( राज्य तिरोही ) निवासी का माननीय पत्र ।
अजमेर तारीख १६-८-१६३३,
ओमान परम अद्वेय शी जरपंतबिजयजी महा-
राज के चरणसरोज में सेवक गौरीशंकर होराचंद
ओभा का दंडवत् प्रणाम -अपर,ण आपका कृपा पत्र
ता० १०-८-१६३३ का मिला आपने बड़ी कृपा कर आपके
«आयू! नाप्तक पुस्तक का प्रथम भाग भदान किया जिसके
लिए अनेक धन्यवाद हैं ।
आपका ग्रन्थ जैन समुदाय के लिए ही नहीं किन्तु |
इतिदास प्रेमियों के लिए भी बड़े मदत्च का है। आपने
यह पुस्तक प्रकाशित कर झआावू के हतिहात और पढ़ा के
सुप्रसिद्ध स्थानों को जानने की इच्छा वालों के लिए बहुत
ही घड़ी सामग्री उपस्थित की है! विमलवसद्वि, वहां की
हस्तिशाला, श्री महृवीर स्वामी का मंदिर, लूणवसहि,
भीमाशाह का मंद्रि, चौम्ुखजी का मन्दिर, ओरिया और
अचलगढ़ के जैन मन्दिर का जो विवेचन दिया है, बह
रे
(२)
महात् भ्रम आर प्रकाण्ठ पांडित्य का सचके है । . आपने
- फैबले जन स्थानों का' ही नहीं, किन्तु दिन्दुओं के अनेक
ट तीरथों तवया आयू के अन्य दशेनाय स्थाना का जो व्यारा
दिया है, बह भी बड़े काम की चीज़. है।
आपका यत्न पहुत ही. सराहनीय दे.। इस 'पुस्तक में
जो आपने अनेक चित्र दि हैं, थे सोने ( के स्थानों ) में '
सुगंन्धी का काम देते हैं। घर बेठे आबू,-केा सविस्तार-
हाल जानने दालीं प्रर भ्री आपने बहुत बढ़ा उपकार कियों *
. है। .झाव् के विषय में ऐसी बहुमूल्य पुस्तक “और कोरई'
नहीं, है। आपके यत्न की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी :
है। :भी विज्यधमशरिज्ी मद्दाराज के स्मारक रूप अबुद
ग्रंथमाला फा यह पहिला ग्रन्थ हिन्दी साहित्य में इतिदहाप्त
की आपूर्ति श्रीवृद्धि करने वाला है। झुझे भी मेरे सिरोही
राज्य के इतिहास का दूसरा संस्करण प्रकारित करने में
इससे अमूल्य सद्दायता मिलेगी |
77 आपके महान् श्रम की सफलता तो तब ही सम्रझी
" जायेगी जब कि आपके संग्रह किये हुए सेकड़ों लेख प्रका-
“शित हो जायेंगे। सुझे यह जानकर बड़ी प्रप्तजता हुई कि.
उन. लेखों का छपना भी प्रारंभ हो गया दे। जैन गृहस्यों
(हे)
में अभी तक धर्म भावना बहुतायत से है। अतशव ,आपके
अन्यों का प्रकाशित होना कठिन काम नहीं है। आशा है
के आपके लेख शीघ्र प्रकाशित हो जायेंगे और आबू पर
के समस्त जैन स्थानों और उनके निर्माताओं का इतिहास
जानने बालों को और भी लाभ पहुंचेगा। आप परोपकार
की दृष्टि से जो सेवा कर रहे हैं, उमकी अशेगा करना मेरी
छ्षेपनों के बाहर है। धन्य है आप जेसे त्यागी महात्माओं
अक्ो जो ऐसे काम में दचचित्त रहते हैं ।
आपके दशेनों की वहुत् कुछ उत्कंठा रद करवी है
ओर आशा है कि फिर कमी न कमी आपके दर्शनों के।
आनद्द प्राप्त होगा। है
आपका नम्र संवक---
गोरीशंकर हीराचंद ओमा.
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क्री विजपपमसूरी श्रणी
महाराज को अर्घ्य
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धर्मों विज्ञेण्यसेवितपदो
धर्म भजे भावतः,
घर्मेणा बछुतः कुबोधनिचयो
धर्माय मे स्पान्नतिः।
धर्मा घिन्तित कार्यपूर्ति रखिला
धर्मस्य तेजो महत् ,
धमें शासनरामगपैर्यसुस॒णा
श्रीधम ! धर्म दिश ॥ १॥
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श्री विजयधमंग्रीश्वरजी महाराज
जन्म सेदतद् १६२२- दोक्ञा संबंत् १६४४५
आधचाय्येपद संवत् १६६९ स्वगेगमन संघत् १६७४६.
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३ प्रकाशक का निवेदन
नेक ओर कीट तक किले कक गेर
भारतवपष का अगर और राजपूताने का शिर छत्न+
जगहिझुयात * आबू ! पर्वत यह इस ग्रंथ का विषय है।
तो फिर हमें ' आबू ! के विपय में कुछ कहने की आवश्य-
कता नहीं रहती । इधर अंथकार ने अपने 'किडिचद्॒क्वर्ष्यर
में तथा 'उपोद्घात' के लेखक शानिराज श्री विद्याविजयजी
ने भी ' आयू! की प्राप्ेद्ध के काशण और आयू देखवाडा
के मंदिरों के निर्माता पर अच्छा प्रकाश डाला है| हमे
इस ग्रंथ के संरन््ध में इतना तो अवश्य कहेंगे कि-- आबूरे
जैसे जगत प्रसिद्ध पवेत के संबन््ध में प्न्थकार सुनिराज श्री
ने अधिकार पूरे लेखिमी से स्ोह्ध पूर्ण ग्न्थ निमोण
किया है और इसके प्रकाशित कराने का असझू हमें श्राप्त
हुआ; इसके लिये हम अपना अद्वोज्राम्य समभते हैं।
मुनिराज श्री जयन्त विजयजी ने इस ग्रन्थ की यीज॑ना
केवल अन्यान्य ग्रथों अथवा अन्यात़्य साधनों पर,से नहीं
,की, क्रिन्तु ४ आयू ! में हो बारे पधार कर परे स्थानों के
बी
चर] निवेदन
प्रमाण से दी है। इस अकार अनेक परिश्रम पूपेक मिसक॑
योजना की गई हो उसकी संत्यता, और आमाशणिक्रता
के विषय में दो मत नहीं हो सकते । अन्य की पता का
क्या वर्णन करें, 'हाथ कंगन को आरती! की जरूरत नहीं
' रहती । अन्ध पढ़ने वाले स्वयं देख सकते हैं कि--अंथकार
"ले क्रितना परिश्रम क्रिया ह्ढै।
यह ग्रंथ अथम मुनिराज श्री जगन्ताविजयजी ने शुज-
राती भाषा में तैयार किया था; और जिसको भावनगर
की “श्री यशोविजय गंथमालाः ने :प्रकाशित क्रिया या।
कुछ दी समय में उसकी अ्रथमावातति समाप्त हो गई, उसकी
दूसरी आध्ृत्ति भी लगभग अकाशित होने की तैयारी में
है । यह मी इस पुस्तक की लोकमान्यता, श्रेष्ठता का एक
प्रमाण ही है |
. अब दम अंथकार! के विषय में दो शब्द कहना
द्दते हैं ।
झ्बू [४३
उन्हीं पवित्र मंदिरों में यूरोपियन लोग बूट पहन कर जाते
ये । इस सर्यकर आशातना को, आज से करीब १६-२० चर्ष
बूवे एक मद्दान् पुरुष ने बिलायत तक अयत्न * क्रके, दूर
करवाया था। वे जैन धर्मोद्धारक/ नवयुग अवत्तेक, शा
विशारद जैनाचार्य्य श्री विजयधरमतारि हैं। 'आजू ग्रन्थ
के निर्माता इन्हीं पूज्यपाद आचार्य्य देव के विद्धान् और
असिद्ध शिष्पों में से एक दें |
मुनिराज श्रीजयन्त विजयजी ने “शान्त मूत्तिं” के नाम
से खूब ख्याति प्राप्त की दै। सचइुच ही आप शान्ति के
सागर हैं। आपकी शान्वइचि का प्रभाव कैसे भी मलुष्य
पर पढ़े बिना नहीं रहता । ज्ञान-दशन-चारित्र की आरा-
बना करने में आप राव दिन तब्लीन रहते हैं। क्लेशादि
असेगों से आप कोर्सों दूर रहते हैं। हमें भी आपके दर्शन
का लाभ लेने का सौमाग्य प्राप्त हुआ है।
आपने काशी की भरी जैन पाठशाला में गुरुदेव श्री
हे भृतरि महाराज की छत्रछाया में चर्षों तक रह कर
संस्कृत प्राइव का खूब इन ा किया था | आपने अपने
: बूरवीअम में अनेक संस्थाओं के चलाने का कार्य बढ़ी
इचता के साथ किये ओर गुरु के साथ बंगाल-
अध्य दिन्दुस््वान, मारवाइ) मेवाड़ आदि देशों में खूब
डेप वियेदन
अमण भी किया, इससे आप में अनुभव ज्ञान मी
अपार है ।
आपकी प्रवृत्ति प्रति समय ज्ञान, ध्यान और लेखनादि
क्रियाओं में दी रहती है । आपकी कलम ठंडी, परन्तु वत्ष
लेप समान होती दै। भाप जो कुछ लिखते है। प्रमाण-
पुरःसर और अनेक खोजों के साथ लिखते है। आपका-
बिद्दार वर्णन, कम संयमी, टीका युक्त उत्तराध्ययन
सत्न, सिद्धान्त रत्निका की टीप्पणी। भ्रीदेमचन्द्राचार्य्य
के तचिपछिशला का पुरुष घरिश्र के दर्सों पत्वों की सुक्कियों
का संग्रह आदि आपके लिखे हुए ग्रन्थ हैं ।
इन कार्यो से सप८ है कि-- सुनिए अऔीजयन्तविजयजी
न केवल पवित्र चारियरे पालक साधु ही है, किन्तु विद्यन्
भी हैं। आपने अपने ज्ञान का ज्ञाभ देकर कितने ही
गृहस्थ बालकों को विद्वान् भी बनाया हैं ।
49.5 ९५
जिस समय गुनिराज श्रीजयन्वैपिजयजी सिरोही पधारे
थे, उस समय आपके इस ग्रन्थ के ग्रकाशन के सम्बन्ध में'
बातचीत हुई और यह निर्णय हुआ कि--आबू! की
यह हिन्दी आइ्मचि हमारी पेढी वेग तरफ से प्रकाशित की
जाय | उत्त समय के निम्वयातुतार आज हम यह ग्रन्थ
ध्पानू [
जनता के कर कमलों में रखने को भाग्यशाली हुए हैं।
| अप
एएतदथ हम अन्थकार मुनिराज श्री के आभारी हैं।
हमारी इच्छालुसार इस ग्रंथ को चेत्नी ओलीजी के
पहले प्रकाशित कर देने में दि डायमंड जुबिली प्रेस)
अअबभर में जो योग दिया है। इसके लिये हम उसके भी
मारी है |
छिरोदी निवेदक--
22 कक मैनेजिंग कमेटी--
ए्, 3]
चीर सं, २४५६, वि, स इ६८६ सेठ कल्पाणजी परमानन्दजी
| बकब्य
# जगत्पज्य, थी विजयधमधूरिम्यो नमः #
का तक
| रा, वक्तव्य
सतत.
आन! और “आबू-देलवाड़े! के जैन मन्दिरों की
संसार में कितनी ख्याति है? यह किसी से अज्ञात नहीं
है। बहुत से यूरोपियन और भारतीय विद्वानों ने उस प्र
बहुत लिखा है, कुछ गाईड कुछ फ़ोटो के एल्बम भी
प्रकाशित हुए हैं । परन्त बस्तुतः देखा जाय तो “आबूर
पर की एक-एक वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान दे सके, मन्दिरों में
भी कहां क्या है ! उसका इतिहास बता सके ऐसी एक भी
इस्तक किसी भी भाषा में नहीं है । अतएवं असंगोपात
आज से करीब छः वर्ष पहले मुझे 'आबू! पर जाने का
असंग आध्र हुआ था और बहां छुछ स्थिरता भी हुई ।
इसका लाभ लेकर आयू सम्बन्धी ुछ बातें मैंने लिखी ।
जहां तहा खोज करके संग्रह करने योग्य बातों का संग्रह
किया । थोडे समय में मेरे पास अच्छा संग्रह हो गया।
प्रथम तो मैंने उसको सेखों के दँग पर लिसना प्रारम्भ किया
परल्तु मिश्रों और साहित्य प्रेमियों के अनुरोध ने सुझे आयु
आयु! के लेखक--शान्त मूर्सि सुनिराज थ्री जयेत विजयजी मद्यायज,
फ,व शत 8७
आवू [७
सम्बन्धी एक पुस्तक तय्पार करने के लिये बाध्य किया ॥
जो पुस्तक आज से त्तीन वपे पहले “आबू' के नाम से,
की एः
शुजराती में प्रकाशित की गई थी।
थोड़े ही समय में आयू? की प्रथमा््रत्ति बिक गई
और प्रथमाष्ाति के मेर 'किश्विदक्तत्य' में जसा कि मैंने
कहा थ। दूसरा भाग? तय्यार करूं, उसके पहले ही
प्रथम भाग की दूसरी ध्याव्वत्ति? अनेक संशोधनों के साथ
निकालने की आवश्यकता खड़ी हुई। यह सचमुच मेरे
आनन्द का विपय हुआ ओर मेरे परिश्रम की इतने अंशो
में मिलने बाली सफलता के लिये मेंने अपने को भाग्य-'
शाली समझा ।
जिस समय आयबू! सम्बन्धी मेरे लेख 'घर्मध्चज' में
प्रकाशित होने लगे; उस समय ग्रथमादरात्ति के 'वक़व्या में
जैसा कि में निवेदन कर चुका हूँ, “किसी ने इस पुस्तक में
मान्द्र की सुन्दर कारीमरी के फोट देने की, किसी ने
विंमल मंत्री, वस्तुपाल तेजपाल् आदि के फोटू देने
को; किसी ने मन्दिरों के झ्वान और बाहर के दृश्यों के फोट
देने की; किसी ने देलवाड़ा और सारे 'आबू! पहाड़ का
_नकशा देने की; किसी ने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी
ब्द ) घकतय ,
'ऐसे द्ीनों - मापाओं में इस पुस्तक को छपावाने की और
, किसी ने 'आबू! सम्बन्धी रास, स्तोत्र, कल्प स्तुति, स्तव-
नादि ( अकाशिव और अप्रकाशित-सब ) को एक खतन््त्र
.परिशिष्ट' में देने की--” ऐसी अनेक प्रकार की बचनाएँ
चहुत से आकांज्षिश्ों की तरफ से हुई, और ये छचनाएँ
उपयोगी होने से उसका अमल दूसरे भाग में करने का
चार मैंने रक्खा था, परन्तु दूसरा भाग ( शुजराती )
शुद्द ऐतिहासिक दृष्टि से तस्यार करने का पिचार होने से
तथा उस वक्ष तय्यार करने में कुछ विलम्ब देख कर उपर्युक्त
' सचनाओं में से कुछ क्तचनाओं का यथा साध्य उपयोग मैंने
अुजराती की दूसरी आधत्ति में कर लिया है !
प्रथमाइत्ति की अपेक्षा गुजराती की दूसरी आवृत्ति में
चहुत छुछ परिवत्तन हुआ है, उसी के अनुसार यह अनुवाद
हिन्दी की प्रथम आध्च्ति-प्रकाशित की गई है।
शुजराती की प्रथमाउचि की अपेक्षा दूसरी आशक्ति,
हे जिसका यह अखुवाद है, आशातीत परिवत्तन और परि-
चर्दधन करने का प्रसंग, सं० १६८६ की मेरी 'आबू! की
' घूसरी यात्रा के प्रसंग से प्राप्त हुआ। इस दूसरी यात्रा से
'में दो मास “आजू! पर रहा और गुजराती की प्रथमावृत्ति
की एक एक बात को मिलान बड़ी द्द्मता के साथ किया ।
आवू (5६
इस प्रसंग पर में एक खास बात का उल्लेख करना
आवश्यक समभता हूं । है
“आयू! के मंदिरों में खास करके 'विमलवसदि”'
-और “लूणवसहि” नामक विश्व विख्यात मंदिर हैं, देखने
की ग्यास चीज उनकी कारीगरी-कोतरणी और खुदाई का
काम है। यह कारीगरी, भारतीय शिल्पकला के उत्कृष्ट
नमूने हैं। जिसके पीछे करोड़ों रुपये इन मंदिरों के
“निर्माताओं ने व्यय किये हैं। शिल्प के ज्ञाता किंत्रा शिल्प
से अमिरुचि रखने वाले शिल्पकला की दृष्टि से इसका
निरीक्षण करें, परन्तु इस शिल्प के नमूनों ( कारीमरी )
में से हम और भी बहुतसी बातों का ज्ञान प्राप्त कर सकते
हैँ। उदाहरणाथै--उस समय का वेप, उस समय के रीत-
रिवाज, उस समय का व्यवहार आदि | देखिये--
३--' विभलवसहि ” और “लूणवसहि! के खुदाई में जैन
साधुओं की मूर्त्तिहं। क्या उस पर से हमें यह पता
नहीं चलता हैं कि आज से सातसौ बर्य के पहले
भी जैन साधुओं का बेष लगभग इस समय के
साधुओं के जैसा ही था। देखिये मुँहपत्ति हाथ मं
ही है, न कि सुख पर बंधी हुई। दंडे भी उस
समय के साधु अवश्य रखते थे। हां,- आधुनिक
३० ] वक्तव्य
रिवाज फे अजुसार, उन दंडों के ऊपर भोघरा नहीं
बनाया जाता था ।
२--कोवरणी में क्या देखा जाता है चैत्यबेंदन, गुरु-
चंदन, पैर दवाना (भक्ति करना) साष्टांग नम-
स्कार, व्याख्यान के समय ठवणी का रखना गुरु-
का शिष्य के सिर पर वासचेप डालना आदि
अनुष्ठान क्रियाएँ कैसी दिखती हैं ! क्या उस समय
की और इस समय की क्रियाशों की तुलना करने
का यह साधन नहीं है १
३--उसी नक्शी में सज-सभाएँ, छुलूस (ऑसेशम ) सबा-
रियां, नाटक, आम्य जीवन, पशु पालन, व्यापार,
युद्ध आदि के दृश्य भी दृष्टिगोचर होते हैं। ये
चस्तुएँ उस समय के व्यवहारों का ज्ञान कराने में
बहुत उपयोगी हो सकती हैं |
४--सी भ्रकार जेन मूर्चि शासत्र किंवा जेन शिल्प शास्ध
का अभ्यास करने किंवा अमुभव प्राप्त करने का
भी यहां अपर साधन है। किन्ही किन्ही मूचिओं
अथवा परिकरों को देख करके तो बहुत ही आश्चर्य
उत्पन्न होता है । उदाहरणार्थ-भोमाशाह के:
मंदिर में मूलनायक्र भी ऋषमदेव भगवान् कीं
आयु [१९
धातुमयी सुन्दर नक्शी वाली पंचतीर्थी के परिकर
युक्ष जो घूर्ति है, वह करीब ८ फुट ऊँची और साढ़े
पांच फुट चौड़ी है। इतनी बड़ी धातु की पंचतीर्थीः
अन्यत्र कहीं भी देखने में नहीं आई। शायद ऐसीः
भूचि अन्यत्र होगी भी नहीं |
४--इसी मंदिर के गूहमंडप में तथा विमलवसहि में मूल-
नायक की संगमरमर की बहुत बड़ी मूर्त्ति श्री ऋषपभ-
देव भगवान् की है। उसके परिकर में, अत्यन्त
मनोहर, परिकर में देने योग्य, सभी वस्तुएँ बनी
हुई हैं । परिकर बहुत बड़ा होने से उसकी प्रत्येक:
चीज का ज्ञान अच्छी तरह से ग्राप्त हो सकता है।
इसके आतिरेक्त मित्र भिन्न आकृति वा काउस्स-
ग्गिये, भिन्न भिन्न प्रकार की रचना वाले चोभीसी
के पट्ट, जुदी जुदी जात के आसन वाली बैठी और
खड़ी आचास्ये तथा आवक श्राविकाओं की मूर्िएँ,
तथा प्राचीन व अवाचीन पद्धति के परिकर आदि
बहुत कुछ हैं, जिनसे कि-जैन मूच्ति शास्त्र के:
विषय में अच्छा ज्ञान प्राप्त हो सकता है। हां !:
कहीं २ कोई २ काम देखकर हम लोगों को अनेक:
प्रकार की शंकाएँ भी हो उठती है। जैसे--
न्श्श ) चक्तव्य
+विमलवसहि ' और *लूणवसहि ” के खंभों की नक्शी
“में, मिन्न भिन्न आकृतिओं की मिन्न भिन्न क्रियाएँ करती
हुईं, हाव-भाव विश्र और काम की अनेक चेष्टाएँ युक्त
पुतलियों की बहुलता नमर आती है |
ऐसी विचित्र भ्राकृतिओं को देखते हुए बहुत लोगों
को शंका होती है और होना स्वाभाविक भी है-कि जैन
मंदिर में मह क्या ) ऐसी कामोत्तेजक पुतलियों क्यों होनी
च्चादिए |
भेरे खयाल में तो यही आता है क्वि--कारीगर्सो ने
-अपभी शिल्पकला को दिखाने के लिए ऐसी पुतलिएँ
अनाई हैं। इसका धर्म के साथ कोई की सम्बन्ध नहीं है ।
“हिन्दुस्थान में उस समय ऐसी अवस्था की भी मलुष्या-
-कृत्तियाँ बनाने वाले कारीगर मोजूद थे, यह दिखलाने के
उद्देश्य से ही कारीगरों ने अपनी शिल्पकला के नपूने
कर दिखाये हैं। “अखूट द्रव्य का व्यय करने वाले जब
“ऐसे धनाद्य मिलें तो फिर थे भी क्यों नाना प्रकार के नमूनों
से ग्रपनी शिल्प विद्या दिखाने में न्यूनता रसे, वस इस
चयात को लक्ष्य में रख फर उन्होंने अपनी शक्ति के अनुसार
उन आक्धत्तियों को बनाया होगा । चर्चमान में भी किसी
जैन ब हिन्दु मन्दिर जो कि सुसलमान कारीगरों के हाथ
आदू [ १३८
से बनते हैं, उसमें मुसलमान संस्कृति के नमूने बना दिये"
जाते हैं और ये अनभिन्नता में निभा लिये जाते हैं।
इसी प्रकार उस समय भी हुआ हो तो कोई आश्रय को
बात नहीं है । !
परन्तु साथ ही साथ इतना अवश्य कहना पड़ेगा कि
उन कारीगरों ने थे नियम जेसा भन में आया वैसे नहीं
खोद मारा है। प्रत्येक आक्ृत्ति 'नाव्व-शास््र' के नियम:
से बनी है। “नाव्य-शास्त्र! में 'नाव्यः के आठ अड्ड
अथवा आठ प्रकार दिखलाये हैं । उनमें से किसी स्थान
में प्रथम अज्ज के अनुसार किसी स्थान में दूसरे अज्ञ के
नियमानुसार तथा किसी स्थान में रे, ४, ५, ६, ७ किंवा'
८ वें अज्ज के अनुसार व्यवस्थित रीते से पुतलियाँ धनी”
हैं। + नाव्य-शारत्र' का अभ्यासी अपने अभ्यस्त ग्रन्थों.
में से यदि इसका मिलान करेगा, तो अवश्य उसको उप्युक् -
कथन का निश्रय होगा । +
कहने का तात्पय यह है कि-आयू के जैन मन्दिर, एक
तीथे रूप होकर पराक्ते को आ्राप्त कराने में साधनभृत तो हो
दी-सकते हैं, परन्तु'साथ ही साथ भूतकाल का इतिहास,
रीति रिवाज, व्यवहारिक ज्ञान, शिल्प-शास्तर एवं नाब-शास्तर:
ज्४ ] चक्तच्य
आदि का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने घाली एक खासी कॉलेज
7किंवा विश्वविद्यालय है ।
एक अन्य घात का उल्लेख मी आवश्यकीय है कि
“देलवाड़ा के इन मन्दिरों के एक दो स्थान में ख्री अथवा
“पुरुप की नितान्त नम्न सूर्चिएँ मी खुदी हुई दिखाई देती
“हैं। एसी भूच्तियों को देखते हुए कुछ लोग ऐसी कल्पना '
नकरते हैं कि-बौद्ध। शाक्ृ, कौल और वाममार्गी मर्तों की”
तरह, जैन मत में किसी समय तान्त्रिक विद्या का प्रचार
द्वोगा ।
परन्तु यह कल्पना नितान्त अपुक्त है। हमने इस
नवेषय पर दीधैकाल तक परामश किया, जांच की, परिणाम
में छुछ शिल्प-शासत्र के अच्छे! अनुभवियों से ऐसा मालूम
हुआ कि-शिल्प-शास्त्र का ऐसा नियम है कि-“ऐसे बढ़े
मन्दिरों में एकाद नत्न मूर्ति अवश्य घना दी जाती है ।
शसा करने से उस मन्दिर पर बिजली नहीं गिरती। इसी
कारण से मन्दिर निर्माता की दृष्टि को चुरा करके भी
कारीगर लोग एकाद ऐसी नम पृतली बना दते हैं ”।
शिन्प-शासत्र का ऐसा नियम हो चाहे न हो, अथवा
शेसा करने से बिजली से बचाव होता हो या न हो ।
आवू [ रश
नयूरन्तु यह बात सम्मवित है कि परम्परा से ऐसी भ्द्धा
अवश्य चली आती होगी ।
दूसरी कल्पना यह भी हो सकती है कि कोई दृष्टि
विकारी मनुष्य मंदिर में जाय तो उसके दृष्टि दोष से मंदिर
को नुकसान हो, इस ग्रकार का बेहम प्रचलित है। इस
चेहम को टालने के लिये एकाद नग्न सूर्ति मंदिर में क्रिसी
स्थान पर बना देते हैं अर” परधम; असददिष्णु, ईष्योलु
अलुष्य मंदिर को देखकर ईष्यों स मंदिर पर तीज्र दृष्टि
डाले जिससे मंदिर को नुकप्तान दोने की संभावना रहती है
इस कारण उस नग्न मूर्ति को देखते ही, ई्षष्यों जन्यकर
दृष्टि बदल जाय और वह मनुष्य अन्य सब विचारों को
छोड़, उस श्लो देखने में एक्राप्न बन जाय । परिणाम में ऐसा
भी कुछ कारण हो कि उसकी ऋूर भावनायुक्त दृष्टि का असर
मेदिर पर न रहे ।
इस प्रकार आबू ? के जैन मंदिर अनेक दृष्टि से
देखे जा सकते हैं और उन दृष्टिआं से देखने वाले अवश्य
न्ताम उठा सकते हैं।
अत में अपने इस वकृच्य की पूरा करूं, इसके पहिले
शक दो ओर बातें स्पष्ट कर लेना उचित समझता हूं |
१६] चक्तच्य
5 पहली वात तो यह है कि--शाबू” यह प्राचीन
और सर्वमान्य तीथे है और इससे सास आायू! में तथा/
उप्तके आसपात्त इतनी ऐतिहासिक सामग्री है कि-जिस पर
जितना लिखा जाय, उतना फम है । गुरुदेव की कृपा रेट
मुझे दो दफे 'भावू की स्पशना करने का असंग प्राप्त हुआ,
उसमें मुझसे मितना हों सका उतना संग्रह कर लिया।
संग्रह पर से मेंने 'आबू! सम्बन्धी निम्न लिखित भाग तय्यार'
करने की योजना की है ।
१ आबू” भाग २ ( यह ग्रन्थ ) |
२ आग भाग २ ( आयू! भाग £ में जो २ ऐति--
झतप्तिक नाम आए हैं उनका विस्तृत वर्णन है)।
३ 'झाबू? भा० ३ (अबुंद ग्राचीन जैन लेख संग्रह”) |
४ झादु! भा० ४ ( “अजुंद स्तोत्र-स्तवन संग्रह! ) ।
इन चारों भागों में प्रथम भाग तो प्रकाशित हो ही
चुका है । दूसरा, तीसरा और चोथा भाग भी लगभग
तय्यार हुआ है।
इनके आतिरिक्त “भआंबू! के नीचे से सारे पहाड़ की
अंदाक्तिणों करते हुए बहुत॑ से गांवों में से प्राचीन लेसों का
अच्छा संग्रद उपलब्ध हुआ है तथा ऐतिद्दासिक गांवों को
आज [ १७
जैन दृष्टि से बृत्तान्त लिखने के लिये भी साधन एकात्रेत
हुए हैं। जिनमें कुम्मारियाजी, जीराबलाजी ओर बामण-
चाढ़जी आदि तीर्थों का भी समावेश होता है।
इस सारे संग्रह को “आयावू! भाग ५ और “आबू भागों
हूँ के नाम से प्रसिद्ध करने का विचार रक््खा गया है|
ये भाग प्रकाशित हों) इसके दरमियान 'आबू! भाग
१ का अंग्रेजी अनुवाद एक बी. ए., एल एल. थी | पिद्धान्
जैन गृहस्थ कर रहे हैं।
दूसरी बात लिखते हुए मुझे बहुत आनन्द होता है-
फकि-देजवाड़ा ( आयू ) के जेन मन्दिरों की व्यवस्थापक
कमेटी-सेठ कल्याणजी परमानन्दजी के व्यवश्थापक जो
पके-सिरोदी संघ के मुखिया हैं थे 'आबू! की हिन्दी आधत्ति
प्रकाशित कर रहे हैं ।
आयु? तीथे की व्यवस्थापक कमेटी को, उनके इस
उदार कार्य के लिये जितना घन्यचाद दिया जाय उतना
कम है। सेठ कल्याणजी परमानन्दजी की पेढी का यह
काये अत्यन्त स्तुत्य और अन्य तीथों की व्यवस्थापक
कमेटियों के लिये अचुकरणीय है |
छ
“8० | उपोद्घात
आज संसार में ऐसे अनेक मनुष्य पाये जाते दें,
जिनमें कर्मएयता की यु तक नहीं होने पर भी थे अपने
को “कमैयीर ' बताते हैं और थे घड़ी बढ़ी उपाधियों को
लेकर फिरने में ही अपना गौरव समभते हैं। जरा
आगे बढ़ कर कहा जाय तो-छुछ लोग ऐसे भरी हैँ; जो
अपने आप बड़े बड़े ठाइटिल-घारी दिखाने में ही रात
दिन अगत्न शील रहते हँ। उन्हें सबिनय पूछा जाय के
आप जिस विपय का ठाइटिल लिये बेठे है और जिसको”
प्रग० में लाने के लिये स्वयं भेसों में दौड़ धूप करते हैं,
बह कब। कहाँ और किसने दिया? क्या उस विपय का
कोई अन्थ या छोस भी आपने लिखा हैं अथवा ऐसा
ही कुछ कार्य भी किया है? जवाब में उनके क्रोध के पात्र
बनने के और कुछ नहीं मिलता |
जब समूह में एक और ऐसे ही ले भग्गू मनुष्यों कीः
भरमार पाई जाती है, जब कि दूसरी ओर ऐसे भी सज्जन
महाजुभाव व से विद्वान पाये जाते हैं, जो कि अपनें
[ब्िषय के अद्वितीय विद्वान अनेक सोजों के अकट कर्चा
और भ्रन्थों के निर्माता होने पर भी उनके नाम के साथ
एक मामूली विशेषण भी कोई लगाता है तो उनकी आँखें
आ [२६
श्रम से नीचे ढल जाती हैं। स्वय कोई टाइटिल लिखने
पलिखवाने की तो बात ही क्या करना ।
ऐसे सच्चे संशोधक। पुरातत्व के खोजी, इतिहास के
ज्ञाता होने पर भी *सरलता' और “नम्नता ' के गुणों से
विभूषित जो कुछ विद्वान देखे जाते हैं, उनमें शाम्त-सूर्चि
मुनिराज श्री जयन्त विजयजी भी एक हैं )
भुनिराज श्री जयन्त विजयजी ने “आबू! पुस्तक में
कितना परिश्रम किया है, कितनी खोज की है, इसको
पदिखलाने के लिये "हाथ कंघन को आयने, की जरूरत
नहीं है” | आपने इस पुरतक के निर्माण करने में सिफफ़े
आात्रालुओं का खयाल नहीं रक््खा । “यहां से वहां जाना
*बहां से वहां जाना ?, “यहां से यह देखना, 'पहांसे
चह देखना”, “यहां से मोटर में इतना किराया देकर
चेठना” ओर “बहां जाकर उतर जाना!, 'धर्म-शाला के
मैनेजर से ओढ़ने बिछाने व रमोई के लिये साधन मिल
जायगा! बस यात्रालुओं फे लिये इतनी ही बस्तुएँ पयोप्त
हैं। ग्न्थ निर्माता मुनिराज श्री का लक्ष्य बहुत बड़ा है ।
उन्होंने प्रत्येक मन्दिर के निमोता का परिचय, बल्कि
उसके पूवेज्ों का भी संक्षिप्त इतिहास दिया है। किस २३
समय में उसका जीर्ोडद्धार हुआ १ उसमें क्या क्या
श्र ] डपोद्घात
परिवत्तेन हुआ ? श्रत्येक मन्दिर व देहरियों में क्या बया
दशेनीय चीजें हैं! उनमें जो जो भाव चित्रकारी के हैं,
उनकी मल चस्तुओं का द्तद्मता से निशेज्षण करके उनको
भी सम्पूर्ण विवेचम के साथ दिया दै, भत्येक मन्दिर व्
देहरी में कितनी कितनी मूचियों हैं अथवा और भी जो
जो चीजें हैं, उनका सारा वृत्तान्त देने के अतिरिक्त आब-
श्यकीय शिला लेखों से उस बात पर और भी प्रकाश”
डालते हं। न केपल जैन मदरों ही के लिये * आदू' के:
ऊपर यावत् जितने भी द्िन्दु व अन्य धमौवलम्धियों के
जो जो दर्शनीय स्थान हैं, उन सारे स्थानों का वर्णन उन
उन धर्मों के मन्तव्यानुसार मय तद्विपयक इतिहास एवं
कथाओं के दिया दै ।
प्रसंगोपात आबू से सम्बन्ध रखने वाले आचीन
राजाओं व मन्त्रियों का इतिहास भी यद्यपि संक्षेप में,
परन्तु खोज के साथ दिया है ।
इस प्रकार आवू के सच्चे इतिहास को प्रकट करने
बाला वर्तमान स्थिति की छोटी से छोटी और बड़ी से
घड़ी चीज़ को दिखाने बाला, सर्वोपयोगी, सर्वमान्य,
से व्यापक एक ग्रन्थ का निर्माण एक जेन म॒ुनिराज के
हाथ से हो, यह भी एक गौरव की ही बात है और इसके:
आयु [ २३
लिये मुनिराज श्री जयन्त विजयजी सचझुच घन्यवाद के
पात्र हैं ।
* ध्याबू? यह तो हिन्दुस्थान के ही नहीं, सारे संसार
के दशनीय स्थानों में से एक है और भारतवर्ष का तो
अड्भार है, सिरमौर है । आद ने संसार के इतिहास में
अपना नाम सुवर्ण अच्षरों से लिखवाया:है | दुनिया के
किसी भी देश का कोई भी मुसाफिर हिन्दुस्तान में आकरके
आदबू का अवलोकन किये बिना नहीं जा सकता !
“आयू! की स्पशेना के सिवाय उसकी यात्रा अपूर्ण ही
रहेगी । आज तक जितने भी यात्री भारत अमण के लिये
आए, उन्होंने आबू को देखा और शब्दों द्वारा मनुष्य
जाति से जितना भी हो सकता है, प्रशंसा की ।
आयु! की प्रशंसा अनेक ग्रन्थों में पाई जाती है।
कनेल टॉड ने अपनी 'देेवल्स इन वेस्टन हशिडया? में
एवं मि० फर्गुसन ने (पिक्चसे हजस्ट्रेशन्स ऑफ इत्नो-
सेगट आर्किटेक्चर इन हिन्दुस्तान में आए! की भूरि
भूरि प्रशंसा की है। इसी प्रकार भारतीय अनेक विद्वानों
ने भी आय यो अपने पुस्तकों में बड़ा महत्व का स्थान
दिया है। उदाहरणाथे--असिद्ध इतिहासज्ञ रायत्रहदुर
महामद्दोपाध्याय पं० गौरोशंकर होराचन्द ओका ने
खछवु उपोद्घात
अपने राजपताने का इतिहास घ 'सिरोही राज्य का
डतिहास! में आबू को गीरव युक्ल स्थान दिया है ।
इसमें कोई शक नहीं कि-घ्याव! भारत के प्रसिद्ध
धर्वेतों में से एक है-। बल्कि भारत के अति मनोहर और
भारत की बहुत बड़ी सीमा में केले हुए सुपरासिद्ध 'झरचलो?
चहाड़ का सब से बड़ा हिस्सा ही आआचू पर्यत है । यही नहीं,
भारत के-सास करके ग्रुजरात और राजपूताने के परमार
राजाओं का आवू के साथ घानिए्ठ सम्बन्ध रहा है । अत३
गेतिहासिक दृष्टि से भी ध्यायू उल्लेखनीय और प्रशंसनीय
है, परन्तु आाबू की इतनी प्रसिद्धे ओर यशस्विता में
खास कारण तो और ही है, ओर चह है “आबू-देलवाड़ा
के जैन भदिर'
यह तो स्पष्ट ओर जम जाहिर बात है कि-झआबू
थबेत पर ओ देशी विदेशी लोग जाते हैं बहुधा वे सब के
सभ आवू-देलवाड़े के जैन मन्दिरों को देखने ही के लिये
जाते हैं। सुप्रसिद्ध चौंलुफ्य राजा भीमदेव के सेनाभिपति
पविमल मंत्री का बनवाया हुआ 'विमज बसहि!, और
महा मंत्री चस्तुपाल-लेजपाल का बनवाया हुआ लिग-
बमहिं ये दो ही मन्दिर आवू पहाड़ की विश्व पिझ्याते
के कारण हैं | संप्तार की आथय्यैकारी-दशनीय वस्तुओं में
आवूं च्द्र्तु
आ्आबू भी एक है। इस सौभाग्य का सुख्य कारण, जैन धरम *
अभावक उपयुक्त महामंत्रिओं के करोड़ों रुपयों के व्यय से
-चनवाये हुए उययुक्त दो मन्दिर ही हैं। इन मन्दिरों के शिल्प
-की वास्तविक तारीफ आज तक के किसी भी विद्वान् लेखक
"से नहीं हो पाई है ।
कनेल टॉड ने अपनी 'देवल्स इन चेरटने इण्डिया?
“नामक पुस्तक में 'विमल वस॒हि? के सम्बन्ध में लिखा है।
“हिन्दुस्तान भर में यह सन्दिर सर्वोत्तम छ्
और ताज महल के सिवा कोई दूसरा स्थान इसकी
नसमता नहीं कर सकता ?
चस्तुपाल के मंदिर के सम्बन्ध में शिल्पकला के
असिद्ध ज्ञाता सि० फर्मुंसन ने 'पिक्चस हल्स्ट्रेशन
आफ इच्नोसेण आर्कीटेक्चर इन हिन्दुस्थान! नामक
'पुस्तक में लिखा है ।
“एस मंदिर में, जो संगमरमर का बना हुआ
है, अत्यन्त परिश्रम सहन करने घाली हिन्दुओं फी
थांको ले फीते जेसी सूक्ष्मता फे साथ ऐसी मनोहर
$ ताज सददल्त भी इसफी समता नहीं कर सकता । देखो परिशिष्ठ ८
नमें दिया हुआ रा० रा० रफ्तमाणिराव भीमराव का अमिप्राय । लेसफ:
८ ] उपोद्घात
आक्ृत्तियाँ बनाई गई हैं, जिनकी नक्षज फागज पर
बनाने से कितने ही समय तथा परिश्रम से भी में
सफल नहीं हो सरता”?।
भहामहोपाष्याय पं० गौरीशेकरजी ओमा ने
ऋपने 'राजपूताने का इतिहास' ( खंड १ ए० १६३ )?
में लिखा है।
“क्ारीगरी में उस मंदिर ( विमक्षचवस॒हि ) की
समता करने वाला दूसरा कोई मंदिर हिन्दुस्तान
सें नहीं है। ”
यद्यपि यहां और भी कुछ जैन मंदिर द्शदीय हैं, जेसे
कि--महावीर स्वामी का मंदिर/ भीमाशाह का पिचलहर
मंदिर, चोमुखजी का मंदिर जिसको 'खरतरचसहि” कहते
हैं, और अचजगढ के पास 'ओरिया' मामझ छोटा
गांव है, वहां का मद्गाबीर स्वार्मी का मंदिर, तथा उसके:
पास ही 'झचलगढ!' गांव में चौमुखजी का आदीश्ररज्ञी,
कुँधुनाथजी और शान्तिनायजी का मंदिर है। ये समी मंदिर
कुछ न कुछ विशेपता रखते हैं, परन्तु आयु? की इतनी
ख्याति का अंधान कारण तो विमलंवसदि और लूण-
चसहि ये दो मंदिर ही हैं।
आदू २७ |!
अत्यन्त खुशी की बात है कि--इन मंदिरों की
कारीगरी के अद्जुत नमूने का परिचय कराने के लिये
ग्रेथकार ने लगभग ७५ पचहत्तर फोट्ट इस पुस्तक में देने
फा प्रबन्ध करवाया है ध्माव् की कारीगरी के कुछ फोट
फातिपय पुस्तक याने, रेलवे गाईडों में तथा आबू गाईड”
बगेरह में देखने में आते हैं, परन्तु इतनी बड़ी संख्या में
और बह भी खास २ महत्व के फोटू सिवाय आज तकः
किसी भी पुस्तक में देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है ।
इस पुस्तक के इस दृष्टि से भी इस पुस्तक का महत्व कई
शुना बढ गया है।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि--आखू के जैनः
मंदिरों के पीछे, मेन इतिहास का ही नहों, बल्कि भारत
बे के इतिहास का बहुत बड़ा हिस्सा समाया हुआ है।
आयू के उपर्युक्त प्रसिद्ध मंदिरों के निमोता कोई सामान्य
व्यक्षियाँ नहीं थीं। वे देश के प्रधान राज्य कचोओं के
सेनाधिपाति ओर मंत्री थे। उन्होंने उन राजाओं के राज्यः
शासन विधान में बहुत बड़ा हिस्सा लिया था ।
ग्रेंथकार ने उन राजाओं, मंन्दिर निर्माता मंत्रियों और
आर सेनाधिपतियों का आवश्यकीय परन्तु संक्षिप्त परिचय -
दिया है। इसी प्रकार उन्हीं के किज्चिद् वक्तव्य से:
ल्श्द | उपोड्घात
अगर हीता है, कि इतिहासिक बातों का विस्तृत बर्यन आबू
के दूसरे भाग में आविगा। ओर इसी लिये उन इतिहासिक
बातों पर थहां विशेष उल्लेख करना अनावश्यक समता
हूँ। तथापि इतना तो कहना समुचित होगा कि-आझ्ू
- के जैन मंदिरों के निर्माता से संबंध रखने याले जो कुछ
जैन ऐतिहासिक साधन उपलब्ध होते हैं उन में मुख्य
“ये भी हैं।---
१--तेजपाल के मंद्रि के शि्नालेस-दो बड़ी प्रशास्तियां
(बि० सं० १श८७ का ) |
२--'विभलवस हि? मंदिर के जीर्योद्धार का शिलालेख
( वि० सं० १३७८ का )]
३--याश्रय काव्य ( कर्ता श्री हेमचंद्राचाय्य ))
४--क्ुमारपाल भ्रबन्ध ( जिन मंडनोपाध्याय ऊृत ) |
४--तीथे कल्पास्तर्गत अ्थयुद करप ( जिनप्रभस्रि कृत )।
<--प्रबन्ध चिन्तामरणि ( मेरुतुद्भाचार्य्य कृत ) |
७--चित्तौड़ किले का कुमारपाल का शिलालेख |
८--वस॑तविलास ( बालच॑द्राघाय्ये कूष )
६--सुकृत संकीचेन ( अरिसिंह कृत )।
-“१०--वस्तुपाल चरित्र ( जिन दर्षकृत ) ।
“११-- विमल अवन्ध ( कवि लावण्यसमय कृत )।
भाद् २६]
१२--उपदेशतरद्वियी ( रत्न मंद्रिगणि कृत )।
१३--पअ्रबन्ध कोश ( राजशेखर सरिकृत ) |
१४--हमीर मदमर्दन ( जयसिंह सरिक्ृत )।
१४-सुकृतकल्लोलिनी ( पुंडरीक-उदयप्रभत्नरि कृत )।
१६--विमलशाह के मंदिर का शिलालेख ( बि० सं०
१३५० का )।
१७--' विमलवसहि ! की देहरी नं० १० का शिलालेख
( बि० से० १२०१ का )।
श्य--तिलक मस़्री ( धनपाल कविकृत ) |
आदि २ कई ऐसे जैन ग्रन्य व शिलालेख एवं रासादि-
है; जिनमें आचू और उस पर के जैन मंदिरों के निर्माण
पर काफी अ्काश डाला गया है ।
इन मंदिरों के निमोताओं में ्रधान तीन पुरुष हैं, जषो-
भारतवपीय शतिहास की रंगभूमि पर अधान पात्रता को
धारण किये हुए खड़े हैं। विमलशाह, वस्तुपाल और
तेजपाल ।
विमलशाह, यह अणहिलपुर पाठन का राजा भीम
देव ( जो विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दि के उत्तर भाग ;
हुआ ) का सेनापति था। विमल बड़ा धीर था। झड्े
पु
सर्द ] उपाद्घाद
बढ
अगट होता है, कि इतिद्वासिक थातों का विस्तृत बणेन आवू
के दूसरे भाग में अवेगा । ओर इसी लिये उन इतिहासिक
बातों पर यहां पिशेष उल्लेख करना अनावश्यक समभता
हूँ। तथापि इतना तो कहना संम्ाचित होगा कि--आधू
- के जैन मंदिरों के निर्माता से संबंध रखने वाले जो कुछ
जैन ऐतिहासिक साधन उपलब्ध होते हैं उन में गुख्य
नये भी हैं।--
१--तैजपाल के मंद्रि के शिलालेख-दो बड़ी प्रशस्तियां
( बि० सं० १२८७ का ) |
२--“विमलथस हि? मंदिर के जीर्येद्धार का शिलालेख
(बि० से० १शे७छ८ का )।
३--टहयाश्रय काव्य ( फर्चा श्री हेमचंद्राचाय्ये ))
४--कुमारपाल प्रबन्ध ( जिन मंडनोपाष्याय कृत ) |
४--तीथे कल्पान्तगेत अर्चुद कत्प ( जिनप्रभवरि कृत )।
६--प्रभन््ध विन्तामशि ( मेरुतुड्राचास्य ऋत )।
७--चित्तीड़ किसे का कुमारपाल का शिक्षालेख ।
८--वसंतविलास ( बालचंद्राचाय्ये कृत )
&--सुकृत संकीत्तेन ( अरिसिंद कृत ) |
“१०--बस्तुशल चरित्र ( जिन हर्षकृत ) ।
“११- घिम्रल अ्रन्ध ( कवि लावण्यसमय कृत )।॥
आय २६]
१२--उपदेशतरद्जिसी ( रत्न मंदिरिगणि कृत ) ।
१३--प्रभन्ध कोश ( राजशेखर सरिकृत ) ।
१४--हमीर मंदसदेन ( जयसिंह सरिकृत )।
१४--सुकृतकल्लोलिनी ( पुंडरीक-उदयप्रभक्गवरि कृत )।
१६----विमलशाह के मंदिर का शिलालेख ( वि० से०
१३४० का )।
१७--' घिघरसवसहि ! की देहरी नं० १० का शिलालेख
( बि० से० १२०१ का ) |
१८-तिलकमज़री ( धनपाल कवबिकृत ) ।
आदि २ कई ऐसे जैन ग्रन्थ व शिलालेख एवं रासादि
है, जिनमें आलू और उस पर के जैन मंदिरों के निमोण
पर काफ़ी प्रकाश डाला गया है ।
इन मंदिरों के निर्माताओं में प्रधान तीन पुरुष हैं, जो
भारतवपीय शंतेहास की रंगभूमि पर प्रधान पात्रता को
धारण किये हुए खड़े हैं। विमलशाह, घस्तुपाल और
तेजपाल ।
विमलशाह, यह अणहिलपुर पाटन का राजा सीस-
देव ( जो विक्रम की ग्यारदवी शताब्दि के उत्तर भाग में
हुआ ) का सेनापति था। विमल बड़ा चीर था। इसके-
य्द० ]ु डपोड्घात
विषय में “विमल प्रबन्ध! और विमलवसहि की देहरी
-मं० १० के शिलालेख से बहुठ बातें ज्ञात हो सकती हैं ।
दूसरे हैं बस्तुपाल-तेंजपाल, इसमें कोई शक नहीं
“कि-विमल की अपेक्षा वस्तुपाल तेजपाज इतिद्दास में
पविशेष प्रशंसा पात्र हुए हैं। इसका खास कारण भी है।
व्ये दोनों भाई शूरवीर, कर्चन्य परायण, राज्य कार्य में बढ़े
“दच, प्रजावत्सल्य) पर-धर्म सहिष्णु, पढ़े चुद्धिमान् , दाने-
श्वरी इत्यादि गुणों को धारण करने के साथ साथ बढ़े
भारी विद्वान भी ये। एक कवि ने वस्तुपाल के समस्त
गुणों की प्रशंसा करते हुए गाया है+--
४ श्री बस्तुपाल ! वध भालतले जिनाज्ञा,
घाणी मुखे, हदि ऋषा, करपन्नते श्रीः
'देद्दे शुतिबिलसतीदि रुपेव कीचि:,
पैतामह सपदि धाम जगाम नाम ॥”!
(उपदेशतर क्विणी )
अथ्थाद् दे वस्तुपाल ! तुम्दारे मालतल में जिनाबा,
खुख में सरस्वती, हृदय में दुया। हाथों में लक्ष्मी और
अ्रीर में कान्ति विलास कर रही हैं। इमीलिये तुम्हारी
नकीर्च अक्काजी के स्थान में ( अक्षलोक में ) मानों कोथधित
आपवू ३१ ]
ब्योकर के चली गई | अथीत् बस्तुपाल के अनेक गुणों से
“उसकी कीतिं अ्द्मलोक तक पहुँच गई।
सचमुच, वस्तुपाल पर सरस्वती और लक्तमी दोनों
देवियों प्रसन्न थीं। उसके साथ दोनों भाईयों में उदारता
का गुण भी असाधारण होने से उन्होंने दोनों शक्षियों का
(सरखती और लक्ष्मी का ) इस प्रकार सदज्यय किया
कि जिससे वे अमर ही हुए |
ये दोनों भाई दृढ़ श्रद्धालु जैन होने से, यद्यपि इन्होंने
जैन मन्दिर और जैन धम की उन्नति के कार्यों में अरबों
रुपयों का व्यय क्रिया, परन्तु साथ ही साथ अन्यान्य
साथ जीनिक व अन्य धर्मावलंबियों के कार्यो में भी अखूट
"धन व्यय किया है। इन्होंने १८/६६,० ०,००० शजुंजय में,
१२,८०,००,००० मिरिनार में, १२,४३,००,००० इसी
आय! पर लूणवसहि में खचे किये। इनके अतिरिक्त सवा
साख जिन बिंप, नव सो चौरासी पौपधशालाएँ, कई समव-
सरण, कई ऋरह्मशालाएँ, कहे दानशालाएँ, मठ, माहेश्वर
मन्दिर जैन मन्दिर, तालाब, बाबड़ियाँ, किले-आदि बन-
चाये। कई जीर्णेद्धार किये और कर पुस्तक-मंडार बनवाये ।
'तीर्यकल्प' के कथनालुस्ार, इनके बड़े-बड़े कार्यों की जो
कुछ नॉध मिल सकती है उस पर से श्न मद्ानुभादों ने ऐसे
हेड ] उपोदघात
बड़े पुएप कार्यों में कोई तीन अरब, चौरासी लाख, अठा-
रह हजार के करीय घन व्यय किया है| इसका इतना घन-
सचमुच हमें आश्रय सागर में डाल देता है ।
चस्तुपात् के चरित्र से हमें यह भी पता चलता हे
फि-वे स्वयं अद्वितीय विद्वान थे, जैसा कि-मैं पहले कह
चुका हूं। उन्होंने (वस्तपाल ने) संस्कृत के जो ग्रंथ बनाये
हैं, उनमें मरनारायणानन्द् काव्य, ह्मादीम्वर सनो-+
रथमघं स्वोच्मम् ओर बस्लुपाल सुक्तमः ये तीन अन्य
उपलब्ध होते हैं । (ये तीनों ग्रन्थ 'गायकवाड ओ रिये-
शटल सिरोज! सें प्रकाशित हुए हैँ) ।
इसी प्रकार स्वयं विद्वान् दोकर विद्वानों की कदर मी वे”
बहुत करते थे। कई विद्वानों को हजारों नहीं, लाखों रुपये
सत्कार में देने के श्रमाण मिलते हैं | इनके समकालीन व
पीछे के कई जेन-अजन विद्ध/नों ने इनकी विद्वच्ता, उदारता,
आएर दान शीलता की प्रशंसा की है | इनके प्रशंसक विद्वार्नों-
में सोमेश्वर कवि, अरिपंद कवि, हारिहदर, मदन, दामोदर,
अम्रचन्द्र, हरिभद्र्गरि, जिनप्रभहरे, यशोचीर् मंत्री ओर
माणिक्यचन्द्र आदि मुख्य हैँ । उनकी बनाई हुई स्तुतियों/
के कुछ नमूने ये हैं :--
आबू [ 3४
एक दिन सोमेश्वर कवि वस्तुपाल के मकान पर
गहुँचे | वस्तुपाल ने आदर के साथ उत्तम आसन दिया)
सोमेश्वर आसन पर नहीं बेठते हुए कहने लगेः--
*अन्नदानेः पयःपानेधमंस्थानेश्व भूतलम ।
यशसा बस्तुपालेन रुद्धमाकाश मण्डलम” |
इस प्रकार स्तुति करके कवि ने फह्दा/-'इसलिये स्थाना-
माव से में नहीं बेठ सकता! ।
दस्पुपाल ने प्रसन्न होकर नौ हजार रुपये इनाम में
दिये। इसी सोमेश्वर ने अन्य स्थान पर भी कहा है+--
“एुच्छा सिद्धिसमुन्नते सुरगणे कल्पहुमेः स्पीयते,
पाताले पवमान भोजनजने कट श्रणशे चलिः ।'
नोरागानगमन् मुनीन् सुरभयश्िन्तामाणेः क्याप्यगाद,
तस्मदर्थिकद्थनां विपहतां श्रीवस्तुपाल$ छितो ॥
(उपदेश तरद्विणी )
एक कवि ने यस्तुपाल में सातों वारों की कल्पना
इस प्रकार की हैः--
«सूरे रणेपु, चरणप्रणठपु सोमः+
घक्तोडतिवक्चरितेषु, घुधोज्थे बोघे ।
हें ] उप्यद्धात
“ जीती ग़॒र।, कविजने ऋविरक्रियासु,
सन्दो5पि च ग्रदमयों नदि बस्तुपालः 7
(उपदेश तरघ्विणी )
अआओोजिनहपंस्रि ने वध्लुपाल चरित्र में कह है।-
. गिरी मच मात न कर्म नेव सकरे।
०
वस्तुपालस्प धीरस्य प्राणों विष्ठति मेदिना? ॥|
हक
लेजपाल की प्रशंसा करते हुए कहा है३---
अश्मूत्रे बत्तिः कृता पूछे दुर्गीसेदेन घीमता।
विप्न्रे तु रूपा इचिस्तेजःपालेन मन्त्रिया!
हरिहर कवि ने कद्दा ३--
“धन्य: स वीरघवलः पितिकेट्मारे-
येस्पेदमद्अतमहो महिमप्रशेहः ।
दीप्रोप्ण दीधिति सुधा क्षिर॒ण प्रवीय॑
मन्त्रिदय॑ किल विलोचनतामपरैति” |
अदन कवि ने कद्ा है:--
“पालने राज़्य लच्मीणां लालने च मनीपियाम्
अस्तु श्रीवस्तुपालस्थ निरालस्यरतिमतिः” ॥
( जिन हर्ष सूरिझस यस्तुपाठ चरित्र )
आवू [ शेर
इस प्रकार वस्तुपाल। तेजपाल की दान बीरता॥
'बिद्दत्ता आदि गुर्यों की प्रशंसा कई जैन अजैन विद्वानों ने
की है। बस्तुतः ऐसे महान पुरुष प्रशंसा के पात्र ही हें।
क्योंकि इन्होंने न केवल जैन धर्म की ही सेवा की है बल्कि
भारतवर्ष के समस्त धर्मों की भा सेवा की है। इन्होंने ऐसे २
नाये करके भारतीय शिल्प की रक्षा कर भारत का सुख
उज्ज्वल किया है । आयाय् पहाड़ की इतनी झ्याति का स्वो-
उधिक श्रेय इन्हीं दो वीर भारयों और विमलशाह को ही है।
यह आशा की जाती है कि छुनिराज श्री जयन्तविजयजी
आबू के दूसरे भागों में इन महा पुरुषों के सम्बन्ध में
विशेष प्रकाश अवश्य डार्ठंगे क्योंकि-आपने छ्मान्र् पर
दौर्घ काल रहकर शिला लेसादि का बहुत ही संग्रह किया है।
आय! के सम्बन्ध में) जैसा कि में पहले कह चुका
हूं, यों तो बहुतसी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, कई लेख भी
छपे हैं, परन्तु इतना सर्वाह्ष पूर्ण ग्रंथ तो यद पहला ही
है। ग्न्थकार महोदय ने “आदू! सम्पन्धी सर्वाह्र पूर्ण
ड्तिहास त्यार करने में कितना परिश्रम किया है, यह
बात इस प्रथम भाग से ओर अप निकालने वाले ग्रन्थों
की योजना से सहज ही में समकी जा सकती है |
कद ] उपोद्घात
अब में अपने इस वक्तव्य को पूरा करूं, इसके पहले
एक दो ओर बातों का उद्लेख कर देना सप्ुचित
समकता हूं ।
इस पुस्तक के प्रष्ठ ४ से पता चलता है क्ति-मुनिराज
श्री जयन्तविजयजी का यह कथन है कि भगवान् महावीर
खामी अपनी छम्मखावस्था में ( सर्वज्ञ होने के पहले ) अबुद
भूमि में बिचरे थे । झविहयसज्ञों के लिये यह नवीन और
इवविचारणीय बात है । अभी तक की शोध से यद्द स्पष्ट हो
चुका है कि इस मरुभूमि में भगवान् मद्ावीर खामी कभी
भी नहीं पघरे। अब इस शिलालेख के आधार पर
अंधकार इस नवीन बात को प्रकट करते हैं। इसकी
सत्यता पर विशेष परामशे और शोध करने की आवब-
श्यकता है ।
दूसरी बात--अंथकार ने स्वयं झायू पर स्थिरता करके-
एक कुशल फोटोग्राफर के द्वारा खास पतंदगी के अच्छे
अच्छे फोट लिबाये हैं, जो इस पुस्तक में दिये गये
हैं। इन्हीं फोटूओं का एक सुन्दर आल्यम, चित्रों के थोड़े
थोड़े परिचय के साथ पुस्तक ग्रकराशक की चरफ से निका-
जलने की योजना कराई जाय तो यह फाये बहुत ही
अबू [ ३७
आदरणिय हेसकेगा | क्योंकि-आगशबू के फोटूओं का इतना
संग्रह आज तक किसी ने नहीं किया ।
हमें यह जानकर बड़ी खुशी उत्पन्न होती है कि-
मिस भ्रकार आबू पुस्तक की 'गुजरातोँ और “हिन्दी
आधृत्तियाँ निकल रही हैं, उसी प्रकार इसका अंग्रेजी अलु-
चाद भी हो रहा है। उधर आबयू! के शिलालेखों का
एक भाग भी छप रहा है । ग्रंथकार के 'किड्चिद् वक्तव्याँ
के अजुसार आय” पहाड़ के नीचे के जिन-जिन गांवों
“ओर स्थानों से उन्होंने शिलालेखों का संग्रह किया
है, उनका, तथा “आबू! सम्बन्धी प्राचीन कल्प, स्तोत्र,
स्तवन बगरह का भी एक भाग निकलेगा। इस प्रकार
अन्यकत्तो आयु! सम्बन्धी छः भाग प्रकाशित करायेंगे।
अक्रैतनी खुशी की बात है ? कितना प्रशंसनीय काये है १
सचमुच मुनिराज श्री जयन्तविजयजी का यह एक
मागीरथ अयल है । उनके इन भागों के निकलने से
न फेवल “आयू! के ही विषय में, परन्तु अन्य भी अनेक
शेतिहासिक बातों पर बड़ा दी प्रकाश गिरेगा ।
गुरुदेव, सुनिराज श्री जयन्तविजयजी की इस कामना
को पण करें, यही घन्तःकरण से में चाहता हूं।
श्ष व] डपोद्घात
अन्त में--मनिराज श्री के अ्यल की जितनी प्रशंसा
की जाय) उतनी कम्र है। उनका यह अद्भुत प्रपत्न
है। इसमें न केवल जैन धर्म का, बल्कि सारे राष्ट्र का
ग्रोरव है। पुनः भी यही चाहता हुआ क्वि-मुरुदेव, ग्रंथ-
कार उनके आगामी कार्यों को बहुत शीघ्र तस्यार और
प्रकाशित कराने का सामथ्ये अप॑य करें, में अपने वकृव्य
को यहां ही समाप्त करता हूँ।
स्रदारपुर छावनी, ( ग्वालियर स्टेट )
फाब्गुन बदि ५ बीर से० २४४५६, ' विद्याविजय
चसे खें० शृश् ता» १३१-३१-३३६
९
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£ विषय सूची 5
अल अं 4328: 70::5:र६
विपय
आबू--
१ आयू
२ राष्ता
३ वाहन
४ यात्रा टकस ( मूडका )
धू देखवाड़ा
विभलवसहि--
१ विमछ मन््त्री के पूर्वन
२ पिमल
३ विमलबसद्ि
४ नेढ़ के वशज
प्ू जौयोंद्वार 2००
2 यूर्त्त संज़्या तथा विशेष विवरण
७ द्यों की रचना «..
+>+>
ढ़
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१५२
श्व्य
श्ध्
२८
३१
१५
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ष्डे
४० ] पविपय सूची
विषय
खिसलवसहि की हस्विशाला
श्री महावीर स्वामी का मंदिर
लूणबसहि--
१ मंत्री वह्तुपाल-तजपाछ के प्रूवेज
महामात्य श्री बर्तुपाल-तेजपाल
चौलुक्य ( सोलंकी ) राजा
थावू के परमार राजा
्
।
४
4 दछणवसद्धि. -«-
६ मन्दिर का भंग व जीर्णोद्धार
७ मूर्त्ति संझ्या शोर विशेष हकौकत
रू हफ्तिजश्ञाठ. ---
£ भारों की रचना -«
१० छणवस्तद्वि के बाहर
३९१ शिर्नार की पाच दूवंके
चलदर ( भीमाशाद का मन्दिर )--
९ पित्ततहर (भीमाशाह का मन्दिर)
२ मूत्ति संजया व विशेष वितरण
३ पिचछदर के बाहर
#०क
बन
हद
१०६
१०७
१०६
११२
११४
११५
श्२र्
१२२५
श्र
१४७
५१६७
श्द्दद
श्ज्ष्
१७६
श्टरे
आदू
विषय
वखरतखसहदि ( चौमुसजी का मंदिर )--
१ खरतरबत्तद्दि ( चैमुखजी का मन्दिर )
२ मूर्सि संझ़््या व विशेष विवरण न
'देलबाड़े के पांचों मंदिरों की मूर्तियों की संख्या
ओरीया ««« न बडे
श्री महावीर स्वामी का मंदिर ०६०
'झचलगढ नग्न ग्ल्न
झअवलगढ के जैन मन्दिरि--
१ चौमुसजी का मंदिर ल््रः
२ भरी चादीश्वर भगवान का मंदिर... ...
३ थ्री ठुयुनाथ मगयान का मंदिर ४४४
४ भरौ शाम्तिनाप मगवान का मंदेर ....
“अचरतागठ भर भोरीया फे जन मंदिरों
फी मूर्तियों फी संख्या की
दिन््द् दोये बया दशनोय स्पान--
( भ्चलगढ़ )
१ झापय-माद्रपह. «««
२ चाप्मुद्य देषो न
कम_न
[४१
श्च्प्
श्च््ध
श्ध्३
श्ह्८
-प्ह्ह
२०२
२०७
२१४
२१६
रश्६
र्र३
श्र
३२२५
४२) * विषय यची
>विषय डे ३
३ अचटगदढ दुर्ग र
'9 दरिथद् गुफा...
५ अचढेश्बर महादेव का मंदिर
8 भतृहरि गा. ....
७ रेती ठुएड.. #... *
ये भूगु आश्रम. #...
(भोरीया)
६ फोटेखवर ( कनखडेश्वर ) शिवालय
१० भौत शुका ००
१९ गए शिखर पी
(द्वेलवाड़ा)
१२ देवर ताछ बन
३-१४ कन्या कुमारी और रसीया वालम
७०१६-१७ नह गुफा, पाएडव गुफा ओर
मौनी बाबा की गुरझा
रृष्ट सत्र सरीवर बडे
१६ झधर देवी न
२० पाष कदेश्वर महँदिव
अ२कक
मु
डर
श्श्ष
२२६
श्श्र
श्श्श
६)
रहेए-
श३६-
२२७
श्श्घ
२३६.
२४०-
झावू
विषय
आयू फ्रेम्प [ सेनिटोरियम
२१ दूधबाबड़ी ब्न्न
२२ नखीताठाब. «««
२३
२४
शरण
२६
२७
श्प्र
श्द
३०
११
३२
३३
२५
३५
३२६
३७
श८
रघुनाथजी फा मंदिर
दुडेश्वरजो का मंदिर
पा गुफा मर
रामप्तरोखा भर
हस्ति गुफा कं
गम दुएड नग्न
गोरक्षिणी माता ««
टॉद रॉक ४०
झायू सेमीटोरियम € ध्यान कैम्प )
बाडिन वाक ( बेलिज का राप्ता )
दिश्लाम भवन. «««
रोऐ॥स सूछ... «-««
गिरजा-पर ््सश
राश्पूतामा होटठ ..
राजदताना शठब ....
मन रोू ४
"४४ ३ विषय सूची
५. विपय न्त्श्ठ
३६ क्रेग्ज ( चट्टमें *«. २५१
४० पोछों ग्राउण्ड बन, 4 इक २५२
<४१-४२-४३ मह्जिद, इंदगाह तथा कबर ««« भर
» ,४४ सनसेठ पोइण्ठ . ««»« हट के
४५ पाडनपुर पोइण्ट . «- ब्न्न शुफ्र३
-( देलवाडुए तथा आतू कैम्प से आतज्रोड )
४६ दूंढाई चौकी ».. रेध४
४७ आबू होई स्कूछ पक गन
श८ जेन पमेश्ञाल ( आरणा तलेठी > .,.. ९५४५
४६ खत घूम ( सप्त घूम 3 बह कक
5५००-५१ छीपा बेरी चौंकी और ढॉक बंगठा .... २५६
४२ बाघ नाठा ४०४ न २५७
७३ महांदेव नाठा .... 25५ त्ञ
धरूछ शान्तिन्माश्रम. .... बन छः
-५५-५६ अ्याछा देवी की गुफा भोर
जैन मन्दिर के खण्डदेर ब्_.. रेफर
७७ टावर शॉफ सायडेन्स *«|«: ६१
ध८ भा (करा). ... पे) रू 9
आवू [ ४४०
विषय
घट
१६-६० अनपुर जैन मन्दिर व डॉक घेंगला २६१
६१ हपीकेश (रखीकिशन) हि २६३
६२ भद्गकाडी का मन्दिर और जैन मंदिर के खण्डहेर २६४
६३ उबरनी मर २६५.
६४ बनास-राजवाड़ा पुर ( सेनीटोरियम ) २६६
६५ खराड़ी (भाबू रोड)
३००
99
(देलवाड़ा तथा आवू के पास अणादरा )
६६ आबू गेट ( अणादरा पॉइण्ट ) ... रध्द-
६७ गणपति का मन्दिर घ४ ह
हट क्रेग पॉइण्ट ( गुरुगुफा ).. -«« २६६
६६ प्पाऊ 325 2३%. $
७०-७१ अणादरा तडेटी और डाक बंगला २७०
७२ अणादरा
न्ब्न 99
आवू के ढाल ओर नीचे के भाग के स्थान
७३-७४ मौमुख और वशिष्ठाश्रम
७५ जमदा्ने भाश्रम
७६ गौतम आश्रम
७७ माधव आश्रम
०० २७९
ई २७५.
०१०
न्न्न बन
६] विषय सूची
खिषय
७८ वास्थानजी कक न
७६ क्रोडीधज ( कानरीघज ) रे
८० देवागणजी बस कर
“उपसंहार--
“परिशिष्ट--
पूह
२७६
२७७
र्ण्य
श्ट०
१ जैन पारिमाषिक तथा अन्यान्य शब्दों के झथे २८७
२ साकेतिक चिट्दों का परिचय
र६५्
३ सोलद्द विद्यादिव्रियों के वर्ण, वाहन् पिन्द्र आदि २६६
9 शाज्ञाएँ (चमड़े के बूठ तथा दशकों के नियम) २६७-३०५
४“ देलवाडे के जैन मन्दिरों के विषय में
कुछ अमिप्राय ३०६०--३२०
ह्त
(35.8
च्नैं०
(27%2%432222% 2
ः
है चित्र-सूची *&
श्र
22 ्त 0 0-20200:030 7720९
नाम
३ आचार्य श्री विजय धर्मसूरीश्वरजी महाराज. ««««
२ मुनि थ्री जयन्त विजयजी
“३ विमछ-वसहि के ऊपरी हिस्से का दृष्य बब*-
है.
५
हा
2१ अलसी, छए्एटए शाणपएल.. «०»
» गैंल गम्भारा और समा मंडप आदि _....
» गर्भागार स्थित जगत्यूउय-श्री हरीविजय-
सूरीश्वरजी महाराज ब्द
» गेह मण्डप स्थित बॉये ओर की श्री-
पाश्वनाथ मगवान् की खदी मूर्पि
» ग्रह मण्डप में (१) गोशछ (२) सुहाग-
देवी (३) गुणदेवी (9) महणा वेद
(५) मीणलदेवी हब
७ नव चौकी में दाहिनी ओर का गवाक्ष ...
» देरी १० विमछ मंत्री और उनके-
पूर्व
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पृष्ठ
रे१
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श्८
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शव
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भ्८ ] चित्र-घची
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११ विमल वसहि देहरी २० समवतरण ब्भड
शेर ,, » देहरी २६ घम्बिका देवी चत
१६ ,, ५ देदरी ४४ सपरिकर श्री पाश्चनायव-
मगवान् 4६
१४ ,, +» देंदरी 9६ चतुर्देशति निन पह ...
१५ ,, +» द्ष्य नं० ३ «४५
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१७ ७ $ 39 ने० ५ सभा मणइप में १६
विद्या देवियों. .««
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नाम पृष्ठ
विमलबसहि, दृष्य नं० १६ नल... दर
को ॥ २१ श्रीकृष्ण कालिय अद्दिदमन दुद
99 # ३६ ओऔरीकृष्ण नरसिंद्यावतार ध्र
डे 8 रे७. ००० बब्क ६३२
9... की हस्तिशाडा में अश्वारूढ पिमल मंत्रीश्वर ६८
9. $$ गजारूढ़ महामंत्री नेह १०२
दछणवसहि की हत्तिशाछा में महामंत्री-
वस्तुपाल-तैजपाल के माता पिता १०८:
छणवसहि की हत्तिशाण्ण में महामंत्री वस्तुपाछ
ओर उनकी दोनों ल्लियां ११०
दणवसद्दि की दृस्तिशाला में मद्दामंत्री
तनपाछ और उनकी पत्नी अनुपमदेवी १११
का भीत्तरों दृष्य ११६
मूलनायक श्री नेमिनाथ भगवान् श्श्र
गूढ़ मंडप स्थित राजिमती की मूर्सि श्र
नवचौकी और सभा मंडप आदि का एक दृश्य १२४
देहरी १६ अश्वाववोध व समली विहार तीर्थ १९८,
“की दस्तिशाडा में श्याम वर्ण के चौमुलनी १३५
| 93 का एक हाथी १३६
कण है चित्र-सची
ने० नाम प्प्ठ
३ दुणवन्नद्दि कौ इत्तिशाल में १ उदयप्रमसूरि,
>>... विजय सेनसूरी ३ मंत्री चडप, ४ चापलदेवी १३ हि
४४ दावे, नवचौकी में दाहिनी ओर का गवाज्ञ १९ श्ष्ट
४५ ॥,; र््ृश्य १० भोतरी हिस्से की सुदर कोरणी १५०-
४६ + परेय हर श्रीकृष्ण जन्म का दृश्य २५०
४७ ७ $ १३ (क) श्रीकृषष्ण गोकुल भर १५२५
9. ४9. (ख) वसुदेवजी का दरवार १५२५
9३ रै८ श्री द्वारिका नगरी और समवसरण १५४७
ध्पघ. +#
४६ +» ४७9 रैरे भरी भरिष्ट नेमिकुमार की बरात १५७
पूछ है ह >ेठे राज वैभव २१५६
प्१५ 9 #? रेश वरधोड़ा आदि १६०
ध्रूए। 9. के बाहर कौर््तिस्थम्म १६७
४९३ श्री पिचलछद्दर ( भीमाशाह्व के मन्दिर ) के
मूछनायक श्री ऋषमदेव भगवान् १७६
धू४७ . ५» स्रीपृब्रीक स्वामी १७६
प४ श्रीखरतरवसहिं का बाइरी दृश्य न. श्द५
प्र गज का भीतरी इश्य न्नन्. रैदके
प्ज के चतुर्मुख प्राघाद पश्चिम दिशा
४४ के मूलनायक मनोरथ करपट्ठम धर
औ पर्शनाथ भगवान्... «... १८६
।
आओ [हः
न्नू० नाम पृष्ठ
थूट श्रीखरतरवंसेहि में च्यवन कत्यायक भौर चौदह स्व्तों
का दृश्य न्न्न. १६०
१९ अचढछगढ़ मूठनायक श्रीशान्तीनाथ भगवान् --. २१६
६०. +» भ्रीअचेरखर महादेव का नंदी (पोठिया)-.. २३०
६१ , » परमार घाराबषों देवभौर तीन महिद्द ... २३१
६२ ग़ुरुशिखर गुरुदत्तात्रेय की देहरी और घमेशाला .... २३४
६३ देवर तोक ग २३६
६४ देखवाड़ा श्रीमाता-(कुँआारी कन्या) »»« शेमे७
६५ - # रसिया वाढम बल शेश्८
६६. »$ सम्त सरोवर «२३६.
६७ आनू कैम्प-नखीताछाब न. १४२
धंद. ५ टोड रॉक *« २४६
६६ » गिरजाघर न. २०१
७० १ राजपूताना कब न्न २७५१
७१ ५ नन रोके न. २७१
रे सनसेटठ पायएट »«». रेपर
७३ आावूरोद-योगनिष्ट श्रिशांतिविजयजी महाराज -... शृपूष्य
७४ आगू-गीमुख ( गौमुखी गंगा ) *.. २७२
विननगन2नजअ>२>२>43.
20270:
श्््ड्््श््क्ल्ो
है
2003: <//
हक आबू ः
"उप "व 'क आह: 7 का-पव आए जा -अ उन आ- डे ।
नत्वा तं श्रीजिनेन्द्रा्ं निषक्रोधहतकसकम।
सर्मसूरिशुरुं सुख्य॑ स्मत्वा जैनीं तथा गिरम्॥१॥
वर्णनमबुदाद्रेहि जगनज्ने त्राहिम थुतेः ।
'किखिलिखामि नामूल लोकोपकारहेतवे ॥ २॥
( थुग्मम )
केवल भारतवपे में ही नहीं, किन्तु यूरोप (8०:००)
अमेरिका (8#ए८7००) आदि पाशथात्य देशों (7०४छ%
००ए०१७७) में भी आबू पव॑त ने अपनी अत्यन्त रमणीयता
एवं देलवाड़ा के सुन्दर शिल्पकला युक्व जन मन्दिरों के
इारा इतनी ख्याति प्राप्त करली है कि उसका विस्तार-पूलेक
चर्णन करना अनावश्यकसा अतीत होता है । इसी कारण से
विस्तार-पूवेक न लिखते हुए संचेप में कहने का यही है कि.
आबू पवेत-(१)देलवाड़ा और अचलगढ़ के जैन
मन्दिर, (२) शुरुशिखर, (३) अचलेम्वर महादेव, '
(४) मन्दाकिनी कुण्ड, (५४) भठेहरि की शुफाई,
(२)
(६) गोपीचन्दजी की' शुफा, (७) कोटेश्वर (कतसले-
श्र) महादेव, (८) श्रीमाता (कन्याकुमारी )। (६)
रासियाधालम, (१०) नलशफा, (११) पॉडवर्शाफा,
(१२) अडुदादेवी (अधर देवी), (१३) रघुनाधजी का
सन्दिर (१४) रामझरोग्वा, (१४) रामकुणड, (१६)
चशिष्ठाक्षम, (१७) मौझग्वीगंगा, (१८) गौतमा++
ख्रम (१६) साधवाश्मम, (२०) घास्थानजी, (२१)
ओड़ीघधज, (२२) ऋपी केश, (२३) नस्वीतालाव,(२४)'
ओर पॉयरट (गुरु शुफा) आदि तीर्थों (जिनका वर्णन भागे
(हिन्दूतीर्थ और दशनीय स्थान नामक यन्तिम प्रकरण
में आयेगा) के कारण प्राचीन काल से ही जिस प्रकार जन,
शव, शाक्त/ पैष्णवादि के लिये पवित्र एवं तीथे खरूप है+
बैसे ही अपनी सुन्दरता एवं स्वस्थ्य दायक साधनों के कारण
राज़ा-महाराजा और यूरीपियनों में भी सुबिख्यात है ।
भोगी पुरुषों के वास्ते बह भोग-स्थान और ग्रोगी पूरुपों के
चारुते योगसाधना का एक अपूर्े घास है। बह नाना अ्रकार
की ज़ड़ी बूंदी व औपाधियों का भस्डार:है | बाग बगीचे,
आक्ृतिक भाड़ियाँ, जेंगल, ,नदी, नाले और मरणा[दि;से
अत्यन्त सुशोमित है।,ज़द्ां थोड़ी २/दृर,पर आम-फुरोंदाः
आदि नाना,प्रकार के फ्लो के इत्त तथा चम्पा।;मोगरादि,
(३)
थुष्पों की काड़ियां आगन्तुकों के हृदयों को अपनी शोभा से
आहादित करती हैं, और स्थान २ पर कूप, बावड़ी, तालाव,
सरोबर, कुएड, गुफा आदि के दृश्य भी आनन्ददायक हैं।
उपर्युक्ष तीथस्थान तथा बाह्य सुन्दरता के कारण आबू
पर्वत, यदि से पर्व॑तों में श्रेष्ठ एवं परम तीर्थ खरूप माना
जाय तो इसमें कोई विशेष आश्र्य की बात नहीं है। आबू
आचीन तथा पवित्र तीथे है । यहां पर कतिपय ऋषि महर्पि
लोग आत्म-कल्याण तथा आत्म-शक्ियों के पिकास के
लिए नाना प्रकार की तपस्याएं तथा ध्यान करते थे।
आज कल भी यहां अनेक साधु-सन््त दप्टिगोचर होते हैं,
परन्तु उन साधुओं में से अधिछ्लांश साधु तो याद्याउम्बरी,
उदरपूर्ति और यश-कीर्ति के लोभी श्रतीत होते हैं। जम
हम शुफारय्ये देखने गये तब हमने दो चार गुफाओं में जिन
व्यक्तियों को योगी, ध्यानी एवं त्यागी का खरूप धारण
किये देखा, उन्हीं महाजुभावों को दूसरे समय आबू कैम्प
के बाजारों में पानवालों की दुकानों पर बैठ कर गप
आप करते, पान चबाते ओर इधर उघर भटठकते हुए देखा।
अत्तेमान समय में आत्म-कल्याण के साथ परोपकार करने
की भावना से युक्त सचे साधु-महात्मा. तो बहुत ही कम
दिखाई देंते हैं। आदू पर्वत पर तेरहवी शवाह्धि में घारह
(४)
गांव बसे हुए थे। आज कल भी लगभग उतने ही शांब'
विधमान हैं। आबू पर्वत पर चढने के लिये रसिया
चालम ने धारद मागे चनाये थे, ऐसी दन्तकथा# है|
भारतवर्ष में दक्षिण दिशा में मीलगरिरि से उत्तर दिशा में
हिमालय और इनके बीच के प्रदेश में आबू को छोड़
कोई भी पर्वत इतना ऊँचा नहीं है मित्र पर गांव बसे
हों। अभी झात्रू परत के ऊपरी भाग की लम्बाई १२
मील और चौड़ाई ,२ से २ मील तक की है। समुद्र से
आबू कैम्प के बाज़ार के पास की ऊँचाई ४००० फीट तथा
शुरुशिखर की ऊँचाई ५६५० फीट है, अर्थात् आबू पर्वत
का सब से ऊँचा स्थान शरुाशिखर है। आयू पर चढ़ने
की शुरूआत करने वाले यूरापियनों में कर्नल टॉड पते
गणना सब से प्रथम की जाती है।
प्राचीन काल में वशिष्ठ ऋषि यहां पर तपस्या करते
थे। उनके आम्रिकृए्ड में से परमार, पड़िदहार, सोलंकी
और चौहान नामक चार पुरुषों फ्रा जन्म हुआ था, उनके
& ०हित्दु सीथं और दर्शनीय स्थान” मसामर प्रकरण में
(१३-१४ ) "कन्याकुमारी और दसतियादालम ” के वर्णन के नीचे को
छुटनोट देखो ।
(६ ५०)
अंशजों की उक्त नामों की चोर शाखायें हुई, ऐसी राजपूर्तों
की मान्यता है।
आबू परत पर सं० १०८८ में विभलशाह ने जैन
मंदिर निमोण कराया। यधपि उस समय इस परत पर
अन्य फोई जैन मंदिर विद्यपान नहीं था, पहतु प्राचीन
* अनेक ग्रन्थों से निश्चित होता है कि महावीर प्रश्ु के ३३ वें
पाट के पट्टथर विमलचमन्द्रहरि के विनेय (शिष्य )
अडगच्छ ( इद्गच्छ ) के सैस्थापक उद्द्योतनसूरि यहाँ
. पर जि० सं० ६६४ में यात्राथे पथरे थे। इस से यहां
थर जैन मन्दिरों के अस्तित्व की संभावना की जा सकती
हीै। संभव है कि उसके बाद ६४ वर्ष के अन्तर में जैन
मंदिर नष्ट हो गये हों। हाल में ही आबू की तलहटी
में आबूरोड स्टेशन से पश्चिम दिशा में ४ मील की दूरी
चर भूंगथला (मुंडथल महातीथ ) नामक ग्राम के गिरे
हुये एक जन मन्दिर से हमको एक प्राचीन लेख मिला
है। जिससे मालूम होता है कि-भगवान श्रीमद्मत्रीर
स्वामी अपनी छम्रय अवा में ( सबैज्ञ होने के पहिले )
अर्वुद् भूमि में विचरे थे। भगवान के चरण स्पश से
अवित्र हुए आयू और उसके आसपत्स को भूमि पवित्र
शी स्वरूप माने जाए तो इसमें क्या आशय है? उपंयक्त
(६)
कथन से यह सिद्ध होता है कि विमलशाह ने यहां पर
जैन मंदिर बनवाया उससे पहले भी आजू जन तीर्थ था।
' शात्रों में आबू के अबुदग्रिरे तथा नंदिवर्धन
नाम दृए्टगोचर होते हैं।
आयू पर्वत की उत्पत्ति के लिये हिन्दू धर्मशास्रों में
लिखा है, और यह बात हिन्दुओं में बहुत अप्िद्ध भी है
प्र प्राचीन काल में यहां पर ऋषि तपस्या करते थे,
उन तपख्ियों में से वशिछ्ठ नामक ऋषि की कामधेलु -
गाय उत्तंकऋणषि के खोदे हुए गहरे खड़े में गिर पड़ी।
गाय उसमें से बादिर मिकलने को असमर्थ थी, किन्तु
खर्य कामभेल होने से उसने उस खाई को दूध से परिएणे
किया और अपने आप तेर कर बाहिर निकल आई ।
फिर कभी ऐसा असंग उपस्थित न हो इस वास्ते वशिष्ठ
ऋषि ने हिमालय से प्राथेमा की; इस पर हिमालय ने
ऋषियों के दुःख को दूर करने के लिये अपने पुत्र नन्दि-
वर्धन को आज्ञा की | वशिष्ठजी नन्दिवर्धन को अबुद सर्प
द्वारा बहां लाये और उस सड्डे में स्थापित करके खड्डा पूर
दिया, साथ ही अर्बुद सर्प भी पर्वत के नीचे रहने सगा।
(-कद्दा जाता है कि वद्द अबुद सर्प छः थः महीने में चाजू
(७)
फेरता है उसही से आयू पर्वत' पर छः छः मंदीने के
अन्तर से भूकम्प होता है)-इसी कारण इस गिरि का अबुद
तथा नन्दिवधेन नाम प्रसिद्ध हुआ होगा नन्दिवर्धन
पर्वत अबुद सपे द्वारा चहों लाया गया उससे पहिले भी
यह भूमि पवित्र थी, यह बात स्पष्टतया निश्चित है।
क्योंकि यहाँ पर पहिले भी ऋषि तपस्था करते थे।
रास्ता---राजपूताना मालवा रेलये होने के पहिले
आयू पर जाने के चास्ते पश्चिम दिशा में (१) अनादरा
तथा पूर्व दिशा में (२) खराड्री-चन्द्राववी, यह दो
मुख्य मांगे थे। अनादरा, सिरोही राज्य का प्राचीन गॉव
है, और वह आगरा से जयपुर, अजमेर) ब्यावर
एरनपुरा, सिरोही, डीसाकेम्प होकर अहमदाबाद
जाने वाली पकी सड़क के फिनारे पर बसा है # | यहां पर
श्री महावीर खामि का प्राचीन जैन मन्द्रि, जन धमेशाला
आर पोस्ट ऑफिस इत्यादि हैं।
# यह सड़क प्रिरिश गवनेमेण्ट द्वारा ईं० सन् १८७१ से १८७६
के दीच मे बनाई गई है। सिरोही राज्य की सीमा में यह सदक आजकल
जीर्ण हो गई है. कई स्थानों मे तो सड़क का नाममोनिशान भा
नहीं है, केघल मील सूचक पत्थर भवश्य लगे हैं ।
अ ३
(छ )
आधू रोड (सरादी ) से आबू कैम्प तक की पक्की सड़क
बनने से अनादरे का मार्ग सौण हो गया-झुख्य न रहा, तो
-मी फिरोहदी राज्य एवं समीपवर्ची ग्राम के लोगों के लिये
आही मांगे अनुरूल है। आयू कैम्प वासियों के लिये दूध, घी,
शाकादि वस्तुएँ प्रायः इसी मांगे द्वारा ऊपर लाई जाती दें,
इसी कारण से यद्द मागे बराबर चालू है। अनादरा गांव
से कच्चे मार्ग पर पूप्ते दिशा में लगभग १॥ मील चलने पर
सिरोही स्टेट का डाक बंगला मिलता है; पहां से आधे मील
'फ्ी दूरी पर आबू फी तलेदी दे # । यहां से त्तीन मील ऊँचा
चढ़ाव है। चढ़ने के लिये छोटे नाप की कचीसी सड़क बनी
हुई है जिस पर बोक लदे हुवे बैल, पाड़े व घोड़े शासानी से
चढ़ सकते हैं। बीच में देलवाड़ा जन कारखाने की
त्तरफ से स्थापित की गई पानी की प्याऊ मिलती है।
मार्ग में कई एक स्थानों पर भील लोगों के छप्पर भी
इषप्टिगोचर होते हैं। घन होने के कारण प्राकृतिक दृश्य
अत्यन्त रमणीय लगते हैं। ऊपर पहुँचने पर वहाँ से आवू
कैम्प का बाज़ार १॥ और देलप्राड़ा ? मील दूर है, जहां
अ यात्रियों की अनुकूलता के लिये अमी यद्वों एक जैच घर्मशाला
अनाने का कार्य आरंभ छुआ है। देलवाढ़ा सैन कारखामे की ओर से यहां
शक पानी को प्याऊ सी दै।
"(७ )
जांने को पकी सड़कें हैं। सीधे देलवाड़ा जाने वाले की
लखी तालाव तथा कमर के समीप से देलवाड़ा को
सड़क पर होकर देलवाड़ा जाना चाहिये।
दूसरा मार्ग आयू रोड ( खराड़ी ) की तरफ से है ।
सिरोही के महाराव शिवासिहजी ने वि० सं० १६०२
€ सन् १८४४ ) में आयू पवेत पर अंग्रेज सरकार को
सेनीटोरीयम ( स्वास्थ्यदायक स्थान ) बनाने के वास्ते
१४ शर्तों पर ज़मीन दी। फिर सरकार ने छावनी स्थापित
न्की, तत्पथात् आबू कैम्प से खराड़ी तक १७॥ मील की
स्लम्बी पकी सड़क बनवाई |
ता० ३० दिसम्बर सम् १८८० के दिन 'राजपृताना
>मालवा रेल्ये! का उद्घाटन हुआ, उस समय खराड़ी ( आबू
नरोड ) स्टेशन स्थापित किया गया; तब से यह मागे विशेष
उपयोगी हुआ। इस सड़क के बनने के पहिले यद् मागे बहुत
“विकेट था। हाथी, घोड़ों ओर चैलों द्वारा सामान ऊपर
भेजा जाता था। कहा जाता है कि देलबाड़ा जन मन्दिर
सके बड़े बड़े पापाण हाथियों पर लाद कर चढ़ाये गये थे |
सड़क बन जाने से अग्र चह विकटता जाती रही। यद्यपि
( २० )
बैलगाड़ी के साथ रात्रि में चौकीदार की आवश्यकता होती
है; परन्तु दिन को ज़रा भी भय नहीं है।
खराड़ी गांव में अमीमगंज निवासी राय बहादुर श्रीमात्
बाबू बुद्धियिंदजी दुर्घेड़िया की बनवाई हुई एक विशाल
जैन धर्मशाला है, जिसमें एक जैन मन्दिर भी विद्यमान है,
म्ुनीम रहता है, यात्रियों को दर तरह का सुभीता है। जन
धर्मशाला के पीछे हिन्दुओं के लिये एक नई तथा अन्य
अनेक धमशालायें हैं ।
आबू रोड से ४॥ मील दूर, आयू केम्प की सड़क
- पर मील नम्बर १३-३२ के पास / शान्ति-आश्रम ” नामक
एक सार्वजनिक जैन धर्मशाला अभी बन रही है, जिसका
लाभ सभी मुसाफिर से सकेंगे ।
आबू रोड से १३॥ मील उपर चढ़ने पर एक
घमशाला आती है, वह आरणा गांव में होने से आरणा
सलेटी के नाम से ग्रसिद्ध है। वहां पर जैन साधु साध्यी
आर यात्री भी रात्रि को निवास कर सकते हैं । यात्रियों के
लिये हर तरह का प्रबन्ध है। यहां पर जैन यात्रियों फो
भाता ( नाश्ता) ठथा गरीबों को चने दिये जाते हैं। यहीँ
की देख रेख अचलगढ़ के जैन भंदिरों के श्वन्धक रखते हैं!
(+»११ )
, जहां से आयू कैम्प १ मील शेप रहता है, वहाँ ( हूँढार
चौकी के समीप ) से देलवाड़ा की एक नहे सीधी सड़क
महाराब सिरोही, महाराजा अलवर, जैन संघ तथा गवने-
मेएट की सहायता से थोड़े ही समय से बनी है। इस सड़क-
के घन जाने से आथू कैम्प गये बिना ही सीधे देलवाड़ेः
तक याहनादि जा सकते हैं। जब यह नह सड़क नहीं
घनी थी, तब जैन यात्रियों को अधिक कष्ट सहन करना
पड़ता था। देलवाड़ा जाने वाले को आबू कैम्प नहीं जाने
देते थे। इस कारण से गाड़ी-तांगे वाले, जहां से मई
सड़क प्रारम्भ होती है, उसी स्थान पर जंगल में यात्रियों को
उतार देते थे । मजद्र कुली आदि सी कभी कभी नहीं
मिलते थे। यात्रियों को १॥ मील तक सामान उठा कर
पैदल पहाड़ी मागे से जाना पड़ता था। उपयुक्त कष्ट का
अजुभव इन पंक्वियों के लेसक ने भी किया है। परन्तु नहै
सडक बन जाने से यह सब कठिनाइयां दूर हो गई ।
इन दो भागों के अतिरिक्त आबू के आसपास के
चारों तरफ के गांवों से आयू पर जाने के लिये अनेक
सुश्की पगडण्डी मार्ग हैं, किन्तु उन मार्गों से भोमिया
ओर चौकीदार लिये बिना आना जाना भययुक्त है।
४ ह३ )
“सुख्यतया जंगल में निवास करने वाली भील आदि ऊाति के
लोग भी ऐसे मार्गों से भिना शल््र लिये आते जाते नहीं हैं।
आदू कैम्प के आसपास चारों तरफ और आएू कैम्प
स्से देलबाड़ा होकर अचलगढ़ तक पकी सड़कें बनी हुई हैं ।
वाहन---आधूरोड ( खराड़ी ) से शायर परत्रत पर
जाने के लिये वाहन ( सवाएियां ) चलाने का गवनेमेण्ट
“की तरफ से ठेका दिया गया है, इस कारण से ठेकेदार के
“अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति किराये पर बादन नहीं चला
-सकता है। आधूरोड स्टेशन से, आतबू पर्वत पर दिन में दो
-ब्रक्त सुबह-शाम किराये की मोटर नियमित आती जाती हैं ।
सके लिये आबूरोड और आयजू केम्प में ठेकेदार के ऑफिस
“मे चौबीस घंटे पहले छचना देने से फटे, सैकएड या
-थईड क्लास के टिकिट प्राप्त कर सकते दें। यदि मोटर में
जगह हो तो धचना न देने से भी जगह मिल जाती है | इसके
अलावा स्वतंत्र मोटर अथवा बैल गाड़ियों के वास्ते २४ घण्टे
"पहिले नीचे उतरने के लिये आधू फेम्प में और ऊपर चढ़ने
के चास्ते खराड़ी में ठेकेदार के ऑफिस में, छचना देने से
म्याहन मिल सकता है । मोटर चाजे गवनेमेए्ट की तरफ़ से
प्रमिश्चित किया गया है । यात्रियों से ऊपर जाने के लिये थडे
( १३ )
क्लास के १॥) रु० तथा दोल-टैक्स के ।) याने कुल २) रु०-
लिये जाते हैं। आवू पर रहने बालों से दोल-टेक्स माफ होनेः
के कारण १॥॥) रु० लिये जाते हैं। ऊपर से नीचे आने”
वाले प्रत्येक मनुष्य से १॥) ₹० लिये जाते हैं। आने जाने
के लिये रिठने टिकट के ३॥०) रु० लिये जाते हैं, जो कि
एक महीने तक चल सकता है। आया कैम्प से देखवाड़ेः
तक आने अथवा जाने के लिये बारह सवारी के मोटर
का चाजे ३) रु० ठेकेदार लेता है, बारह से कम सवारी,
हो तब भी पूरा तीन रुपया देना पड़ता है। बाद में सिरोही
स्टेट की ओर से फी मोटर आठ आने का नया टैक्स लगाया"
गया है, जिसको ठेकेदार यात्रियों से वश्नल करता है।
देलवाड़े से अचलगढ़ जाने के लिये किराये की बेल
गाड़ियां व घोड़े, जिसका ठेका सिरोही स्टेट की ओर से”
दिया गया है और किराया भी निश्चित किया हुआ है)-
ठेकेदार द्वारा मिलते हैं; तथा आवू पर्वत पर सर्चत्र अमणः
करने के लिये रिक््सा ( एक प्रकार की ठमठम जो आदमी:
द्वारा खींची जाती है ) किराये पर मिलती है!
अनादरा के मांगे से आबू जाने के लिये अनादरा_
गांव में; किराये के घोड़े मिल सकते हैं। इस मार्ग पर
( हे४ )
सड़क चौड़ी और पक्की बँधी हुई नहीं है। इस कारण पोढ़े के
अत्तिरिक्त अन्य वाहन ऊपर नहीं जा सकते हैं ! यहां पर
किराये की सवारियों के लिये स्टेट की तरफ से ठेका नहीं दे ।
इस ग्रकार वाहनों का ठेका देने का हेतु सरकार किंवा स्टेट
की तरफ से यह प्रगठ किया जाता हैं कि “मेला आदि किसी
भी प्रसंग पर यात्रियों को उनकी आवश्यकेताजुसार बाहन
विशित रेट पर मिल सकें” यद वात सत्य है, किन्तु इसके
साथ ही अपनी आय की इद्धि करने का द्वेत भी इसमें
सम्मिलित है। यात्रियों का सचा द्वित तो तब ही कहा जा
“सकता है जब्र कि राज्य ठेकेदारों से किसी श्कार का कर
लिये पिना यात्रियों को वाहन सस्ते में मिल सके, ऐसा
प्रबंध करें ।
यात्रा टैक्स ( मूंडका )--देलगाड़ा, गुरुशिखरः
अचलगढ़, अधरदेवी गौर वशिप्लाश्रम की यात्रा करने
च देखने को आने पाले सब लोगों से सिरोही राज्य द्वारा
फी मनुष्य रु० १-३-& यात्रा टैक्स लियाजाता है ।
उपर्युक्त पाँच स्थानों में से किसी भी एक स्थान की
आजा करने व देखने के लिये आने वालों को भी
पूरा कर देना पड़ता हैं। एकबार कर देने से बह
आबू पर्वत के अत्येक्त तीथे फी यात्रा कर सकता है। आबू
( १५ )
कैम्प बासी एक बार कर देने से एक ब्ष प्येन्त संब स्थानों
न्की यात्रा का लाभ उठा सकते हैं । न
निश्चलिखित लोगों का यात्रा टैक्स माफ है;--
१--समग्र यूरोपियन्स तथा एड्डलो इस्डियन्स,
२---राजपूताना के महाराजा तथा उनके कुमार,
३--साधु, संन््यासी, फकीर, बाबा सेवक और ब्राह्मण
आदि जो शपथ पूबेक कहें कि में द्रव्य-रहित हूँ,
४-सिरोही राज्य की प्रजा,
४--तीन वे तक की अवस्था वाले बालक ।
चौकी तथा मूंडके के सम्बन्ध में एक नोटिस सिरोही
स्टेट की तरफ से सं० १६३८ माघ शुक्ला & को प्रकाशित
हुआ था । इसके चाद तारीख १ अक्टूबर सन् १६१७ से
आयू पहाड़ का कुछ हिस्सा लीज ९ पट्टे पर ) पर राज़्य
सिरोही की तरफ़ से छटिश सरकार को दे दिया गया
'जिससे उसमें कुछ परिषत्तेन करके करीय उसी आशय का
एक नोटिस ता० १-६-१६१८ को निकाला गया जो आगू
खीज एरिया में ठहरने व रहने वालों के लिये है मूंडके के
कुक़्मों के सम्बन्ध में इस ग्रंथ के परिशेष्ट देखे जांज ।
( १६ )
3 “ भूंडके का टिकिट आवूरोड स्टेशन पर मोटर में बैठते”
दी स्टेट का नाकेदार रु० १-३-६ लेकर देता है।
कुछ वर्षों के पहले उस टिकिंट पर “चोकी बढावा
बदल अंडकुं ऐसे शब्द झोने का इमें याद आता है । परन्तु
अभी कुछ समय से ये शब्द निकाल कर सिफ 'मूंडका
टिकिट' शब्द ही रक्खे हैं | पहले संवत् १६३८ के हुक्म के
अनुसार जुदे जुदे तीर्थ स्थानों के लिये अलग २ थोड़ी
थोड़ी रकम ली जाती थी। ऐसा मालूम होता हैं कि
पीछे से सबको मिलाकर एक रकम निश्चित कर उसमें भी
थोड़ी रकम और मिलादी गई है | परिणाम यह हुआ
कि-चाहे कोई एक तीथे॑ को जाय, चाहे सब वीर्थों को+
कुल रकम देनी ही पड़ती है | इस अनुचित टैक्स को
इटवाने के विषय में जैन समाज प्रयत्व कर रहा है ।
रा,
मेडका भाफी की कक्षम ७ के अनुसार सिरोही स्टेट:
की समस्त प्रजा का मूंडका माफ दै लेकिन अत्येक मनुष्य
से बतौर चौकी रु. ०-६-६ लिये जाते हैं | यद्यपि आबू-
रोड से देलवाड़ा तक कुल रास्ते में कोई भी चौकी राज
की संत १६१८ से नहीं है ।
(१७ )
“ अनादरा से आबू पर जाने वाले यात्रियों से नींबज
के ठाकुर सांहब पत्येक मनुष्य से चौकी के रु, ०-रे-६
लेते हैं, यहां पर जिसने साढे तीन आने दिये हों उससे
आबू पर सिफे रु. १-०-३ लिये जाते हैं ।
सिरोही के वच्तेमान महाराव के पूेज चौहान महाराव
लुम्भाजी के, इन जैन मन्दिरों, इनके पुजारियों और
यात्रियों से किसी भी ग्रेकार का कर ( टैक्स ) न लेने सम्बन्धी,
सम्बत् १३७२ का १ तथा १३७३ के २ शिलालेख
विमलवसहि में विद्यमान हैं, जिनमें उनके चंशन तथा
उत्तराधिकारियों ( वारिसदारों ) को भी उपर्युक्त आज्ञा का
पालन करने का फर्मान है। इसी प्रकार इसी आशय वाले
महाराजाधिराज सारहदेव कल्याण के राज्य में घिसल-
देव का सं० १३५० का, सहाराणा कुम्भाजी का
सं० १५०६ का तथा पित्तलद्र मन्दिर के कर माफ करने
फे लिये राउत राजधघर का सं० १४६७ का, ये लेख *
विद्यमान होते हुए भी कलियुग के प्रभाव अथवा
लोभ से भण्डार को भरपूर करने के लिये अपने पूर्वजों
के फमोनों पर पानी फेर कर आजकल के राजा महाराजा
# ये सय शिक्षासेस आयू के 'लिख-संग्रइट में प्रकद फ्रिये आाचेंगे।
( श्द )
यात्रा टैक्स लेने को फटिबद्ध हुए हैं, यह बढ़े खेद की बात
है। सिरोही के मद्दाराव इस विपय पर खूब गार कर, अपने
प्रेजों के लिखे हुए दान-पत्नों को पढ़कर यार टैक्स (मूंडका)
सर्वथा बन्द फरके जनता का श्राशीर्वाद प्राप्त करेंगे ।
देलवाड़ा---आबू रोड से १७॥ मील तथा आबू
कैम्प से एक मील दूर, अत्युत्तम शिल्प कला से ख्याति पाने
चाले जैन मन्दिरों से सशोभित, देलवाड़ा नामक गाँत है |
हिन्दुओं तथा जैनी के अनेक देवस्यान विद्यमान होने के
कारण शात्रों में इस गाँव का नाम देवकुल पाठक अयवा
देखल्पाटक कहा है। यहां पर जेन मन्दिरों के अलावा
आसपास में (१) भीमाता ( कन्याकुमारी ), (२) रसिया
बालम, (३) धर्बुदादेवी-अम्बिकादेवी (जो आजकल
अध्रदेवी के नाम से विख्यात हैं) (2) सौनी बाबा
की गुफा, (५) संत्तसरोबर, (६) नज शुका, ओर
(७) पांडव शुफ आदि स्थान हैं, जिनका वर्णन आगे
4(हिन्दुतीथं और दर्शनीय स्थान” नामक अकरण में किया
जायगा । महाँ पर केवल जैन मन्दिरों का ही वर्णन किया
जाता है।
देलवाड़ा गाँव के निकट ही एक ऊँची टेकरी पर
, विशाल कम्पाउएड में ब्े० जैने के पाँच मन्दिर मौजूद
( १६ )
हैं-( १) मंत्री विमलशाह का वनवाये हुआ विमलवसाहि
(२ ) मंत्री वस्तुपाल के लघु भाई मंत्री तेजपाल का
बनवाया हुआ लूणवसहि ( ३ ) भीमाशाह का बनवाया
हुआ पित्तलहर (४ ) चौमुखजी का खरतरवसहि
ओर (५ ) वर्द्धमान स्वामी ( वीर भ्रम )। इन पाँच
मन्दिरों में से शुरु के दो मन्दिर संगमरमर की उत्तम
नकशी से शोभित हैं। तृतीय मन्दिर में मूलनायकजी की
पीतल की १०८ मन की, पंचतीर्थी के परिकर वाली
मनोहर भूर्षि है। चतुर्थ मन्दिर, तीन खण्ड (मंजिल)
ऊँचा होने और अपना घुख्य गंभारा मनोहर नक्शी बाला
होने से दशनीय है। पांच में से चार मन्दिर तो एक
ही कम्पाउण्ड में हैं। चौमुखजी का मन्दिर मुख्य (पूर्वीय)
द्वार से प्रवेश करते दाहिनी ओर एक जुदे कम्पाउण्ड में है|
कीरतिस्तम्म से बाई ओर की सीढियों पे थोड़ा ऊपर
चढ़ने पर एक छोठासा मन्दिर मिलता है, जिसमें दिगम्पर
जैन मूर्त्तियोँ हैं। उसके पीछे कुछ ऊँचाई पर दो-तीन
मकान हैं, जिनमें पुजारी आदि रहते हैं ।
लूण-दसहि मंदिर के मुख्य दरवाजे से ज़रा आगे
उत्तर दिशा में एक छोटासा दरवाज़ा है, जिसमें होकर
(२० )
औड़ी बढ़ते कुछ ऊँचाई पर एक भकान है, मिसके बाहर
शक छोटी शुफ्रा है। उसके निकट एक पीपल के बृच्त के
नीचे अंबानी की एक खंडित मूर्चि हैं। उसके पास के
रास्ते से ज़रा ऊँचाई पर चार देहरियाँ हैं। इस रास्ते
से सीधे हाथ की तरफ कार्यालय का एक मकान है।
इन चार देहरियों में से तीन में जैन सूर्त्तियाँ हैं
ओर एक में अम्बिका की मूर्ति है । ये चार देहरियाँ
<गिरनार की चार हक के नाम से अतिद्ध है |
यूरोपियन्स और राजा-महाराजा इन मन्दिरों के दशेन
करने आते हैं। उनके विश्राम के लिये मुख्य पूर्तीय
दरवाज्ञे के बाहर जैन श्रेताम्बर कार्यालय की तरफ से
शक वेटिंगरूम ( विश्रांपिशृद्द ) बना हुआ है। इस स्थान
पर चमड़े के जूते उतार कर कायोलय की तरफ
से रखे हुए कपड़े के वूद पद्दिनाये जाते हैं। कई साल
पहिले यूरोपियन विज्ञीटसे चमड़े के बूट पिन कर मन्दिरों
में प्रवेश करते थे, जिससे जेन समाज को अत्यन्त
|] न
दुःख होता था। असीम परिश्रम करने पर भी चढ़
कष्ट दूर नहीं हुआ या। यद्द बात जगत्पूज्य खर्गस्य गुरुदेव
आओविजयधमेस्रीस्वरजी को बहुत ही अनुचित अतीत
होने से उन्होंने उप समय के राजपूताना के एजयट टू दी
(२१ )
गवनेर जनरल मि० कालविन साहब से मिल करू
उनको अच्छी तरह से समझाया। तत्पथात् लण्डन के
इंणिडया ऑफेस के चीफ़ लायज्रेरीयन डा० थॉमसः
साहब की सिफ़ारिश पहुंचा कर, “ चमड़े के बूट पदिन
कर कोई भी व्यक्ति मन्दिर में दाखिल नहीं हो सकेगा ”*
ऐसा एक हुक्म गवनेमेणट से प्राप्त करके फरीब्र विक्रम:
सं० १६७० से सदा के लिये यह आशातना दूर करादी ॥
पूर्वीय दरवाजे के बाहर बेटिज्ञलरूम फे पास सामने
की ओर कारीगरों के रहने के लिये और दरवाजे के अन्दर
कार्यालय के मकान हैं, जिनमें हाल नौकर और पुजारी
रहते हैं। मन्दिरों में जाने के मुख्य द्वार के पास बाई
ओर जैन श्रेताम्बर का्योलय है। पेढी का नाम सेठ:
कल्याणजी परमानन्दर्जी है। बिस्तरे आदि वस्तुओं
का गोदाम है। रास्ते के दोनों तरफ कार्योलय के छोटे
तथा बड़े मकान हैं । ऊपर के एक मकान में जैन श्रेताम्बर
पुस्तकालय है ।
यहां पर जन यात्रियों को ठहरने के लिये दो बड़ीः
धर्मशालाएँ हैं। उनमें से एक दो मंज़िल की बड़ी
धमेशाला श्री संघ की ओर से बनी है, और दूसरी
अहमदाबाद निवासी सेठ हृठीभाई हेसाभाई की बनवाई
(२२ )
ह52। कक छा के के 6 डे 3 + ० व्खॉषिक
हुई हैं। यात्रियों के लिये सं अकोर की व्यवस्था हैं।
यात्रियों के बाहनादि का बन्ध तथा अन्य किसी भी
कार्य के लिये कार्यालय में सना देने से मैनेजर अवन्ध
करा देता है। यात्रियों की सुगमता के लिये यहां पर एक
के 0... | >ज. ऑफ श
पुस्तकालय है, जिसमें अभी थोड़ी पुस्तक हैं. और छुछ
समाचारपत्र भी आते हैं | परन्तु यात्रीगण इस पुस्तकालेय
का लाम अच्छी तरह से नहीं लेते। यहां के मन्दिरों
तथा कार्यालय की देखरेख सिरोही संघ से नियत की हुईं
कमेटी करती हैं ।# 22243 45 कीट हम
हू केझू कब्पाएनी परमानंद ( चेंढदाद' केन ऋषोछय ) की पक
घुरानी बढ़ी मेरे देखते में भाई। उस पर लगी हुई चिट्ठी से उसमें
वि सं० १४०६ का दिसाय सालूम हुआ । परन्तु उसका से० प७ ३
न िलाव के राय सासान्य रीति से वि० सें० १८३२ से १:६६ तक का
शिसाय और दस्तावेज़ वयेरह भी थे !
डस यही के किसी २ लेख से मालूम होता है कि--ठक्र समय
झेथहीं के मम्दिरों की ध्यवस्था सिरोही श्रीसंघ के हाथ में थी। वि
सेब १८४६० के धयसपास श्रीक्रचतमढ़ के जैन मन्दिरों की ब्यवस्था
भी देंकवाढ़ें के श्रधीन थी दोनों पर सिरोही के थीसंघ की देखोख
यो । उस समय देलवबाड़े में यति लोय रद्दते थे। सिरोड़ी के पंचों की
सम्मति से. मन्दिर की ब्यवस्था पर उनकी सीधी देखरेख रहती और वे
मन्दिर के द्वित के ये ययाशक्रि अयक्ष करते थे ॥ डढस समय बाइर सर
जो भी यत्ति लोग यहां यात्रा के लिये #ते, वे भी यधाराक्रि नकद_रक्म
आदि सेंट रूप में जमा कराते ये । ५ न्म्गक
( रहे )
अचलगढ़ फी ओर 'जाने बाली सड़क के किनारे पर
शक दिगम्बर जैन मन्द्रि और धर्मशाला 'है। धर्मशाला में
दिगम्बर जैन यात्रियों फे लिये सब प्रंकार की व्यवस्था
है। इस दिगम्पर जैन मन्दिर में वि० सं० १४६४ वेशाख
शुक्षा १३ गुरुवार का एक लेख है, जिसमें लिखा है कि
अताम्बर तीथे--शी आदिनाथ, श्री नेमिनाथ और श्री
पित्तलहर ; इन तीन मन्दिरों के बनने के पथात् श्री मूलसंघ+
अलात्कारगण, सरस्वती गच्छ के भट्टारक्क श्रीपन्ननन्दी
के शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र सहित संघवी गोविन्द, दोशी
करणा ओर गांधी गोविन्द बगरह समस्त दिगम्बर संघ ने
आयू पर राज श्रीराजधर देवडा चूडा के समय में यद्द
दिगम्बर जैन मन्दिर बनवाया ।
श्रीमाता ( कन्याकुमारी ) से थोड़े फासले पर जन
ओताम्बर कायोलय का एक उद्यान हे," जिसमें शाक-
भाजी, फल, फूलादि उत्पन्न होते हैं ।
$ प्ाप्त बहो से यद भी मालूम होता है दि उक्त खबब में
( १८१० के आसपास ) कुछ अरट ( यदे कुए के खाथ यह खेत )
और जोड़ ( घास के लिये दोड़ ) वगैरह भी धीझादीश्चरजी के मन्दिरजी
की मालिकी के थे। उन झरट घगेरइ के नाम यक्र यही में लिखे हुए दैं
उन खरतों के खटमे का सथा यीढ़ के घास को काटने फा ठेका समय समय
धर देने के दस्तावेच भी हैं
(२४ )
' यहां के मन्दिरों सें जो चढ़ावा आता है उसमें से
चावल, फल और मिठाई पुजारियों को दी जाती हैं; शेष
द्रव्यादि स्व चस्तुएँ भंडार में जमा होती हैं
. चेत्र कृष्णाष्टमी ( गुजराती फाल्गुन कृष्णाएमी ) के
दिन, आदोशर भगवान् का जन्म तथा दीछ्ा-कल्याणक
हीने से, यहां बड़ा मेला भरता है। उस मेले में जेनों
के अतिरिक्त आस पास के ठाकुर, फिंसान, भील आदि
बहुत लोग आते हैं। वे सब भक्कि पूषेक भगवाव् के
मन्दिर में जाकर ममस्कार करते हैं; और यथाशक्कि भेट
चढ़ाते हैं। उन ज्ञोगों को कार्यालय की तरफ से मका
की धघूघरी दी जाती है ।*
* पढ्विले इस भेजे में च्मैन ख़ोथ भाकर, ख़ास भालदर के चौक में
शैर खलते थे । ( ध्वोल्ी के निमित्त बीच में ढोली को रख कर सो पचास
आदमी ग्रोल में रहकर दंड खेलते हैं, उसको “ग्रेर खेलना' कहते दें ) +
इससे भगवान की झाशात्तना होती धी। तथा सूच्म नकूशी को भी नुक-
साल दोले का भय रइता था | इसालिय वि० स० १4२३ में भ्रीचसा-
कर याणाजी ने भाषू के देखघाएदा, तोरण्य, सोना, हुंढाई, इंटसगी, भरणा,
औओ रीसा, उतरज, सेर शौर अदलगढ़ झ्ादि बारह गांवों के मुखिया लोगों
को इवहा करके, इन रूप का राजी रुशी से मंदिरों से 'गेर! खेलना बंद
कराया और भीमाशाइ के मंदिर ऊे प॑ थे ( पर्वोय दरदाजे के श्राइर ) बढ़
के आसपास के दोौक में, जो तक आादीश्ररमी के मदर के आाधील
( २५ )
अचलगढ़ जाने वाले यात्रियों की बेलगाड़ियां
यहां से नित्य लगभग आठ बजे रवाना होती हैं, ओर
यात्रा पूजा-सेवादि क्रिया कराके सायंकाल में लगभग पांच
बजे वापिस आती हैं। सिरोही स्टेट का एक सिपाही तो
गाड़ियों के साथ नित्य जाता है|
जैन यात्रियों के अतिरिक्त अन्य विज्ञीटर्स ( अमैन
यात्रियों ) को हमेशा दिन के १२ से ६ बजे तक हीः
मन्दिर में जाने देने का रिवाज है जिसको स्थानीय सरकार
ने भी भज्जूर कर लिया है । अतएवं अजेन यात्रियों को
उपर्युक्त समय नोट कर लेना चाहिये । उक्त समय में सिरोही
स्टेट पुलिस का आदमी यहां बैठता है। जो यात्रा टेक्स
का पास देख कर मन्दिर में जाने देता है ।
आबू पहाड़ और देलवाड़ा का संत्षिप्त वर्णन करने
के पश्चात् देलवाड़े के जैन मन्दिरों का भी संक्षेप में बत्तान्त
देना आवश्यकीय समभता हूँ ।
है, 'गरा खेलना शुरू कराया ओर इस नियम का भंग करने पाले से सवा
रुपया दुंढ आादीखरजी के भेदार में लेने का निश्चित किया यह
इरिदाज़ा अभी तक इसी प्रकार से चज्ञा आता दै। इस दस्तावेज्ञ में उपयुक्त
३० गांवों के नाम दिये हैं। मीचे हस्तादर तथा गवाहियां हैं। भीमाशाहः
के मन्दिर के पीछे का यड़वाला चोर श्रीभादीश्वजजी के मन्दिर का है ।
दोसा इस दस्तावेज में साफ़ साफ लिखा है। “हर
(२६ )
' क्किक्नन्कसाहि
विमल मन््त्री के पूपेज--मरदेश ( माखवाड़ )
हे श्रीमाल' नामक एक नगर है। आज कल इसकी
न्|्याति भीनमाल के नाम से है। यह पद्िले अत्यन्त समृद्धि-
शाली तथा किसी समय भुवरात देश का मुख्यनंगर
नरजघानी था। यहां पर प्रायया/-पोखाल ज्ञाति फा
आभूषणरूप “नीना ” नामक एक करोंड्पति सेठ निवास
करता था, जो अत्यन्त सदाचारी और परम श्राचकू था।
न्काल के प्रभाप से अपना धन छथ होने पर उसने
+ भीनमाल ” को छीड़कर गुर्जर-देशाम्तगत “गाँस
व्नामक आम को अपना मियास-स्थान बनाया। बहां पर
वउनका पुनः अम्युदय हुआ ओर ऋद्धि-सिद्धि आदि भी
आम्र हुईं। उसका “लहर” नामक एक बड़ा विद्धान एवं
ज्शूगपीर पत्र था। वि० स॑० ८०२ में “अणददिलं नामक
गडढरिये के बताये दुए स्थान पर वनराज चाबड़ा”
ने अयहिलपुर पाटना बसाया एवं जालिवृत के समीप
स्वकीय ग्रासाद महल--निर्मोण कराया। तत्पथ्ात् वन
प्राज़ चावड़ा ? में करिसी-समय ९ नीना! सेठ एवं उसके
( ४७ )
युत्र ' “लहर” के “समाचार सुनकर “उन दोनों को
अणहिलपुर पाटन' में ले जाकर बसाया'। वहां पंर उन
लोगों को वेमव सुख तथा कीर्ति आदि की विशेष प्राप्ति
झुई। 'घनराज' “नीनएं सेठ को अपने पिता “के तुल्य
आनता था उसने “लहर को श्रवीर समझ कर अपनी
सेना का सेनापति नियत किया। 'लहर' ने सेनपंती
रह कर “वनराज' की अच्छी तरह सेवा की | उसकी सेवा
से प्रसन्न होकर वनराज ने उसको 'संडस्थल' नामक ग्राम
अट में दिया।
मंत्री वीर मन्त्री 'लहर के वंश में उत्पन्न हुए थे।
उनकी पत्नि का नाम 'वीरमति” था। पीर मंत्री * झण-
'हिलपुर' के शासक 'मूलराज' का मंत्री था, किन्तु धार्मिक
कोने के कारण राज्य-खटपट तथा सांसारिक उपाधियों से
अत्यन्त उदासीन-विरक्--रहता था। अन्त में उसने राज्य-
सेवा तथा स्त्री, पुत्रादि के मोह-मम््य को सबेथा त्याग कर
पत्रित्र गुरु महाराज के समीप चारित्र-दीजा अड्भीकार कर के
आत्मकल्याण फकिया। वि० रू सं० १०८५ में उसका
खगबास हुआ |
$ हुस पुस्तक में जहां पर वि० सं० या सं० का उपयोग किया हो
ज्वहाँ पर विक्रम सेघत् ही ज्ञानना चाहिये। ४
( बेड )
* विमल-- वीर मंत्री ? के ज्येष्ट पुत्र का नाम नि
शथा छोटे का नाम 'विमल या। ये दोनों माई विद्वान
“एवं उदार बृत्ति वाले ये। 'नेढ' अणहिलपुर पाटन! के
राज्य-सिंहासनाधिपति 'गुजेर देश” के चौलुक्य महाराजा
भीमदेय' (अयम ) का मंत्री था। विम्रल' अत्यन्त
कार्यदत्त शूरवीर तथा उत्साही था। इसी कारण से
महाराजा 'भीमदेव' ने उसको खकीय सेनाधिपति निमुक्त
किया था। महाराजा 'मीमदेव” की आज्ाजुसार उसने
अनेक संग्रामों में विजय-लक्ष्मी प्राप्त की थी। इसी कारय
से, महाराजा “मीमदेब ” उस पर सर्देव प्रसन्न रद्ते तया
सम्माने की धृष्टि से देखते थे ।
.. उस समय “आय! की पूपे दिशा की तलेटी के त्िल्कुल
समीप “चन्द्रावत्तीी नामक एक विशाल नगरी थी। उसमें
यरमार “घंधुकं नाम का नृप, गुजेरपति “भीमदेव' के
सामंत राजा के तार पर शासन करता था। वह झबू तथा
उसके आसपास के मदेश का अधिकारी था। कुछ समय के:
बाद “घंधुक” राजा यरुजेर-गप-पति से खततेंग्र होने
- की इच्छा अपवा अन्य किसी कारण से भद्ाराजा * मीम-
देव! की शाज्ञाएँ उन्नंघन करने लगा। इस कार्स से 'भीम-
( २६ )
देव! क्रुद्ू हुआ और उसने “धंघुक' को खाधीन करने के
एलिये एक बड़ी सेना के साथ 'विमल' सेनापति को “चंद्रा-
ज़ती' भेजा। महससैन्य के नेत॥ शरीर सेनापति 'विमल
के आगमन के समाचार सुनते ही, परमार “घंधुक' वहां से
आागकर मालवनाथ धार वाले परमार भोज ( जो उस
समय सित्तौड़ भें रहता था ) के आश्रय में जाकर रहा।
महाराजा “भीमदेव' ने 'विमल मंत्री' को “चन्द्रावती' प्रान्त
का दंडनायक नियुक्त करके उसके रक्तण का काये सौंपा
था। तत्पथ्नात् 'विमल' मंत्री ने सलनता से वणिर् बुद्धि
द्वारा धंधुक! को युक्कि पूषेक समझा कर पीछा बुलाया
और राजा 'भीमदेव' के साथ उसकी सन्धि करादी ।
“विमल मंत्री! ने अपने पिछज्ञे जीवन में चेद्रावती
और अचलगढ़ को ही अपना निवास-स्थान बनाया था।
“एक समय 'श्रीधमेघोपत्ारि! विहार करते हुए “चन्द्रावती
पधारे। 'विमल मंत्री! ने विनती करके उनका वहां पर ही
चातुमोस कराया। 'विमल मंत्रीश्वरँ पर उनके उपदेश का
पूर्व प्रभाव पड़ा। 'विमल' ने स्रिजी से प्राथेना की कि
#भेंने राज्य शासन-काल में तथा युद्धों में अनेक पाए
ऋम किये हैं ओर अनेक प्राणियों का संद्वार किया है. इस
कारण में पाप का भागी हूँ। अतणव मुझ को ऐसा भ्रायश्वित
ह - ( ३०)
प्रदाज़, करें कि जिससे मेरे समस्त -पाप, नष्ट होजावें ”
परीश्वर ने उत्तर दिया कि--जान .बूकः कर इरादापूवेक
किये हुए पापों का प्रायश्ित नहीं होता है, परन्तु त्
शुद्धभाव से अत्यन्त पश्चा ताप पूर्वक प्रायश्षित माँगता है+
इससे में तेरे को आयश्चित देता हूँ कि “तू आयू तीर्थ का
उद्धार कर” । बिमल मंत्रीश्वर ने उपयुक्त श्राज्ञा को सहसे
सखीकार किया |# ग
# 'विमल' संत्री के पुन्न नहीं था । एक समय मंन्ीक्षर ने घर्मपत्नी
के आम्रद्द से अठम ( त्तीव उपंदास ) करके श्री आविका देवी की आराधना
की । देवी उसढी सक्रि और पुयय के प्रभाव से तत्काक्त प्रसभ्ष हुई और
तीसरे दिन की मध्य रात्रि में स्वयं आकर “विमल्ल' मंत्री को कहा कि--
+'ह तुरू पर भसन्न हूँ, कह ! झिस लिये मुझे थाद किया ” मंत्री ने उत्तर
दिया कि, “यदि आप सुर पर प्रसन्न हुई दें तो सुझे एक पुत्र का और
दूसरा आावू पर एक सन्दिर बनाने के वरदान दो”। देवी ने कहा कि,
“बुरदारा इतना घुगय नहीं है कि दो वरदान मिर्ते अतएव दो में से एक-
डच्छित वरदान मांग? । मंत्री ने विचार कर उत्तर [दिया कि “सेरी अर्धायेमी-
से पूछ कर कल्ष वर मांग्रेंगा”। देवी- ठीक ” ऐसा कहकर अद्श्य
डो गई ।
प्रातःकाल में 'विमल” मे अपनी स्त्री से सव वात कही, जिस
पर उसने विधार कर कद्दा, “स्वामिन् ! पुत्र से विरकाल सझ नाम भमह
नहीं रष्ट सकता, कयोंडधि शुद्ध कमी सपूत भोर रूमी कपूत निकलते हैं,
अदि कपूत निकले सो छाठ पीढ़ी का प्राप्त सर नाश होजाता है । ऋतपुक ।
22०40
ब्द्द, हद कट ५ पं
का गहन खडे 2०.
4. ३३ रे
६११)
+विमलवसहि---बिमल महाराजा 'भीमदेव!, नृप-
धंधुक तथा अपने ज्येष्ठ आता 'नेढ़' वी ओज्ञा प्राप्त करके
चैत्य मन्दिर--निर्माण कराने के" लिये आंबू पर्वत प्र्
गये | स्थान पसन्द किया, किन्तु बेहां के बराह्मणों ने इकठ़े
होकर कहा--“यह हिन्दुओं का तीये है। अतणव यहां
जैन मन्दिर बनाने नहीं देंगे। यदि 'पहिले यहां जैन मंदिर
था! यह सिद्ध करदो तो खुशी से जैन मन्दिर बनने देंगे।”
न्राक्षणों के इस कथन को सुनकर विमल मंत्री ने अपने
स्थान में जाकर अह्मम--तीन उपबास कर अंबिका देवी की
आराघना की। तीसरे दिन की मध्य रात्रि में अंबिकादेवी
प्रसन्न द्वोफर सत्र में विमल मंत्री को कहने लगी--्रुके
क्यों याद किया १ विमल ने सब हकीकत कही। पथ्ा
अंबादेवी ने कह्य--“आतः काल में चंपा के पेड़ के नीचे
जहां इुंकुम का खस्तिक दीस पड़े पहां सुदवाना, तेरा
कार्य सिद्ध होगा ।” आतः काल में 'विमल' मंत्री खान कर
चुष्र पुत्र के अतिरिक्त मन्दिर बनाने का घर मांगों कि जिससे (77: मन्दिर यमाने का यर मांगो कि जिससे अपन स्वर्ग और
मोच के सुख प्राप्त कर सके » ।
अपनी अधांगनी के झुख से यह बात सुनकर मंत्री
फिर आधी रात को देंदी साचाद आई, तिस पर मंत्री ने
थर मांगा देवी यह दर देकर अपने स्पान पर गई ।
जाम प्रम्थ में इसका दणेन दिया गया है
दुत प्रषक्त हुभा।
दर बनाने कह
विमज्ञप्रवस्धः
६ ३२ )
सबको साथ लेकर देवी के बवलाये हुए स्थान पर गया।
“वहां जाकर च॑ंपा के पेड़ के नीचे इंकुम के खस्तिक वाली
जगह को खुदवाने से श्री तीयंकर भगवान की एक मूर्चि
“निकली । सबको आखर्य दुआ, और यहां पादिले जैनवीर्य
नया, यह निश्चित हुआ |*
अब फिर ब्राह्मयों ने कह्य कि-“यह जमीन हमारी है।
यहां पर आपको सन्दिर नहीं बनवाने देंगे। यदि “विमल
मंत्री चाहते तो अपनी शाक्रि एवं महाराजा “भीमदेव--
की आज्ञा होने से जमीन तो क्या! लेकिन सारा आबू
नपयेत स्व्राधीन कर सकते थे। परन्तु उन्होंने विचार
किया कि “धार्मिक कार्य में शक्ति अथवा अनुचित
व्यवहार का उपयोग करना अयोग्य है।” इसलिये
उन्होंने ब्राह्मणों को एकत्रित करके समझाया और कहा
७ दूंत कथा है कि --यद्व मूर्ति 'विमल! मंत्री ने मन्दिर बनवाने
से पट्टिसें एक सामान्य गम्मारे में दिस़जमान री थी यद गग्भारा, इस
समय विमलवसहि की भमत्ती में बीसदी देरी के रूप मेँ गिना जाता हैं ।
यह मूर्ति श्रीकऋषपमद्देव की है, किन्तु ल्ञोग इतको २० यें तीयकर सुनियुवत
श्वामी की बतलाते हैं । इय मूर्ति की यहां पर शुभ मुद्दूते में स्थापना होने
तथा *विमल्न ' मेत्री ने सूलनायकज़ों के स्थान में स्थापन करने के जिये
"थांतु की नई सुंदर मूर्ति रूराहै, इन दो झारण से यह मूर्ति यही रही ।
( हेई )
के * तुम इच्छानुसार' द्रव्य 'लेकर जद्दीन दो॥” जाद्विणों ने
( यह समझ कर कि-अगर यह मुंह मांगी क्रीमत नहीं देगा
तो यहाँ पर जेन' मंदिर 'भी नहीं बनेगा )'उत्तर' दिया
कि “सुंबर्ण-मुद्विकां (अंशर्फी ) से नाप कर आदवरंय्के
जमीन ले सकते हो ।” विमल ने यह बात स्वीकार की
और विचारा कि 'गोल सुबर्ण-्रुद्रिका से नापने में बीच
में जगह खाली रह जायेगी।” इसलिये उसने नवीन
चौकोनी, सुबर्ण-मुद्रिकाएँ बनवाई और ज़मीन पर विछाकर
मन्दिर के लिये आवश्यक पृथ्वी खरीदी। ज़मीन की क्रीमत
में बहुत द्रव्य मिलने से ब्राह्मण अत्यन्त प्रसन्न हुए ।
“विमल ' मंत्रीश्वर ने उस स्थान पर अपूरव शिल्पकला-
नकाशी-युक्क; संगमरमर पत्थर का; मूल गम्भारा, गूढ मंडप,
नवचौकियां, रंगमंडप तथा बावन जिनालयादि से सुशोभित
करोड़ों रुपये * के व्यय से “ बिमल-वसही ” नामक
$ जैनों की मान्यता है कि इस मन्दिर के निर्माण कार्य मे
3८,९३,००,०००) भट्दारह करोड़ तिरपन लाख रुपये ज्ञगे।
यदि एक चौरस ईंच चतुर्कोण-चोकोनी सुवर्ण-मुदिका का सूह्य
'पश्च/स रुपये माना जावे तो विमल-वसद्दी मन्दिर में अभी जितनी भूमि
रुकी है उसमें चतुकोण्य सुवर्ण-मुरददेकाएँ दिछाकर ज़मीन स्वरीदने में केवल
भूमि की लागत ४,२३,६०,०००) चार करोड़ तिरपन लाख साठ इजार
हर
( ३४ )
इजिन-मंदिर निर्माण कराया और इस में मृूलनायकजी के
स्थान पर श्रीऋषमदेव भगवान् की धातु की बड़ी दे
संनोइर मूर्ति बनवा कर स्थापित की। इस मंदिर की
अतिष्ठा *विमल मंत्री ” ने वर्धभान छरि! के कर कमलों
द्वारा सै० १०८८ में कराई *
रुपया होती है। तथ इस श्रेष्ठ ओर झभूतपूर्व कल्लापूर्ण संदिर के
चतवाने में +८5,१३,० ०,०००) भरद्टारद करोड़ तिरपस क्लास रुपयों का
झयय होना असम्भव नहीं है ।
१ विमल-्यवंधादि धथों में बन है ह्लि “सेनापति विमल ' ने
देवालय बमवाना भारग्म किया, परन्तु व्यंतरदेद 'यालिनाह दिन भर
ने काम को राध्ति में नए का देंता। छु महीने सक काम चलना, परस्तु
आतिदिन का काम राषधि में नष्ट द्वो जाता | मन्त्री विमक्त ने कार्य में होती
शसलना को देखकर प्रम्विकझ्मा देवी की आराधना की। देवी ने सघ्य रात्रि
मे प्रकट शोकर कट्टा कि “इस भूमि का अधिट्ाापक-दत्रपाल ' थांतिनाह
आदर के कार्य में विए डाक्षता है। यदि यू कल मध्य रात्रि में उसको
अवधादि से संवुष्ट करेगा सो तेरा काम निर्वितता पूरक समाप्त हो या।'। दूसरे
पंदिन मम्त्री नेवैधादे सामप्री स्तेझर मान्देर की भूमि में यथा । उसकी अरतीक्षा
मम मध्य राषि सरू वहाँ भरेल्ा पैठा रहा । टीऊ समय पर *“वालक़िनाह।ँ
अयावइ रूप धारण करके झाया भोर बलिदान मांगा। मंत्री ने प्रछुत
सामप्री उप्तह़े सम्मुख घर दी। देद ने कड्ा कि “में इससे संतुष्ट नहीं हूं ।
आु्े मच, माख दे अन्यथा में सम्दिर दनता अशकय कर दँगा।* पैस्ये-
शाप्षी मंद्री लें उत्त शिया कि 'शादरू दोने के कारण में मच माँस
का बलिदान कद्मापि मई ं दूँगा। इु्छ़ा हो तो नैयंच्ा दे ले, नहीं तो पुद
सादाश्वर भगवान् .
मलवलह्ि, मूलनायक भी झा
विमः
आबू""5<४८८०
७ 4 कतच्रू, ड] ७३६.
( देश )
नेढ़ के वंशज--- 'विमल मंत्री” के ज्येष्ठ आता
“हा के 'घवल' तथा “'लालिंग' नामक दो प्रतापी एके
अशस्ती पुत्र थे। थे चौलुक्य महाराजा “भीसदेव' ( प्रथम )
दे; पुत्र महाराजा “करणराज ' के मंत्री थे। *घवल! का
थ्रुत्र 'आखन्द और 'लालिग ' का पृत्र ' महिन्दु” अपने
अपने पिताओं की भांति गुणवान् थे। ये दोनों महाराजा
4सिद्धराज जयसिंह ! के मंत्री थे। मंत्री 'आशणन्द' अत्यन्त
अभाववान् था। उसकी पत्नी का नाम “ पश्मावती
था । * पत्मावती ' शीलवती। समस्त गुणों की
खान तथा घर्म-काये में तत्पर रहने वाली परम भ्राविका
थी । ' आखणन्द-पद्मावती ” के “ पृथ्वीपल ” और
“महिन्द” के 'दमरथ”! ओर 'दशरथ' नामक दो पुत्र थे ।
हैमरथ! व “दशरथ ने वि० सं० १२०१ में विमलकसही
की दसवें नम्बर की देहरी का जीर्णोद्धार कराया और
उसमें श्रीनेमिनाथ भगवाव् की नूतन अ्रतिमा बनवा कर
के लिये तेयार दो जा ।! मंत्री ने इतना कह कर तुरंत ही भ्यान से तलवार
निकाली और भारी गनेना पूररेक 'वालिनाद पर हट पढ़ा। ववाजिनाहर
मंत्री के असदाय तपस्तेज और पुण्य प्रसाद से प्रभावित हुआ और मंत्री हे
दिये हुवे नैचेय से तुष्ट होइर चला गयां। मन्दिर का कार्वे निर्देशता पूर्वक
ज्लगा और थोड़े समय से चनकर तयार हो गया ” |
६ 8६ )
मूलनायकजी. के स्थान पर पिराजमान की । साथ ही अ५
पूर्वज/ * नीना: से लेकर, अपने दोनों भाइयों तक आा
व्यक्षियों की।आठ मूर्ियाँ एक ही पापाण में बम
कर स्थापित कीं,। उसी देहरी में द्थी सवार-ओऔर घुड़
सवर मूर्ति का £ पडट है। परन्तु उस पर नामादि के अभाव
से यह किस की मूर्ति है, यह जानना कठिन * है। उसे
देहरी के बाहर दरवाज़े पर प्रि० सं० १९०१ का एक
बड़ा लेख खुदा हुआ है | इस लेस से 'विमल्” मंत्री के
बंश सम्बन्धी बहुत छुछ उपयोगी एवं जानने योग्य बत्तान्त
उपलब्ध होवा है।
“धध्वीपाल' अत्यन्त अतापी, उदार और अपने पर्जों
के नाम को देदीप्यमान करने वाले नरपुद्धय थे । थे चौलु-
क्य महाराजा सिद्धराज “जयासह” तथा श्ुुभारपाल' के
अधान थे। इन्होंने इन दोनों महाराजायं की पूर्ण
कृपा भ्राप्त की थी। ये प्रजान्सेतरा | तीथेयाना, संघ-
3 उपयुक्त झाठ स्यक्षियों की गूर्तियों के निर्माता और इस कद
झलिका देहरी का जीयोदार कराने चाज्ने 'देमरथ व दशरथ! में इस
अपूर्द मदिर के निमासा (विमद्ध ” मश्रीक्र की सू्सि न बनवाई हो फ
असमप मालूम होता है। इससे यह भजुमान होता दे कि हाथी पर
बैदी हुई सूत्ति 'विमतमत्रीधर ! की भौर अशारद मूर्ति 'दररथ? डी है।,
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विमल-चलहि का वडा सभा मडप, र६ विद्या दविया अर
महादेव का नन््दी और
कवि दुरासा आदा
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मूलनायक भ्री शान्विनाथ भगवान्
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विमल-धध्तद्वि, मूल गेमागा और समा मध्य आदि,
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विमल-यसदि देंदरी ६० पा विमल सन्या और उनक पूरे आदि
विमल-वबसहि, थ्री अग्दिका देवी
रा]
( देऊ )
क्वि इत्यादि धार्मिक .कृत्यों, में हमेशा 'तत्पर रहते थे ।
पूर्ण नीतिमास् और दीन-दुखियों के दुःख द्र' करने
पृथ्चीपाल ने सं० १२५०४ सें १२०६ तक 'विमल-
सही ” भामक मन्दिर की अनेक देहरियों आदि का
गी्णेद्धारं कराया था । उस ही समय, अपने पूर्वजों की
गर्ति को शाश्वत-अमर करने के लिये। “'विमल-चसही
उन्द्रि के बाहर, सामने ही एक सुन्दर हस्तिशाला
प्रनवाई । हस्तिशाला के द्वार के झुख्य भाग में (विमल
प्रेत्री! की घुड़सवार मूर्ति स्थापित की। इस मूर्ति के
दोनों तरफ तथा पीछे मिलकर कुल १० हाथी हैं।
अन्तिम तीन हाथियों के अतिरिक्त शेप सात हाथी मंत्री
“पृथ्वीपाल' ने अपने पूवेजों के नाम के वि० सं० १२०४
में बनवाये (जिन में एक हाथी खुद के नाम का भी है )।
अन्तिम तीन हाथियों में के दो हाथी वि० सं०
१२३७ में मंत्री 'पृथ्वीपाल' के पुत्र मंत्री 'धनपाल'
ने अपने ज़्येप्ठ आता जगदेवा तथा अपने नाम के
घुनपाये । तीसरे हस्त का लेख खंडित हो गया है। परन्तु
चृदद, मी. मंत्री (धनपाल, का दी. बनवाया ,हुआ मालूम
( देव )
होता है । “धनपाल” ने भी अपने पिता के मांगे का
अनुसरण करके स॑ं० १२४४५ में विमल-वसही' मन्दिर
की कातिपय देहरियों का जी्ोडद्धार कराया। “घनपालों
के बढ़े भाई का नाम “जगदेवँ और पत्नी का नाम
'हपिणी” ( पिणाई ) था । ( हस्तिशाला विषयक विशेष
पिपरण जानने के लिये आगे हस्तिशाला का वर्णन
देखें )।
यहां पर 'विमल-वसही' मान्द्रि की अपूर्व शिल्पकला
तथा अवरण्नीय संगमरमर की नक्काशी ( बारीक खुदाई )
का वर्णन करना व्यथे है। क्योंकि सूल गम्भारा और गृह
मंडप के अतिरिक्त अन्य सब भाग लगभग उस ही स्रिति
में विद्यमान हैं। इसलिये बाचक तथा प्रेत्ेक वहां जाकर
साक्षात् देखकर विश्वास के आतिरिक्त अपूपष आनन्द भी
उठा सकते दे |
यहाँ के दोनों झुख्प मन्दिरों के दशेन करने वाले
मल॒प्प को अवश्य ही यह शैका द्ोंगी कि जिन मन्दिरों
के बाहरी भाग अधथीत् नवचाकियों, रंगमैंडप तथा भमती
की देद्दरियों में इस प्रकार की अपू्े फारीगरी का प्रदर्शन
है, उन मन्दिरों के अन्दरूमी हिस्से (खास तर पर
मूल गम्मारा और गृदमंडप ) बिलकुल सादे क्यों ? शिखर
( ३६ )
भी बिलकुल नीच तथा बैठे आकार का क्यों बन उपयुक्त
शंका वास्तव में सत्य है। परन्तु इसका मुख्य कारण यह है
फक्ि उन दोनों मन्दिरों के निमोता मंत्रिवरों ने बाहर केः
भाग की अपेज्षा अन्द्र के भांग अधिक सुंदर नवशीदार
व सुशोभित बनवाये होंगे। किन्तु बि० संवत् १३८६८ में
झुसलमान वादशाह * ने इन दोनों मन्दिरों का मद किया»
तव दोनों मन्दिरों के मूल गम्भारे, गूढ़ मंडप, दोनों
हस्तिशालाओं की कतिपय मूर्तियों तथा तीथकरों
की समग्र प्रतिमोए बिलकुल नष्ट कर दी हों और बाहरी
सुंदर नक़्काशी में भी थोड़ी बहुत हानि पहुँचाई हो। इस
प्रकार इन दोनों सन्दिरों की हानि होने पर जौर्णोडद्धार
कराने वाले ने अन्दर का भाग सादा बनवाया होगा |
जीणोडदार--'मांडब्यपुर (मंडोर) निवासी 'गोसल'
के पुत्र 'धनसिंह के पुत्र 'वीजड' आदि छः भाइयों तथए
*गेोसल' का भाई “भीमा' के पुत्र 'महणसिह': के पुत्र
'लालिगसिंह' (लल्ल) आदि तीन भाई अर्थात् 'बीजद' क
लालिगं आदि नव भाइयों ने 'विमल-चसही” मन्दिर
$ भन्नाउद्दान खूनी के सैन्य ने वि० सं* १३६८-में जालोर पर
चदाई की थी। वहां से जय प्राप्त कर वापिस भाते हुए आयू पर चद़करु
उस सैन्य में इन मस्दिरों का रथ किया होगा।
( ४० )
का जीणोंद्धार कराकर इसकी, बि० सं० “१३७८ के
ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के शुमादिन धमयोपतश्वारे की परम्परा”
गत . 'ज्ञानचन्द्र॒णरि! से अतिष्ठा करवाई |; संभव. है
कि जीणोद्धार कराने वाले ने मन्दिर के व्रिलकुल नष्ट
अष्ट भाग को अपनी शक्ति के अछुसार सादा तथा नवीन
चनवाया हो । यहां के लेखों से प्रकट होता है कि
इस जीेद्धार के वक्त कदिपय देहरियों में सूर्चियों फिर से
स्थापित की गई हैं। जीणोद्धारक 'वीजड़' के दादा-दादी
4गोसल' “शुशदेवी' की, तया 'लालिग! के पिता-मात्ता
कहणरसिंद! और 'मीणलदेयी” की मूर्तियों आजकल भी
ड्स मन्दिर के ग़ढ़मंडप में विद्यमान हैं ! । ह
, आयू पवेत स्थित मन्दिरों के शिसर नीच होने का
झुण्य कारण यद्द है कि यहाँ पर लगभग छः छः महीने
में शकम्प हुआ करता है । इसमे ऊँये शिसर जन्दी गिर
जाते हैं | मालूम होता है कि इस दी कारण से शिसर नीचे
चनेवाये जाते हैं। यहाँ के हिन्दू मन्दिरों के शिसर भी
प्रायः जन मान्दरा को मात नाच ही दष्टिगत हाते हू ॥
१-- मूर्ति सश्शा सदा वित्त दिश्तद्य मे सूप पेड रत का विवशश जेल ॥
िसल-चसटहि, राभोमारस्थित चयत्पृम्य-थी हाराविजपसूरी अदजी सहाशज
३७ 3 इक & ७ +व
पिमजन्यसद्दधि गृदमरुस्वर्यित बॉव बार का श्रावाधनाथ भगवाज्
डी खड़ी माल
(४१ )
है कप रा
: - यूत्ति संख्या तथा विशेष “विवरणु---६ ४
«' इस मन्दिर के मूल गम्भारे १. में : मूलनांयक'' श्री
आऋषभदेव भगवान् -की पंचतीर्थी' के परिकर चाली भव्य
शव मनोहर मूर्ति विराजमान है। हसही मूल गम्भारे में
आई ओर भ्रीहीरविजय सरीश्वर ” महाराज की ' मनोहर
खूचि, है 7:। इस,-शूर्तिपट्ट के मध्य में'-सरीश्वरजी की
अतिकृति; है 4. उनके . दोनों - तरफः दो साधुओं की
खड़ी, नीचे दो।भावकों की । बेटी हुईं व. ऊपरी भाग में
भगवान् की चैठी हुई तीन मूर्चियाँ हैं) इनकी प्रतिष्ठा
पवि० सं० ,१६६१ में महामहोपाध्याय श्री, 'लब्धिसागरजी'
ने कराई है । मूचि पर लेख. है |
गूड़ संडप में पाश्येनाथ भुगवाद् की. काउसुग्ग
(कायोत्सगे) ध्यान में खड़ी दो अति मनोहर मूत्तियाँ हैं । ॥
प्रत्येक मूत्ति ,पर दोनों तरफ मिलाकर कुल,चोबीस जिन-
आलियोँ, दो इल्हू, दो श्रावक्र, ओर दो, भाविकाओं
की मूत्तियाँ खुदी हुई हैं। दानों के नीचे वि० सै०
१४०८ के लेख हैं । धातु की बड़ी एकल मूर्तियाँ २,
पंचतीर्थी के परिकर बाली मूरत्तियाँ २, सामान्य परिकर घाली
जन पारिभाषिक शब्दा के अथों के लिये प्रथम परिशिष्ट देखे :*
२ सांकेतिक जिट्टों का स्पष्टीकरण द्वितीय परिशिष्ट में देखें । ,
( ४२ )
मृक्तियाँ ७, परिकरें रहित मूतियाँ २१ और संगमरमर का
चोबीसीजी का १ पड्ट है। इस पट्ट में मूलनायकजी परिकर
सद्दित हैं ओर नीचे 'धर्म-चक्र' व लेख है । आवक की २
तथा श्राविका की ३ मूत्तियाँ हैं। वे इस प्रकार हैं--(१)
सा० गोसल ”, (२) 'सह० सुहाग देवि|, (३) “सह
गुणदेवि', (४) 'सा० मुहरणसिंह', (१) 'सहू० मीणलदेवि |
(इनमें की नं० १ व ३ की मूर्तियों, इस मन्दिर का वि० सँ०
१३७८ में उद्धार कराने वाले थ्रावक 'वीजड' ने अपने
दादा-दादी गोसल' तथा 'शुणदेवी” की से० ११६८-
में करवाई। नम्बर ४ थ ५ की सा० “मुदशरसेंद” तथा
सहू० “मीणलदेवी' की मूर्तियों, वीजड़” के साथ
रहकर जीर्णोद्धार कराने वाले वबीजड़' के काका
के लड़के भाई 'लालिगसिंद! ने अपने पिता-माता की संबत्
१३१६८ में घनवाई )। अंबराजी की छोटी मूत्ति १, धातु की
चौवीसी १, घातु की पंचतीर्थी २ और धातु की एकल छोटीः
मूर्चियाँ २ हैं, ( श्रथोत् गूड मंडप में कुल जिन बिंच ३४,
काउसग्गीआ २, चीयीसी का पट्ट १, अम्बाजी की मूर्चि १,
आवक की २ और आतिका की ३ मूर्चियों हैं )।
६ इश६ व ४७० दां पृष्ठ देखो |
डप में, (3) गोसल, (२) सुहागदेवी, (३) गुणदेवी,
विमलवसद्दि के गृदस
(४) महण्णसिद्द, (१) मीणछदेवी ।
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कि 5587 ५७7७ का ऋछ
खिमल-पसद्वि, नर चौढा से दाट्टिता चार का सवाज्ञ ( आला )
कफक ०, औ करत
( ४३ )
गूढ मंडप के बाहर नव चौकियों में बाई ओर केः
ताख में मूलनायक औ्रीआदिनाथ भगवान् की पर्रिकर
बाली मूर्ति १, परिकर रहित मूर्त्ते १, एक ही पापाण
में श्रावक-आाविका का युगल ९१ (इस युगल के नीचे
अचर लिखे हैं, परन्तु पढ़े नहीं जाते) और एक पापाण
पट है जिसके मध्य में श्राविका की सूर्त्ति है। इस मूर्ति
के नीचे दोनों तरफ एक २ श्राविका की छोटी भूर्त्ति बनी
है। बीच की मूर्ति के नीचे ' बारा० जासल' इतने अचर
लिखे हैं । ( कुल दो जिनर्धिंव त्था श्रावक-भ्राविकाओं
की सूर्तियों के दो पट हैं )।
दाहिनी ओर के ताख में मूलनायक श्री ( महावीर
खामी ) आदिनाथजी की परिकर थाली मूर्ति १, सादीः
मूर्ति १ और पापाण में खुदा हुआ १ यंत्र है ।
भूल गम्मारे के बाहर ( पिछले भाग में ) तीनों दिशाओं
के तीनों आलों में तोथेकर भगवान् की परिकर वाली
एक २ मूि है ।
( ४४ 3
* # देहरी नं० है--में मुलनायक श्री [पमनाथ] आदी-
-रवर, भगवान् की परिकर वाली ग्र्चि ? तथा परिकर
वाली एक दूसरी मार्चे दे ( कुल दो मूर्तियों हैं )।
# देहरी नं० २--में मूलनायक श्री ( पारवनाथ )
अजितनाथ मगवान् की परिकर वाली सूर्चि १, सदी मूर्चि
१ और संगमरमर का २४ जिन-माताओं का सपुत्र
'पट्टु १ हैं। इस प्ठ के ऊपरी भाग में भगयान् की रे
-मूर्तियाँ बनी हुई हैं। (कुज्ञ २ मूर्तियों और र 'पह है)।
% देहरी नं० ३--में मूलनायक श्री ( शास्तिनाथ )
( शान्तिनाथ ) शान्तिनाथ भगवान् की सूर्ति १, पंचतीर्थी
के परिकर वाली मूर्चि १ तथा भगयाद् की चौबीसी का
पट १ (कुल २ मूर्तियाँ और १ पइ) है ।
देहरी रू० ४--में मूलनायक श्रीनमिनाथर्जा क्री
फरणयुक्त सपरिक्र मूत्ति १५ सादी, मूत्ति १ झार
१ काउसग्गीआ ह | (इुल रे मूर्चियोँ ह )।
“ देहरी नं० £--में मूलनायक श्री [ ऊँथुनाय ] झजित-
सोट-देशरियों की राययना मन्दिर छे द्वार में धवेरा करते बाई झोर
से छी गई दे | देशरियों पर नम्र भी खुदे इण्दै। * छ ४
( ४श )
नाथ भगवान् की परिकर थाली मूर्ति १ और सादी मूर्चि
१ है। (छल २ मूर्तियों हैं )। +
ः कं
।- » *बेहरी नं० दै--में मूलनायक श्री (निसुब॒त) संभव-
नाथ भगवान् की परिकर युक्त मूर्ति १ तथा परिकर रहित
मूत्ति १ है। ( कुल २ मूर्तियों हें )।
# देहरी नं ० ७--में मूलनायक श्री ( महावीर खामी):
शान्तिनाथजी आदि की ४ मूर्तियों है।
;। देहरी नं० ८--में मूलनायक श्रीपाश्पनाथ भगवान्
आदि के परिकर रहित ३े जिन पं और बाजू में तीनतो्थी
के परिकर वाली १ मूच्ति है। (कुल ४ मूचियों है )।
देहरी नं० ६--में मूलनायक श्री ( आदिनाथ ],
( नेमिनाथ ) ( पार्थनाथ ) महावीर खामी आदि की
३ मूत्तियों है ।
देहरी नं० १०--में मूलनायक श्री (नेमिनाथ) सुमति-
नाथजी की परिकर चाली मूत्ति १, ओर 'सीमंघर' 'युगंघर'
बाहू एवं 'सुबाह, इन चार विहरमान भगवान् की परि
युक्त चार मूर्तियों क्रा पह्ठ * १, तीन ( अतीत, नल 3ी 3:83.
# इस पद की पुक बगल में इसी पत्पर में उपस कप भरे पे
( ४६ )
आनागत) चौबीसियों का संगमरमर का १ बहुत लम्बा पट्ट
डै । संगमरमर पापाण के एक मूर्ति पड में हाथी पर
हहोदे में बेठे हुए श्रावक की एक मूर्चि है! इस मूर्ति के
“नीचे इस ही पट्ट में घुड़सवार श्रावक की एक छोटी मूर्चि
“बनी हुई है । दोनों के सिर पर छत्र है | इस मूत्ति पट्ट पर
“लेख तथा नाम का अभाव होने से यह मूर्ति किस व्यक्ति
-की है यह पता लगाना दुःशक्य है |। इसके पास दी
“संगमरमर के एक लम्बे पत्थर में आठ आवकों की मूर्तियाँ
बनी हुई हैं। प्रत्येक मूर्ति के नीचे मात्र नाम ही लिणे
हुए दें । वे इस प्रकार हैं ।
१-महं० श्रीनीनामूर्चि; ॥ ( 'बिमल' मन््त्री और
उनके भाई मंत्री “नढ़ के बंश के पूर्वजों के मुख्य पुठुष)।
दो मूर्त्तियाँ बनी हैं । थे दोनों हाथ पोड़कर बैड़ी हैं मानो चैत्यदंदन
करती हों | उनके पास फूलदानी वंगैर, पूजा की सामप्री है। इस पट्ट से
इस प्रकार नाम लिखे हट ऊपर से बाद हाथ की त्तरफ---
(२) समिघर सामि ॥ (२) छुमंघर सामि #
(३) याहु तीथैगर ॥ (४) मद्दा गहु तीथैगर ॥
ऊपर की शाविका पर-- धोद्दियि ॥
सीचे को श्राविका पर-- घख्रभयलिरि॥
$ इन तीनों चीवीमियों के प्रयेक भगवान् की मूर्ति के नोचे उन ₹
प्मगवानों रे नाम लिग्दे दें
| देखो चूष्ट ३६ ओर टसके सोच का मोट
(४७ )
२३-महं० श्रीलहर्पू्तिः || ( मन्त्र 'नीना ( नीचक )
का पुत्र )। ह हे
३-महँ० श्रीवीस्मूर्ति: ॥ ( मन्नरी 'लहर॑ के चंश में
लगभग २०० यपे बाद का सन््त्री )।
४-महं० श्रीनेट (6) मूर्ति: ॥ ( मन््त्री वीर का पृत्र
ध्और 'विभल' मन्त्री का घड़ा भाई ) ।
३-महं० श्रीलालिगमूर्तिः ॥ (मन््त्री 'नेढ' का पुत्र) ।
६-सहं० श्रीमहिंदुय (क) मूर्ति! ॥(मन्त्री 'लासिग
का पुत्र )।
७-हेमरथमूर्ततिः ॥ ( मन््त्री 'महिंदुक' का पुत्र )।
८-दशरथमूचिः ॥ ( मन्त्री 'माहेंदुक' का पुत्र ओर
“हेमसथ' का छोटा भाई )।
( श्रीम्राग॒वाद ज्ञातीय 'हेमरथ'ं तथा 'दशरथ' नामक
दो भाइयोंने दसवें नम्बर की देहरी का जीर्खोड्धार कराया ।
देंहरी के हार पर जि० संबत् १९०१ का बड़ा लेख है ।
विशेष वर्णन के लिये देखो पृष्ठ २५-३६) । इस देवकुलिका
में छुल १ मूत्ति और उपगुक ४ भूचि-पढ हैं )
(॥॒
( घड़े
6 ह दंहरो नं० ११--में भूलनोयक श्री (मुनिलुत्रत)
शातिनाथ भगवान् की परिकर वाली शूर्चे १, पंचतीर्थी के.
पारिकर युक्क मूर्तियों २, सादी मूर्चियाँ ३ ( कुल ६ मूर्चियोँ
हे ।
,. देहरी मं० ११५--में मूलनायक़ श्री ( नोमैनाथ )
( शांतिनाथ ) मद्बीरखामी की पंचतीर्थी के परिकर वाली
मूर्ति १ और सादी मूत्तियाँ २ (कुल ३ मूर्तियां ) हैं ।
देहरी नें० १३--में मूलनायक थ्री (वाउपूज्य) चन्द्र-
प्रम भगयान् की पंचतीर्थी के परिकर बाली मूर्चि १, सादे
परिकर बाली मूर्ति ९, परिकर रहित मूर्चियाँ ४ ओर श्री
आदिनाथ भगप्ान् के चरस-पादुका जोड़ १ ( इस
६ बिन मूर्सियाँ और १ जोड़ चरण-पादुका ) हैं।
देहूरी नें० १४--गूलनायक श्री ( आदीखरजी 2)
आदिनाथ भगवानादि के जिनब्िंय ६ ओर हाथी पर बेठे
हुए भ्रावक की १ मूर्ति है * ।
3 सावडू को यद सूर्सि देहरी में सीजे दाद को दीवार में कणों है,
और संगमरमर पापाण में बैठे दवाथी पर देठो हुई सुददी है | एक हाथ
में फत्त मोर दूसरे में फूल की माला दै ॥रारीर पर भगरखसा का (गिद्द
है मृर्ति पर लेख नहीं है। परन्तु देइरी पर लेख है। इस सेख से
साशूस होदा है दि--बइ मूर्ति इस देशइरी का जीयोदार कराने पासे
खबता अंपदा उसके काछा रामा की होनी चादिये ।
( ४३ )
देशरी नं० १४५/--में मूलनायक भरी शांतिनाथ )
( शांतिनाभ ),««««» भगवान् फी पंचतीर्धी फे परिफर
बाली मूर्ति १, सादे प्रिकर याली मूर्णि £ और परिकर
रहित मूर्णियों २ हैं, (छल ४ जिन मूर्तियों हैं )।
छेश्री नं० १६--में मूलनायक भ्रीशांतिन।य भगवान्
फी परिफर पाली मूर्ति १, परिकर रदित मूर्तियों ४ भौर
संगमरगर में घने हुए एक शक्त फे नीचे कमरा पर बैठी
हुई पशासम थाली ? सूर्सि पसी एुई है; जिसपर शेख नहीं
है। सूचि फे एफ तरफ भरायफ तथा दूसरी तरफ भ्रापिका
धवाथ में पूजए का सामान सेकर खड़ी है । सम्भव है कि यह
बिम्प धुण्दरीक स्वामी फा हो । (छल जिनपिम्व ६ और
उक्त रचना का पद १ ६)।
देहरी नं० १७--में समवसरण फी सुंदर रचना,
नह्काशी युक्त संगमरमर फी बनी है। जिसमें मूसनायक
चौषुखजी-( १) महावीर, ( २)“, ( ३ ) आदिनाथ
ओर (४) घेद्प्रभ स्वामी हैं, ( छुल चार मूर्सियों हैं )।
इस देदरी फे पाहर भी एक छोटे समपसरण फी रचना
है। हसमें पहिले तीन गढ हैं, इसके ऊपर चौसुखी स्वरुप
घार मूर्तियों और ऊपर शिखर युक्त देरी फा झकार,
संगभरणर के पक ही पत्थर में घना हुआ दै।
है आधक है
देहरी नं० १८---में मूलनायक ओऔ '्लैयांसनाथे भ
चानादे के तीन जिनविम्ब हैं। इस देहरी का घाइरी गुम्प
आर द्वार आदि सब्र नये बने हुए हैं ।
इस देहरी के वाद दो खाली कोठड़ियों हैं; जिन
अन्दिर का फुटकर सामान रहता है। ५
देंहरी नं० १६--में परिकर रहित मूलनायक् अं
आदिनाथ भगवानादि के मिनबिम्ब ७ और सादे परिक
वाले २, कुस & जिनविम्त हैं।
इसी देदरी के बाहर दीयार में एक आला हैं; जिसमें
सीनतीर्थी और सपे फन के परिकर थाली एक प्रतिमा है ।
देहरी नं० २०--के खान में श्री ऋषदेव भगवान्
का बड़ा गम्मारा है; जिसमें भूलनायक श्रीऋषभंदेव $
$ ह सूर्ति रे दोनें कथा पर चोटी का चिट्ट होने से दइृढ़ता पूर्देक कट्ट
सकते दैँ कि यह भ्रतिमा श्री सुनिश्युम्तस्वामी की नहीं डिन्तु थी ऋपभदेव
अगवान की दे । बैठक पर सबुन भझमाय, श्यय्मकर्ण, और रूपे पर रहे
हुए चोटो के चिद्ध की सर श्यान नहीं पहुचने भादे कारणों से लोग,
इस सूर्ति को श्रीमुनिसुमत स्दामी की मूर्ति! मानते हैं। वास्तव में यह
अमणा है। अय से इस सूर्ति को सी कऋिपमरेंत सगयात! ही की सूर्ति
मानना चादिये । दंत कथा दे कि-/झविका देदी' ले पदिमज्ञ' मंत्री को ध्वम
98 90820.
४ ज फ्
है] पक
व्फ्श्ट्त्प् न
विमल-चसहि, देहरी २० “समवसरग.
20, 2. एक्शन 4 ]करक
( ४१ )
वान् की श्याम वणे की बड़ी और ग्राचीन अतिमा १,
ते गठ की सुंदर रचना वाल्ले * समवसरण में परिकर
ले चौप्ुखी स्वरूप जिन बिम्ब ४, उत्कृष्कालीन १७०
थैकरों का पह्ट १, एक एक चौथीसी के पट्ट ३, पंचतीर्थी
परिकर वाली श्रतिमा-१, सादे परिकर वाले जिनबिम्ब
, बिना परिकर के जिनबिम्ब १५, चौबीसी के पट्ट से
दे हुए छोटे जिनबिम्ब ६) पाट पर बैठे हुए आचाये की
ही मूर्ति १ (इस मूत्ति के दोनों कानों के पीछे ओघा,
हिने कंधे पर मुँहपात्ति, एक हाथ में माला ओर शरीर पर
पड़े के चिह्न बने हैं। इस पट्ट में दोनों तरफ हाथ
ड़े हुए श्रावक की एक २ खड़ी मूर्ति बनी है; जिनके
ड़ यह सूर्ति लगभग वि० खं० १०८० में भूमि से प्रकट करवाई । इस
लि का निर्माण काल चतुर्थ आरा (करीब २४६० वर्ष पूे) कहा जाता है ।
वेमलशाह' ने मंदिर निर्माण कराते समय सब से पद़िले इस ही गग्भारे
बनवाया; जिसमें इस झूत्ति को विराजमान किया ।तत्पश्नात् (विमल? ने
ज्ञनायकजी के स्थान में स्थापित करने के उद्देश से धातु को एक भत्ति
मण्णीय और बड़ी झूर्सि बनवाई जिससे वह सूर्सि इस ही गस्मारे में रही।
१ इस समवसरण में नियमाजुसार प्रथम गढ ( किला ) में चाहन
पवारियाँ), दूसरे यद में उपदेश सुनने के लिये आये हुए पशु्नों, बीसरे
ढ में देव घ मनुष्यों की यारह्द पपंदा, थारद दरयात्रे, गद के कांगड़े और
सर देदरी की आकृति आदि को रचना बहुत सुंदर रोति से छाई के ५
( ३ )
नीचे--/सा० घहा। सा० बालए नाम खुदे हैं। आचार्य
की इस भूरत्ति के लेख से अकट होता है क्कि उपर्युक्त दोनों
आवको ने, धर्मघोष खरे के शिष्य आनंद उरि-अपर प्भ-
झछरे के शिष्य ज्ञानचंद्रछरि के शिष्प “श्री मुनिशेखर सरि
की यह मूर्ति वि० सं० १३६६ में बनवार) आचार्य की
बिना नाम की हाथ जोड़े बैठी हुई छोटी मूर्ति ९ (इस सूचि
में भी ऊपर की वरह कानों के पीछे ओधा, शरीर पर
कपड़े का देखाव और हाथ में मुँहपत्ति है), श्रावक-
आविका के बिना नाम के बड़े युगल २, हाथ जोड़े हुए
श्रावक की खड़ी बोटी मूर्चि १५ द्वाथ जोड़े बेढी हुई
आविका की छोटी सूरत्ति १, अंब्रिकादेवी की छोटी-
मूर्ति ९, भूमिग्रह-तलघर से निकली हुई अंबिका देवी
की धातु की सुन्दर मूर्ति १, यक् की सूरचियों! २, भेरव-
चेत्रपाल की मूर्ति १ और परिकर से प्रथक् हुईं इन्द्र की
मूर्चि १ है। [इस गम्भारे में कुल पंचतीर्थी के परिकर
युक्त मूर्त्ति १, सादे परिकर युक्त मूत्तियाँ ९, मूलनायकजी
सद्दित बिना परिकर के जिनर्थिंव १६, मिलकुल छोटी जिम-
मूर्तियाँ ६, चार जिनबिंय युक्त समवसरण १, १७० जिनपट्ट
१५ चौपीसी जिनपट्ट $ आचार्य मूर्ति २, श्रावक-भ्राविका
€ ४्ड )
के घुगल २, श्रावक मूचि १, भ्राविका मूर्चि ३, अंबिका
देवी की मूर्ति २ ( संगमरमर की १ और घातु की १ ),
हन्द्रमूर्ति १, यत्तमात्ति २ और भरवजी (च्षेत्रपाल ) फी
मूर्ति १ है ]। *
देहरो नं० २१--(उपयुक्न गम्भारे के पास की देहरी)
में अंबिका देवी की चार यूर्तियाँ हैं, जिनमें की मूल
मूरत्ति। बड़ी और मनोहर है। इसके नीचे लेख है। इस
मूर्ति को वि० सं० १३६४ सें 'विमल' मंत्री के चंशगत
पंडण ( माणक ) ने बनवाई, इस मारते और बाई ओर की
अभिका देवी की छोटी पूर्ति के मस्तक पर भगवान् की एक
एक मूर्चि बनी है।
देहरी नं० २२--में मूलनायक श्री [ आदिनाथ ]
आदिनाथजो की तीनदीर्थी के परिकरवाली मूर्ति ९ और
बिना परिकर की सूर्चियों २ (कुल ३ सूर्तियाँ) हैं। इस
देहरी का सारा बाहरी भाग नया बना हुआ है।
# देहरी ने० २ऐ--में मूलनायक श्री [ आदिनाथ ]
(् यद्मग्रम ) नेमिनाथ भगवान् साहेत सादे परिकर वाली
मूर्चियों २ और पंचतीर्थी के परिकर पाली मूर्ति २
(कुल ३ पूर्तियाँ) है।
( 2४ )
# देहरी न॑० २४--में मूलनायक भी (शांतिनाथ)
समातिनाथ अथवा अनंतनाथ भगवान् सहित सादे परिकर
वाली पूर्सियाँ २ और प्िना परिकर वाली मार्च £ई
( छल ३ मूत्तियाँ) है ।
# देहरी ने० २४--में मूलनायक श्री ( संमवनाथ )
पार्थनाथ भगवान् की परिकर वाली मूर्ति १, बिना परिकर
की मूत्ति १ और चोबीसी का पह्ट १ ( कुल २ मूत्तियाँ
और १ पड़) है।
# देहरी नं ० २६--में मूलनायक श्रीचेद्रग्रम भगवान्
की तीनवीर्थी के परिकर वाली मूर्चि १ आर बिना पारिकर की
मूर्सियाँ २ (छुल ३ मूत्तियों) हैं ।
# देहरी नं० २७--में मूलनायक श्री (सुमतिनाथ )
(सुमतिनाथ) “”'*“ भगवात की पंचतीर्थी के परिकर बाली
मूर्ति ३ और सादी मूर्चियाँ ३ (कुल ४ मूर्चियों ) हैं।
# देहरी नं० २८--में मूलनायक श्री (पद्मप्रम)
नेमिनाथ मगवान् की तीनतीर्थी के परिकर वाली मूर्चि १
और सादी मूर्तियों २ (कुल रे मूतचियाँ ) हैं ।
देहरी नं० २६-में मूलनायक भरी (सुपा्थनाथ )
आंदिनाथ भगवान की तौनतीर्थी के पारिकर बाली मूर्चि १
तथा बिना परिकर की मूर्चियाँ २ (कुल ३ यूर्चियों ) हू!
( ४५ )
देहरी न॑ं० ३०--में मूलनायक ओऔ (शांतिनाथ)
सीमंधरखामी की परिकर वाली मूरत्ति १ और विन
परिकर की मूर्तियों २ (कुल रे पूत्तियाँ) हैं।
देहरी नं० ३१--में मूलनायक श्री (अनिसुत्रत »
सुविधिनाथ भगवान् की पंचतीर्थी के परिकर वाली मूर्ति £
ओर सादी मूर्तियां २ (कुल ३ मूर्तियों ) हैं।
देहरो नं० ३२--में मूलनायक श्री [ऋणषभदेव |
(शान्तिनाथ ) ( महावीर ) आदिनाथ भगवान् सहित पारिकर
वाली मूर्त्तियाँ २ और बिना परिकर की मूर्ति १ (कुल ई
पूर्तियों ) है ।
देहरी नं० ३३--में मूलनायक श्री (अनंतनाथ )
कुंधुनाथ भगवान् की परिकर वाली मूर्ति ? और बिना
परिकर की सूर्तियों २ ( कुल ३ भूत्तियों ) हैं ।
देहरी नं० ३४-में मूलनायक श्री (अरनाथ)
( सन्लिनाथ ) पद्मप्रभ भगवान् की परिकर वाली मूर्ति १ और
बिना परिकर की मूर्त्तियाँ २ (कुल ३ मूर्चियाँ) हैं।
धर्मना अदेहरी नं ० कर मूलनायक श्री ( शान्तिनाथ )
घमेनाथ मगवान् सद्दित परिकर बाली पूर्तियों २ तथा तीन-
दीथी के परिकर वाली मूर्ति १ (कुल ३ मूर्चियां ) रे
( *४ )
* #देहरी ने० इई--में मूलनायफ शी (घर्मनाय)
शांतिनाथ भगवान् की परेकर बाली मूर्ति १ ओर पिला
यरिकर की मूर्सियां २ ( कुल ई मूर्चियां ) हैं ।
' देहरीनं० ३७--में मूंलनायक थ्री (शीतलनाय )
पार्शनाथ भगवान् की परिकर घाली मूर्चि १ और बिना
यरिकर की सू्तियों २ (ुल २ मूर्तियों ) हैं ।
। #देहरी नें० ३८--में मूलनायक श्री ( शांतिनाथ )
आदिनाय भगवान् की परिकेर बाली मूर्ति १ और बिना
यरिकर की मूर्चियाँ २ (कुल ३ मूर्तियोँ) हैं।
$ देहरी ने० ३६--में मूलनायक श्री ( कुंधुनाय 2
कुंधुनाथ भगवान् सहित परिकर वाली मूर्त्तियाँ २ ओर तीन-
तीर्थी के परिकर वाली मूर्चि १ (कुल ३ मूर्चियों ) है। *
# देहरी नं० ४०--में मूलनायक श्री ( मप्लिनाय )
६ समतिनाथ ) विमलनाथ भगवान् की परिकर वाली मूर्चि
३ और बिना परिकर की मूर्चियाँ २ (कुल रे सूत्तियाँ) हैं
(» # देहरी ने० ४१--में मूलनायक श्री ( चासुएज्य )
शाखा वारिपेयजी की परिकर वाली मूर्ति १ और पिनां
परिकर की मूर्तियों २ (छुल मूर्चियाँ ३ ) हैं।
विमलन्यसद्ि देहरी ७४३--सपरिछर भीपा धनाथ सगवान-
ये 3 कीपरणन 4 -त
(४७)
, #ेहरी नं० ४२---में मूलनायंक श्री [ आजितनाथ ]
(आदिनाथ) आदिनाय भगवान् की तीनंतीर्थी के परिकर
चाली मूर्ति १ एवं सादी मूचियों २ ( कुल रे मूर्तियाँ ) हैं
# देहरी नं० ४३--में मूलदायक श्री [नेमिनाथ ]
कक 888 भगवान् सहित सादे परिकर वाली मूर्तियों २ एवं
'प्रंचतीर्थी के परिकर वाली मूर्त्ति १ (कुल ३ मूर्तियाँ) है ।
# देहरी नं० ४४--में मूलनायक श्री [ पाश्वनाथ |
पाश्चैनाथ भगवान् की अति सुन्दर नक़्काशीदार तोरण '
और परिकर वाली मूर्ति १ तथा सादे परिकर बाली
मूर्ति १ (कुल २ मूर्तियाँ ) है।
देदरी नं० ४५--में मूलनायक्र श्री ( नमिनाथ )
(शांतिनाथ) आदिनाथ भगवान् की अलन्त सुंदर नक़्काशी-
<दार तोरणां एवं परिकर वाली मूर्चि शहे।
देहरी ने० ४६--में गूलनायक श्री [ म्रनिसुत्रत |
(अजितनाथ) धरमनाथ मगयान् की परिकर वाली मूर्ति १
और परिकर रहित प्रतिमाएँ २ ( छल ३ मूर्तियाँ ) हैं ।
, देहरी नं० ४७--में मूलनायक श्री [महावीर]
(शाविनाथ) अनंतनाथ मगवान् की अत्यन्त सुंदर नक़काशी-
द्वार तोरण और पंचतोर्थी के परिकर वाली मूत्ति १ है।
( #८द )
।. अदेहरी न॑ं० ४८-में मूलनायक' श्री [आंजेवनाथ!
सुमतिनाथ भगवान् सहित परिकर वाली प्रतिमाएँ २ तथा
परिकर रद्दित मूर्ति १ (कुल ३ मूर्तियां ) है।
# देहरी न॑ं० ४६---में मूलनायक श्री [ पाश्चनाथ ]
आजितनाय भगवान् की परिकर वाली पूर्त्ति १ है । बोई
ओर परिकर वाली एक दूसरी मूर्चि है; जिसके परिकर में
झुंदररीत्या भगवान् की २३ मूर्त्ियाँ बनी हुई हैं | इस-
लिये इसको चौबीसी का पट्ट कद सकते हैं । परन्तु इस पट
के मूलनायकजी की मूर्ति बड़ी और परिकर से भिन्न है
(कुल मूर्ति १ और उपयुक्त पट्ट १६ै)।
देहरी नं० ५०-में मूलनायक श्री [ बिमलनाथ ]
महावीरखामी की पारिकर वाली मूर्ति १ है।'
देहरी ने० ४१--में मूलनायक श्री [आदिनाथ]”““
भगवान् की तीनतीर्थी के परिकर वाली मूर्ति १ और बिना
परिकर की मूर्ति १( छल २ यूत्तियाँ ) दे।
# देहरी न॑० ४२--में मूलनायक श्री [महावीर |
मद्दावीरखामी की पंचतीर्यी के परिकर पाली भूचि १ ओर
परिकर रद्दित मूर्ति १ ( छुल २ मूर्चियोँ ) दे ।
5, भू रु है २ # कक कै हर
#प॥ा इअ हक आआ 2
जी न्ऊन
विमल-वसहि, देहरी ७६--चतुविशति जिन पह
( जिन चांदी )
9 4 ए२०क०, &]काटर
( शे६ )
कक #देहरी ने० ५३--में मूलनायक औी शीतलनाथ
भू की परिकर बाली मूर्ति ९ और पिना परिकर की
भूर्चियों २ ( कुल ३ मूर्तियां ) हैं ।
किक अदेहरी नं० ५४--में मूलनायक श्री पिशनाथा
गदिनाथ भगवान् की अत्यन्त सुंदर नक़्काशीदार तोरण के.
सभ। (ऊपर का तोरण नहीं है) और तीनतीर्थी के परिकर
सहित पूर्ति १ है ।
इस मंदिर में छुल मूर्तियों इस प्रकार हैं।--
१७ पंचती्थी के परिकर संददित मूर्तियों ।
११ त्ितीर्थी # है । है । 8
६० सादे ११ 9$ 99
१३६ परिकर रहित मूर्तियाँ ।
२ घातु की बड़ी एकल प्रतिमा ।
३ बड़े काउसग्गिये।
१ छोटा काउसग्गिया, परिकर से जुदा हुआ
१ एक सौ सत्तर जिन का पई |
१ तीन चौबीसी का पड ।
७ एक चौबीसी के पट |
१ जिन-माता चौबीसी का पई |
# खेर
( हईै० )
२ भ्रातु की चौबीसी |
२ धातु की पंचतीर्थी 4
१ धातु फी एकतीर्थी |
“२ धातु की चिल्कुल छोटी एकल श्रतिमा |
१ आदीश्वर भगवान् के पादुका की जोड़ ।
' १ पापाण में खुदा हुआ यंत्र ।
६ चोबीसी में से छुटी हुई छोटी जिन मूचियाँ ।
3 आचार्यों की मूर्तियाँ (१ मूल मम्भारेमें और
२ देहरी नं० २० में हैं )।
9 भ्रावक-भाविका के सुगल, ( ! नवचौकी में, २
देहरी न॑० २०, में और एक युगल दस्तिशाला
के पास याले बड़े रंगमंडप में है ) ।
-9 श्रावकों की सूर्त्तियाँ (२ भूर्चियोँ गढ़ मंडप में,
१ देहरी न॑० १४ में और १ देहरी नं* २० में है )।
5२ पट देहरी नं० १० में हैं, एक पट्ट में हस्ती तथा
घोड़े पर बैठे हुए आवक की दो मूत्तियों बनी
हुई हैं, और दूसरे पड में “नीना' आदि भाषकों
की आठ मूर्चियों बनी हुई हैं
“४ आविका की मूर्त्तियों ( दे गूहमंडप में ओर १
देहरी नं० २० में है )।
(६१ )
१ श्राविका पड्ट नवचाकी के अलि में है; जिस
आबिकाओं की तीन मूर्चियाँ बनी हुई हैं।
२ यक्त की शू्तियाँ (देहरी नं० २० में) हैं।
७ अंग्रिका देवी की मूर्तियाँ (देहरी नं० २० में
देहरी नं० २१ में ४ तथा गूढमडप में १ ) हैं
१ भैरवजी की खड़ी मूर्ति ( देहरी नें० २० में )'
१ इन्द्र की मूत्ति।
१ लक्ष्मी देवी की मूर्ति (हस्तिशाला में ) है।
११ हाथी १० और थोड़ा १, कुल ११ ( हसिशा
में) हैं।
१ अश्वारूढ मूर्ति 'विमल' शाह की (हस्तिशाला में)
१ 'बिमल' शाह के मस्तक पर छत्नघारक की रख
मूर्ति ( हस्तिशाला में ) है।
८ द्वाथी पर बेढे हुए भ्रावकों की मूर्तियाँ ३ ३
महावतों की मूर्तियोँ ५, कुल ८ मू्तियाँ ( हू
शाला में ) हैं।
“प्छ क्७
(६२ )
हश्यों की रचना--
(१ ) विमलवसही के गूदुमंडप के मुख्य अवेश हा
के बाहर, दरवाजे और बाण ताक़ के बीच की दी
नक़्काशी के सर्वोच्च भाग में (प्रथम खण्ड रू
आवक भगवान् की ओर बैठकर चैत्यवंद्न कर रो,
पास ही में एक आश्राविका हाथ जोड़कर खड़ी है, डि.
पास एक अन्य श्राविका सड़ी है। दूसरे खण्ड में
शआ्रावक हैं; जिनके हाथ में पुष्पमालाएँ हैं । तीसरे खण्ड में ,
आचार्य महाराज आसन पर बैठकर उपदेश दे रहे हैं।
पास में ठवणी (स्थापना) रक््खी है। इसके नीचे के
चार्रो सण्डों में थाक्रम तीन साधु, तीन साध्दियों, तीन
शआवक और तीन भ्राविकाएँ सड़ी हैं ।
(२) वहीं झुख्य द्वारा और दाहिने ताझ के
बीच की दीवार में सब्रसे ऊपर ( प्रथम खसणड में )
एक आविका द्ाथ जोड़कर खड़ी है। उसके पास द्वी एक
आवक सड़ा है। दूसरे खण्ड में पुष्पमाला युह दो
आवक ओर शक अन्य श्रावक हाथ जोड़कर खड़ा हई।
सीसरे सणड में गुरु महाराज दो शिप्पों को क्रिया करते
हुए मस्तक पर वासचेप डाल रहे हैं। दोनों शिप्प नम्न
<
( ६३ )
मा से, मस्तक झुकाकर वासक्तेप उलवा रहे हैं। गुरु
अहाराज उच्च आसन पर बैठे हैं, सामने उनके मुझ्य शिष्य
छोटे आसन पर बैठे हैं ! बीच में पे पर ठवणी (स्थापना-
चाय्थे) है। इसके नीचे के चारों खण्डों में पूवेवत् ही तीन साधु,
तीन साध्वियों, तीन श्रावक और तीन आविकाएँ खड़ी हैं |
(३ ) नवचोकी के पहिले खण्ड के मध्यच॒र्ती ( मुख्य
दरवाज़े के निकट के ) गुम्बज की छत के नीचे की गोल
पंक्कि में एक ओर भगवान् काउसर्ग ध्यान में स्थित हैं ।
आस पास श्रावक कुंभ, पुष्ममराला आदि पूजा की सामग्री
लेकर खड़े हैं। दूसरी ओर आचाये महाराज आसन पर
विराजमान हैं। एक शिष्य साप्टांग नमस्कार कर रहा है।
अन्य श्रावक हाथ जोड़कर उपस्थित हैं। अवशिष्ट भाग
में गीत, नृत्य, चादित्र आदि के पात्र खुदे हैं।
(४ ) नवचोकी में दाहिनी ओर के तीसरे गुम्बज़
की छत के एक कोने में अभिषेक सहित लर्त्मी देवी की
सूर्सि बनी हुई है। उसी गुम्मज के दूसरे कोने में दो
हायियों के युद्ध का च्श्य बना है |
_ (४) नवचौकी के पास के बड़े रंगमंडप में बीच
के घढ़े गोल गशुम्बत्ञ में अत्येक स्थम्भ पर भिन्न २
(६४ )
आयुध-शख ओर नाना प्रकार के धाइनों से सुशोमित पोडश
(सोलह) पिद्यादेवियों* की अत्यन्त रमणीय १६ खड़ी
मूर्चियों हैं।
(५ .4ए ) रंगमंडप और दाहिने दाथ की (उत्तर दिशा
की ) भमती के बीच के गुम्पजों में से रंगमंडप के पास के
बीच के शुम्बज में सरस्वती देवी की सुन्दर पूर्सि खुदी है ।
( ४ >वथी ) उसके सामने ही-रंगमंडप और दक्षिण दिशा
की भमती के बीच के गुम्बजों में से, रंगर्मंडप के पास के वीच
के मुम्बज्न में लक्ष्मी देवी की सुन्दर मूर्ति खुदी है।
(४ ८सी ) मध्यवर्ती बढ़े रंगमंडप के नऋत्य कोण
के वीच में अंबिकादेदी की सुन्दर मूर्सि बनी हैं। शेष
सीन कोने में मी बीच में अन्य देव-देवियों की सुन्दर
मूर्चियाँ बनी हैं ।
(६ ) मंदिर के झुख्य प्रवेश द्वार और रंगमंडप के बीच
के; नीचे के मध्य गुम्बज़ के बढ़े सएड में मरत पाह्चली के
* ९ रोदियी, २ प्रश्षप्ति, ३ चश्ध्ाखला, ४ बच्रांकुशी, २ भप्रति>-
अऋका (लकेचरी), इ पुरुचदत्ता, ७ रास, < मझाकाबी, २ गौरी, ३० गांपारी,
3३ सर्वोश्मा सदाग्दाद्या, १३ मागवी, १३ वैप्ठ्ण, १४ अच्चुछा, १९
आनसी और १३६ मशामानसी, पे सोघह ईदिधा देदियों हैं ।
(६ छश )
युद्ध का रृश्यई है। उस दृश्य के प्रारंभ में एक ओर
अयोध्या और दूसरी ओर तक्षशिला नगरी है। दोनों के
घीच में वेल का दिखाव बनाकर दोनों को जुदा जुदा
अ्रदर्शित किया है। उसमें इस प्रकार नाम वगरद लिखे हैं।--
_ प्रथम सीकर ऋषभदेव मगवान् फे भरत-बाहुबलि आये एकसी
पुत्र और प्राह्मी तथा सुन्दरी ये दो पुत्रियोँ थीं। दीक्षा अज्जीकार करते
समय भगवान् ने भरत को अयोध्या, बाहुबलि को तकशिला और शेष
धुन्नों को भिन्न भिन्न देशों के शासक नियुक्त किये । आदिनाथ भगवान के.
चवारिश्र-दीक्ा ग्रहण करने के बाद भगवान् के ६८ लघु पुत्र सथा माही
पु सुन्द्री ने भी सवे विरति चारित्र स्वीकार किया था | तस्पश्चात् किसी
अधान कारण से भरत और बाहुबलि इन दोनों में परस्पर महा युद्ध
आरम्भ हुआ। ल्ोगों-लैनिकों का संहार न हो, इस वस्तु तत्व को ध्यान
में लेकर उन दोनों भाइयों ने सैन्यों की लड़ाई बन्द करदी । और दोनों
ने स्वयं परस्पर छः प्रकार के दन्द युद्ध किये। भरत, 'चक्वर्ति होते हुफू
भी, बाहुबलि के शरीर का बल विशेष होने से बाहुबलि ने सब युद्धों में
विजय प्राप्त की। तो भी भरत चह्वर्ति ने विशेष युद्ध करने की इच्छा से
घुनः बाहुबलि पर एक वार सुष्टि प्रदार किया। इस पर बाहुबलि ने भी
अरत को सारने के लिये सुद्ठी ऊँची की । परन्तु विचार हुआ (के--५ है
यद्द क्या अनर्थे कर रहा हूँ? ज्येष्ठ आता का दध करने को उद्यत हुआ
हूं!” इस प्रकार चैराग्य उत्पन्न होने से उन्होंने उसी समय दीक्षा अन्जी-
कार की। अर्थात् उठाई हुई सुद्दी द्वारा अपने मस्तक के केशों का लुख्चन
कर किया ' जल्ल राजा ने, डनको नमस्कार कर प्रशंसा की और उनके--
बाहुबालि के बड़े लड़के को गादी पर बैठा कर आप अयोध्या पाते. । ऋत्द
( छछ६ )
(६ 4 ए ) पहिले अयोध्या नगरी की तरफ “ शरीमरभे-
अरसत्का विनीतामिधाना राजधानी ' ( श्रीमरत चक्रवर्चि
की अयोध्या नाम की राजघानी )।! “भप्मी वांसी ” ( बहिन
बाह्ी )। “माता सुमंगल्एं ( धुमंगज्ञा माता )। परालकी
में बैठी हुई स्वियों पर “समस्त सतःपुर” ( सारा जनान
खाना )। पालकी में बैठी हुई स्नी पर * सुन्दरी ख्रीरत्ना
( ख्रीरत्न सुन्दरी )। दरवाजे पर “प्रतोली” ( दरवाजा ) |
पदथ्मात् लड़ाई के लिये अयोध्या से सेना रबाना होती है ।
५५ 5
बाहुकले को विचार आया कि छोटे ६८ आताओं ने पढिले दीक्षा अइ्ण
की है। इसालिये उनकों बदन फरना होगा। श्रत केवल छान पाप्त
करके ही भगवान् के समीप जाऊँ, जिससे छोटे भाइयों को धंदन करना
जव पढ़े । इस विचार से बाहुबलि म॒नि मे उसी स्थान पर एक चर्ष तक
कायोत्सते किया। हमेशा उपत्रास् के साथ ही साथ नाना भकार के कष्ट
सदन किये। परन्तु फ्रेंड ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई! तत्पश्चात् उनकी
खांसारिक भांगिनियाँ साध्यी-य्राकद्षी और सुन्दरी आकर उपदेश देने लगीं
फक्ि- हे भाई ! हाथी पर सवार होने से केवक ज्ञान नहीं होता है।”
चाहुवनि घुरन्त ही समझ गये और छोटे भाइयों को बन्दुना करने के
्षिये, भमिमान स्वरूप द्वाथी का त्याग करके ज्योह्टी पर भागे बढ़ाया, कि
छसी समय केवल ज्ञान की यासि हुए। फिर ये भगवान् के समवसरण
में गये भौर चहा पर केव्लियों की पर्षदा में बैडे। तत्पश्चात् भगवान्
के साथ ही शिवमन्दिर-मोछ में गये।
यहुत यो तक भरत चकदर्ति के राज्य को भोगने के याद धुझ दिम
अरत राजा समप्र धस्कामूएणों से सुसालित होइर आरीसासयन में पधारे।
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हल 4८ 2
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(६७ )
इस दृश्य में एक हाथी के उपर 'पाट्हस्ति विजयगिरिं (प३-
इस्ति विजयगिरि ) इसके ऊपर लड़ाई के बेप में सझ होकर
चैठे हुए मनुष्य पर 'मद्यमात्य मतिसागर (महामेत्री मति-
सागर )। लड़ाई के चस्ध घारण करके दृथी पर बैठे हुए पुरुष
पर 'सैनापति सुसेन (सुपेण सेनापति) ओर युद्ध की पोशाक
पहन कर रथ में बैठे हुए मनुष्य पर 'शीभरथेश्वरस्प
(श्रीमरत चकऋषती ) बगेरह नाम लिखे हुवे हैं। तत्पथात्
हाथी, घोड़े और सैन्य की पंक्वियां खुदी हुई हैं। .«
(६ ४ थी ) तब्ञशिला नगरी की ओर 'वाहुबलिसत्का
तक्तशिल्ञाभिधांना राजधानी' ( बाहुबाले की तक्षशिला नाम
की राजधानी), और 'पुत्री जपतोमती' (यशोमती पुत्री) लिखा
है। इसके बाद तक्षशिला नगरी में से सैन्य युद्ध करने के लिये
बाहर निकलने का दृश्य है। उससे “सिंहरथ सेनापति?
उस भवन में अपना रूप देखते समय उनके हाथ की डैंगली में से झँगुठी
(मींटी) के ऐिरनाने से उंगली शोभ्ाह्वीन भतीत हुई। ऋमाजुसार से
आमपरों के उतारने पर शरीर फी शोभा में न््यूनता प्राप्त हुई। उसे
समय चेरास्प रंगर्म तत्लीच होकर यह सच बाह्य शोभा है' इस प्रकार शुम
भावना करते २ फेंदल ज्ञान प्राप्त हुआ । शांसनदेवी ने आकर साधु का
देप दिया। भरत रजर्पि ने उस चेष को अहण कर के वर्षो तक विचरय
किया और अनेक भाखियों को भतिद्रोध करके, आयुष्य पूर्ण- होने पर
मोह में गये | उनके अन्य ६८ घन्धु चु दोनों सगनियाँ भी मोक्ष में गई
( धु८ )
(सेनाएति सिंहरथ )। लड़ाई के वस्र पहन कर हाथी पर बैठे
हुए मनुष्य पर 'कुमर सोमजस' ( कुमार सोमयश ) | युद्धके
कपड़े पहन कर हाथी पर बैठे हुए आदमी पर "मंत्री बहुलमति'
(मंत्री पहुलमदि )। पालकी में बैठी हुई खियों पर 'अन्वः पुरा
(जनाम खाना )। पालकी में बेटी हुई स्री पर 'सुभद्रा सौरता
(स्री रत सुभद्रा)। इसके बाद हाथी घोड़ांदे सनन्य की पह्ियाँ
खुदी हुई हैं। कोई आदमी लड़ाई के बेष में मुसजित होकर
र॒य में चेठा है, उसपर लिखा हुवा भाम पद्मा नहीं जाता है ।
परन्तु बह शायद धाहुबालि खं बैठे हों, ऐसा मालूम होता है |
(६ 0 सी ) पथाव् रणतक्षेत्र में एक झत मलुष्य पर
अनिलबेगः” । लड़ाई के वेष में थोड़े पर बेटा हुआ मनुष्य
पर 'सेमापति सीहरय | युद्ध की पोशाक में रथ में चेठे हुए
मनुष्य पर 'रयारूठों भरयेश्वरस्प विद्याधर अनिलवेग” (मरत
राजा का रथ में बेठा हुआ अनिलवेग विद्याधर) विमान में बैठे
हुए आदमी पर 'अनिलवेगः” । हाथी पर 'पाटदस्ति विजय-
गिरि!। उस हाथी पर चेठे हुए मनुष्य पर “आदित्यजशः।
घोद़े पर बैठे हुए मनुष्य पर 'सुवेग दृत४। इत्यादि लिखा है।
(६ 9 डी ) उसके वादकी दो पंक्वियों में मरत-बाहुबलि
का छ; प्रकार का इन्द् युद्ध ख़ुदा हुआ हैं। उसमें इस
भ्रकार लिखा हैः--
(६६ )
४परपेश्वर बाहुबालि द॒ट्टियुद्ध! भरथेश्वर वाहुबाल वाकयुद्ध |
भरपेश्वर बाहुबलि बाहुयुद्ध । भरयेश्वर बाहुबलि मुष्टियुद्ध ।
भरथेश्वर बाहुबलि दंडयुद्ध। भरयेश्वर बाहुबलि चक्रयुद्ध /!
(६ ४ है) प्मात् काउसर्ग-ध्यान में स्थित ओर बेल
से लिपटी हुई बाहुबलि की मूर्त्ति पर 'काउसग्गे स्थित
चाहुबलि' (कायोत्सग किये हुए बाहुबालि)। त्राह्मी-सुद्री के
समझाने से मान का त्याग करके छोटे भाइयों को बंदना्थ
जाते हुए पैर उठाते ही बाहुबलि को केवल ज्ञान होता है।
उस दृश्य की मूर्ति पर 'संजात केवलज्ञाने धाइुबलि' और
उसके पास ही आ्ाह्षी तथा सुन्द्री की मूर्ति है, जिस पर
तिनी बांभी तथा सुंद्री' लिखा है।
(६7 एफ) एक ओर के कोने में तीन गठ और चौमुखजी
सहित भगवान् ऋषभदेव के समवसरण की रचना है। भग-
घान् की पर्षदा में जानवरों को सूर्सियों पर 'मंजारी मूखका
( बिल्ली और चूहा ) सप्पे नकुल' ( सांप और नौला )
'सवच्छगावि सिंह! ( अपने बच्छड़े के सहित गाय और
सिंह ), तथा आविकाओं की पर्षदापर 'सुनंदा ॥ सुमैगला॥
समस्त श्राव( वि )कानी परिखधाः ॥' पुरुषों की पर्षदा-
( ७० )
पर 'हये हि समस्तभावकानां परिखधाः ॥ खड़े खड़े विनय
पूवेक नम्न होकर विनति करने वाली ज्राह्मी और झुन्दरी
पर 'विज्ञप्तिक्रियमाणा ब्ांभी सुंदरी ॥[... ...---«०- हाथ
जोड़ फर प्दक्षिणा करते हुए भरत महाराज की मूर्ति पर
अदक्षणादीयमानमरथेश्वरस्य ॥! इस प्रकार लिखा है।
, एक ओर भरत चक्रबात्ति को केवल ज्ञानोत्पत्ति संबंधी
इश्य है। उसमें अंगुटी राहित हाथ की उंगली की ओर
इंष्टिपात करती हुई भरत महाराज की मूर्ति पर “अंगुलिक-
स्थाननिरीक्षमाणा भरथेश्वरस्प संजातकेवलज्ञानं | अरे
मरथेथरः॥” मरत चकवर्त्ती को रजोहरण ( जैन साध्ठुओं
का जंतुरक्कक उपकरण ) प्रदान करती हुई देवी की मूर्ति
पर “मरथेश्वरस्थ संजातकेवलज्ञाने रतोहरणसभरपणे सानिध्य-
देवता समायाता ॥.... ....रजोहरण .... ...-सानिध्यदेवता ।।”
इत्यादि लिसा हुआ दे ।
इस शुम्बज के नीचे वाले रंग मंडप के तोरण में दोनों
ओर बीच में मगवान् की एक एक मूर्ति खुदी है ।
(७ ) उपयुक्त भरत-त्राहुबलि के दृश्य के पास के
( मंदिर में श्रवेश करते समय अपने वांयें हाय की ओर के )
शुम्बज के नीचे की चारों दिशाओं की चार पंक्षियों में से
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( ७२ )
(१०) उपर्युक्त दृश्य के पास के द्वितीय गुम्बन्ञ में
खाम (बाँये ) हाथ की ओर हाथीयों की पंक्ति के ऊपर की
थोक में आह कुमार-हस्ति प्रतिबोध का दृश्य है | एक
हाथी बड़ और अगले दोनों पांव झुका कर साधु मद्दाराज
| झादेकुमार ने पूवे भव में अपनी छी सहित दीत्ानमंत भज्ञीकार
अकेया था। दीक्षा ग्रहण करने के बाद पूर्वोपार्जित ऊमे के उदय से किसी
समय अपनी साध्वी-स्री को देखकर उसम्तके प्रति उसका अब्ुराशन्प्रेम
अत्पन्न हुधा। जिससे मन द्वारा चारित्र की विराधना हुईं। उसका प्रायश्ित
पक्रेये बेर ही रत्यु पाकर बढ देव॑जोक में उत्पन्न हुआ । वहां का झायुष्य
चूर्ण करके झआाद्ेक नामक अनायें भदेश में आद्ेक राजा का आदेकुमार
नामक घुश्र हुआ। किसी समय मगध मदेश के राजर श्रेशिक के पुत्र
अभयकुमार के साथ उसकी पत्र ब्यवद्वार होने से मिश्रता हुईं। मित्रता
छोने पर अभयकुमार ने आर्देकुमार को तीर्थंकर मगवाद् को भूर्तति सेजी ।
उस मूर्सि के दशंव से अआदेकुमार को जाति स्मयो ज्ञान (पूरे
च्मारक छान ) उत्पन्न हुआ | निज पूर्दमव के दर्शन से वेराग्य की प्राप्त
झुददं । मिससे वह अपने भनायेंदेश को घोड़कर झायेदेशा में आया और
अवर्ष दीपा लेती । भगवान् सद्दावीर को चंदन करने के जलिये प्रस्थान
पक्रेया। सासे में ०० चोर मिले । उनको उपदेश देकर दीक्षा दी । धहां
खे भागे ज्ञाते हुए मार्गे में तापसों रा एक आश्रम मिल्ला। इस झाश्रमन
चासी तापलों का ऐसा सत था कि--अनाज, फक्चष, शाक, साजी
खरद खाने सें यहुत से जीवों की विराघना (हिंसा) करनी पढ़ती हैं ।
डुसालिये इत सचच्दी घपेष्ठा हाथी जैसे पुक ही महान् प्राणी को मशने से
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( ७३ )
को नमस्कार कर रहा है। साधु उसको उपदेश दे रहे हैं, उनके
चीछे दो अन्य नि्नेथ-साधु हैं। और कोने में भगवान् श्री
महावीर स्वामी कायोत्सगे ध्यान में खड़े हैं। हाथी की वाजु
में एक मनुष्य सिंह के साथ मन्न कुश्ती करता है ।
उसके मांस से यहुत लोगों को यहुत दिनो तक भोजन चल सकता है और
इससे असंख्य प्राणियों की हिंसा से विमुक्त हो सकते हैं। ( इसी कारण से
इस झाभ्रम का नाम “हस्तितापसाभ्रम ? पढ़ा था | ) उस हेतु से ये खोग
जंगल में से एक हाथी को मारने के उद्देश्य से पकष्ठ कर लाये थे और
उसको अपने भाभ्रम के पास यांधा था ।
उस भागे से गमन करनेवाले आद्रेकुमारादि सुनियें! को देखकर
उनको नमस्कार करने की उस हाथी की इच्छा हुई। यस, इस शुभ
'भाषना से और महर्पि के प्रमाव से उस हाथी के बंधन खंदित हो गये।
उनेरंकुश द्वाथी मुनिराजोकों वंदन करने के किये एकदम दौदा | सब पोग
अय से भागरूर दूर जा खड़े हुए ओर विचारने लगे कि--..हाथी भगी हाल
ही आद्रकुमार सुनि की जीवनयाप्रा का नाश कर देगा । परत आह -
कुमार मुनि जरा भो विचल्लित नहीं हुए। और उसो स्थान में काउसगा
यान में खड़े रहे। हाथी, घीरे से उनके निकट आया और उसमे भगज्ले
दोनों पैर तथा सूंड झुछाकर अपना कुम्भस्थल नवाकर नमस्कार डिया |
'एुवं अपनी सूंड से सुनिराज के पवित्र चरणों का स्पर्श किय। | स॒नि पुकद
ने ध्यान पूरा किया और “यद्द कोई उत्तम जोच है? ऐसा जानकर
खूब उपदेश दिया । द्वाथी धर्मोपदेश सुन शान्त हुआ और सना
जमस्कार कर जंगल में चल्ता गया। तप्पआव झद्रकु पार मुनि से तमाम
( ७४ )
(११) देहरी नं० २, ३, ११, २४, २६, ३८, ३६५
४०५ 9९, ४३, ४४, ५९, ५३५ और ५४४ के द्वार के
बाहर दोनों ओर के रंश्यों में भावक-आविका हाथ में पूजा
की सामग्री लेकर खड़े हैं। ०७, १२॥ ५३ और ५७ इन
चार देंहरियों में इस माफिक विशेष दृश्य है) देहरी ने०
४४ के दरवाज़े के बाहर दाहिनी तरफ की ऊपरी पांक्ति
के बीच में एक साधु खड़ा है। ५२वीं देहरी के दरवाजे
के बाहर बांई तरफ ग्रधम त्रिक (तीन आदमी ) बांएँ घुटने:
खड़े करके बैठे हुए चेत्यबंदन कर रहा है। और दाहिने
हाथ की तरफ का प्रथम त्रिक घुटने भर बैठ कर वानित्न
बजा रहा है। ४३ वीं देहरी के दरवाज़े के थाहर भी दोनों
तरफ का यम प्रथम युग्म (दो आदमी ) एक एक घुटना
खड़ा करके बैठा है। ओर ५४ वीं देहरी के दरवाजे के
बाहर वांयें दथ की तरफ का प्रथम त्रिक (तीन व्यक्लियों)
5
सापसों को उपदेश दिया, मिससे सब छ्ोगों ने श्रतियोध पाकर दीघ्ा छी।
थ्रद्टां से सब साधुमो को लेकर ध्मार्दृकु मार भागे जा रद्े थे। उस समय
उपयुरु वात की खबर वीरवर मगधाधिप्रति राजा श्ोणिक व अमयकुमार
को मिली। यह समाचार सुनकर वे बड़े हरित हुए और '्याद्रकुमाए
झुनि को बन्दन करने के किये गये। पश्चात् आयाट्र कुमार सुनि ने सगवाक
मद्दाचीर छ& शरप्य स्वीकार झी। वहाँ झाजीदन निर्मेस्त चारित्र पाक्षऋूढ
केवछ शान प्रास किया और घन्त में मोक्ष के अतिथि हुए ।
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( ७४ )
का, द्वितीय त्रिक साधुओं का, तीसरा त्रिक साधुओं:
का, चतुर्थ त्रिक श्रावकों का और पाँचवां त्रिक श्राविका्ों
का है। इसी प्रकार दाहिने हाथ की तरफ भी पाँचों त्रिक हैं * ।-
(१२) सातवीं देहरी के दूसरे गुम्बन की नीचे की”
लाईनों की नकासी में (क) एक ओर की लाइन के एकः
कोने में दो साधु खड़े हैं। उनको एक श्रावक पंचाह्लः
नमस्कार करता है। अन्य तीन श्रावक हाथ जोड़ कर
खड़े हैं । दूसरी ओर एक काउसरिगया है। (ख) तीसरी
तरफ की पंक्षि के एक कोने में सिंहासन पर आचार्य महाराज
चैंठे हैं। एक शिष्य उनके पर दाबता है । एक नमस्कार
फरता है और अन्य श्रावक व मुनिराज खद़े हैं ।
३ आज कल जैन लोग पाम घुथना खड़ा रस कर बैठे २ जिस प्रकार
चैत्यवन्दन करते हैं, इसी प्रकार इस भाव की नकशी में चैत्यवन्दन करने
चाक्ते लोग चैढे हैं । साम्ग्रतिक क्रिश्चियन लोग, जो कि घुटने के आधार
पर खड़े रद्द कर प्रार्थना करते हैं, उसी प्रकार घामित्र बजाने वाले घुटने
के वल पर रद्द कर बानिन्न बजा रहे हैं ।
२५ दीं देहदरी के याइर दोनों तरफ के सब से ऊँचे त्रिको में रहा हुओ-
भाव यराबर सम में नहीं आया। सम्भव है कि थे सब जिनकल्पी साधु:
के । दोनों ओर फे दूसरे च त्तीसरे प्रिकों में स्थविरकव्पी जैन साधु हैं। उच्च *
लोगों ने दाहिना हाथ खुला रख कर आधुनिक श्रथा के भ्नुसार पिंडली-
तक नीचे कपड़े पहिने हैं । उनके सबके बगल सें रजोहरण, एक हाथ में”
मुँदपत्ति और दूसरे हाथ में डंढा है।
६ ७६ )
(१३) देहरी आठवीं के प्रथम शुम्बज के दृश्य के
व्मध्य में समवसरण व चौसुखनी की रचना है । दितीय
» एवं तृतीय चलय में एक एक व्याक्षि सिंहासनारूढ हैं।
अवशेष भाग में घोड़े ओर मनुष्यादि का समावेश है | पूर्व
“तरफ की सीधी लाइन में एक तरफ भगवान् की एक बैठी
-मूर्ति और दूसरी तरफ एक काउसरिगया खुदा है । और
“पश्चिम तरफ की सीधी पांक्ति में एक कोने में दो साधु हैं । पश्चात्
एक आचार्य आसनारूढ होकर देशना दे रहे हैँ। उनके पास
स्थायनाचार्यजी हैं और श्रोतरा लोग उपदेश श्रवण कर रहे हैं।
(१४) आठवीं देहरी के दूसरे सुम्बज के नीचे की (क)
पश्चिम ओर की पांकि के मध्य भाग में तीन साधु खड़े हैं । एक
श्रावक अपना हाथ नीचे रख कर (लकड़ी की तरह सीघा
हाथ रख कर) उनको अब्भुट्ठिओ खमा रहा है (वंदन कर
“शहा है ), ओर अन्य भ्रावक हाथ जोड़े खड़े हैं, (ख)
घूवे दिशा की पंक्कि के बीच में दो शुनिराज सड़े हैं, उनको
एक साध धरती से मस्तक लगा कर पश्चाह्ञ नमस्कार
पूवेक अब्भुट्टिओ खमा रहा है। दूसरे श्रावक्र हाथ जोढ़
कर खड़े हैं । इस दृश्य के पास ही एक तरफ एक ऐसा
“दृश्य दिसलाया गया है, जिसमें एक हाथी मनुष्यों का
'पीछा कर रहा है, और लोग भाग रहे हैं ।
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( ७७ )
(१४) & वीं देहरी (मूलनायकजी श्री नेमिनाथजी)-
के पहिले शुम्बज में पाँच कल्घाणक आदि ध्श्य की
रचना है *। उसके बीच में तीन गढ वाले समवसरण में
भगवान् की एक घूर्चि है । दूसरे वलय में (च्यवन कल्याणुक
में) भगवान् की माता पलंग पर सोते हुए १४ स्वप्न देखती
हैं। (जन्म कल्याणक में) इन्द्र महाराज भगवान् को गोद:
में बैठा कर जन्माभिपेक-जन्म-स्नात्र महोत्सव फराते हैं ।
(दीचा कल्याणक में) भगवान् खड़े २ लोच कर रहे हैं।
(केवल ज्ञान कल्याणक में) बीच में बने हुए समवसरण
में बैठ कर भगवान् धर्मेपदेश दे रहे हैं। (निवोण कल्याणक
में) दूसरे वलय में भगवान् काउसरग ध्यान में खड़े हैं, यानि
मोक्ष गये हैं। तीसरे वलय में राजा, हाथी, घोड़ा, रथ
और मनुष्यादि हैं ।
$ समस्त प्राणियों के लिये तीर्थकरों के पांच कल््याणक, सुखदायक
अथवा मांगलिक प्रसड्ग माने जातै हैं । ये पांच कक््याणक इस प्रफार है.
$ स्यवन कल्याणक (गर्भ मे आना), र जन्म कल्याणऊ, ३ दीक्षा कल्या-
श्वक, ४ केवल ज्ञान कल्याण (सर्वेज्ञावस्था) आर £ नियोण कल्याण॒क
(मोह-गमन ) । इनमें से श्रथम चयचन कल्याणक के दृश्य में माता क्ले८
पलंग पर सोते सोते ही (३) हाथी, (२) इपभ, (३) केशरों ग्सेह, (४) लच्मी -
देवी, (३) पुष्पमाला, (६) चन्द, (७) खूब, (८) मद्दाध्वज, (६) पूहंर
कलश, (१०) पत्म सरोवर, (३१) रस्नाकर (सम्र॒द), (१३) देव विमान:
५५
( छठ )
( १६ ) देहरी १० वीं (मूलनायक श्री नेमिनाथजी)
के पहिले गुम्बज में श्री नेमिनाथ चरिस्न का दृश्य है |
इसके पादिले वलय में श्री नेमिनाथ के साथ श्री कृष्ण और
(११ ) रतन राशि चौर (१४ ) निर्धूम भरग्नि ( धूंझों राहित आग। ) इन
$४ रथों फे देखने का रश्य दिखाया जाता दे | द्वितीय जन्म फल्यागर्क
में इस्द मद्दारान, जिस दिन भगवान् का जन्म हुआ हो, उसी दिन सब-
घान् को मेर पदत पर सेजाकर झपनी गोद में लेकर अम्म रनान्न (स्नान)
अभिषेक सद्दोस्सव करते दें; इसकी, झपवा ४६ दिगयू कुमारियों चालंक
सद्दित माता या स्नान मर्देनादि सूतिकर्म करती हैं; उसकी रचना ड्ोती
“है। तासरे दोपष्ता कस्याणक में दीक्षा का जुलूस और शाषान् का
>अपने हाथी से केश लुझन करने के दृश्य की रध्वना होती है । चतुर्थ
केवल क्षान फल्याणक में भगवान् के केवल शान (सर्वेज्ञता) आाप्त धोने
“पर समपसरण (दिव्य स्याप्थान शाला) में चेढ कर देशना देते हैं, हसकी
रचना होती द ! प्रंचरव निर्धारण कव्थाणक में समस्त कर्मो के छ्य होने
से शरीर को त्याग कर मोत्ष गमन के दरय में भगवात्र् कायोत्समे
(फाउसगा) में खड़े हो अथवा बैठे हो ऐसी आकृति की रचना हगेती है ।
उपयुक्त कपनावुसार अथवा उसमें कुछ ज्यादा कम रचना होती है। इसे
“धृंच कह्य!ण॒क का एश्य कहते है ।
३ भाचीनकाल में यमुना नदी के किनारे पर बसे हुए शौरोपुर
नामक नगर में यादवकूल में अधकफल्रुष्णि नामक राजा हों गया । उसके
इस घुत्र थे। दे दस पुत्र दृशादे कइलाते थे। उनमें सबसे बढ़ा समुद्ध-
विजय और कानेष्ठ धखुदेव था । काल ऋमाजुसार समुद्रविजय शौरी-
नयुर का शासक नियुक्त हुआ | समुद्राक्जिय १६ लड़कों का विता था। उन
(६ ७६ )
“उनकी खतियों की जल ऋ्रीद़ा का दृश्य, दूसरे वलय में श्री
न्ेमिनाथ भगवान् का कृष्ण की आयुधशाला में जाना,
शंख बजाना आर श्री नेमिनाथ एवं श्री कृष्ण की वल
शक में पक अरिष्टने मि नामक पुश्र था, जो कि पीछे से नेमिनाथ नामक
२२ दें तीयंकर हुए। चसुदेव के राम तथा कृष्णादि पुत्र थे। जो
दोनों चलदेव तथा चाखुदेव हुए । श्रीकृष्ण, अवस्था में नेमिकुमार से
करीय बारह यर्ष यद़े थे। वासुदेव होने के कारण भ्रीक्षप्णु, प्रति बासुदेव
जराखंध को यमराज का अ्रतिथि बनाकर तीन खंड के स्थामी हुए
ज्यौर द्वारिका को राजधानी नियुक्र की। वैराग्य भाव से भूपित होने के
नकारण नेमिकुमार ने पाणिप्रहण नहीं किया था और राज्य से भी विमुख
नये। पुक दिन मित्रों की प्रेरणा से नेमिकुमार ऋमण फरते करते श्रीकृष्ण
की आयुधशाल्ा में गये। धहां पर उन्होंने अपने मित्रों के सनोरंजन के दिये
ओीक्षप्णु की फौमुदी नामक गदा उठाई। शारंग घलनुप को चढ़ाया
सुदशन चक्र को फिराया और पांचजन्य शंख को बलपूर्वे खूब ताकत से
अज्ञाया | शंख ध्वनि सुनकर भ्रीकृप्णु को दिचार हुआ कि-कोई मेरा श्ु
“छत्पन्न हुआ है कया ? (क्योंकि उस शंख को बजाने के लिये श्रीकृष्ण के
अतिरिक्त कोई भी व्यक्नि समर्थ नहीं था )। शीघ्न ही श्रीकृष्ण आयुधशाज्वा
“में भाकर देफने लगे, तो घहां नेमिकुमार को देखकर उन्हें आश्रय हुआा।
अरीकृष्ण के सन से इस भाव का संचार हुआ कि -थी नेमिकुमार बहुत
त्वललशाल्ली है । तथापि उनके बल को परीक्षा तो करनी हो चादिये । ड्स
भरकार का विचार करके उन्होंने नेमिकुमार को कहा कि --'चल्लो, अपने
“झखाड़े से जाफर इन्द युद्ध करके बल की परीक्ता करें ।? श्रीनेमिकुमार
“जे उत्तर दवा $- झपने को इस प्रकार भूमि पर आल्ोटन करना उचित
( ८० )
परीक्षा का रश्य दिसलाया है । तीसरे बलय में उग्रसेन
राजा, राजीमती, चोरी, पशुओं का निवात्त-स्थान (बाड़ा),
श्री नेमिनाथ की बरात, थ्री नेमिनाथ का पाणिग्रहण किये
नहीं है। यदि शक्ति की परीक्षा ही करनी है तो अपने दोनों में से िसी
शुक को अपना एक द्वाथ त्ग्वा करना चाहिये और उस हाथ को दूसरे
से झुकवाना चारदथये | जिपका हाथ कुक जाय धद हार गया और विसका
ट्वाथ न झुफे उसकी विजय है /! इस प्रस्ताव को दोनों ने ही मंजूर फिया
छझौर नियमाजुसार यक्ष परीक्षा की। नोमिक्तमार ने श्रीकृष्ण का हाव
अहुत ही झालानी से कुका दिया।। परन्तु नोमि कुमार का हाथ श्रीकृष्ण के
लटक जामे पर भी दस से मस्त नहीं हो सका। थीकृष्ण, नेमि कुमार के-
बल्ल से परिचित हुए चौर उनको “नेमिकुमार मेरे राज्य के स्वामी झासानी
से यम जायगे' ऐसी चिंता ड्वोने लगी । श्रीनेम्रिकुमार को तो प्रारस्स से
ही ससार पर प्रध्यन्त अरुचि थी। इसो कारण से थे अपने माता-पितादि
का भत्यन्त भागमह होने पर भी पाणिगप्रहण नहीं करते मे ।
एक समय राजा समुद्रुप्रिजय ने थीक्ृष्ण को कहा कि-निमिकुमार
को पाणिप्रहण के क्षिये मनाया जावे ।' इस कारण से श्रीकृष्ण, शपनी'
समस्त ख्ियों और गोमेदुमार को साथ लेकर जल क्ीडा के दिये गये ।
चह्दा पुर बढ़े जलकुड के अन्द्र नेमि कुमार, भ्रौकृष्ण और उनकी समस्त
किया स्रान करने द परस्पर एक दूसरे पर सुगधी जल ओर पुष्पादि
ऋंकने लगीं। स्नान करके कुड के बाहर आने के बाद श्रीरृष्ण की समस्त
ख्षिया, ग्रेमप्र्वेक नेमिकुमार को उपालभ देकर पाणिप्रहण करने के लिखे
प्रेरणा करने लगीं; नेमि कुछ मुस्कराये ; इस एरेमतहास्य पर से उसने
ओजाइयों ने जाहिर किया कि-नेमिफुमार विवाद करने को राजी हो गये 8
(छ)
बगैर “ही 'लोट जाना, श्री मेमिनाथ की दीक्षा का जुलूस»
दीत्ा, एवं केवल ज्ञानादि की रचना युक्त दृश्य
दिसलाया है।
(१७) दसवीं देहरी के द्वार के घाहर बाई ओर दीवार
में, व्तेमान चौबीसी के १२० कल्याणक की तिथियों,-
चौबीस तीथ्थकरों के बर्ण, दीक्षा तप, फेवल ज्ञान तप तथा
श्रीक्षष्ण ने तत्काल ही उम्रसेन राजा की पुत्री राज़ीमती के साथ लग्न
करने का निश्चय किया भौर समीप में ही दिन निकलवाया । दोनों भोर
से वियाद्द की तैयारियां होने लगीं । लप्न के दिन श्रीनमिकुमार बरात
लेकर श्सुर के भवन फो पहुंचे । परन्तु उन्होंने वहाँ पर देखा कि लप्त
अंग के भोजन के निमित्त एक स्थान में हजारों पशु पुकप्नित किये गये हैं ।
डस दृश्य को देखने से नामिकुमार के हृदय में दया भाव का संचार हुआ |
परिणास स्वरूप उन समस्त जीदों को धहां से मुक्त कराकर, अपना रथ
पीछा जोरा लिया और विवाह नहीं किया।। घर झाकर माता-पिता को
युक्निय्युक्नि से समरूये और नेमिकुमार ने बड़े आडम्बर के साथ जुलूस
चूवेंक घर से निकल कर गिरिनार पवेठ पर जाकर दीक्षा ला। अपने
ही ड्ाथ से केशों का लुंचन करके शुद्ध चारित्र अंग्रीकार क्िया। थोढ़े
समय बाद ही समस्त कर्मों का उय करके केवल क्षान प्रांत किया और
पाणियों को उपदेश देने के लिये विचरने लगे। काल क्रम से झायुष्य'
पघुशे होने पर श्रीनेमिनाथ भगवान् नश्वर शरीर को छोड़कर मुझ हो गये
+ दिस्तारं के साथ जानने की भभित्वापा रखने घाले, 'ग्रेपां्ट शलाका
शुरुष चरिश्र' का आठवां पे अथवा “शीयशोदिज्य सैन अंथमाला, भाव
नगरें' से प्रछाशित *धीनेमिनाप चरित्र सहा काय! झादि अन्य देखें ।' **
( एरे )
लिवोण तप खुदा हुआ है। इस देहरी के दरवाजे के ऊपर
दि० सं० १२०१ का, इसके जीयणोंद्धार कराने वाले हेसरथ
च दशरथ का खुदवाया हुआ बड़ा लेख है। इस लेख से
विमल मंत्री के कुटम्व सम्बन्धी बहुत जानने को मिलता है।
( १८) देहरी न॑० ११ के पहिले गुम्बज् में १४ हाथ
चाली देवी की एक मनोदर मूर्ति खुदी है ।
(१६) देहरी नं० १२ वीं के पहिले गुम्मज में भ्री
शान्तिनाथ भगवान् के पूत्त भव के सेघरथ राजा के
चरित्र से सम्बन्ध रखने वाले एक प्रसज्गञ का एवं पंच-
कल्पाणक आदि का दृश्य है | | उसमें सेधरथ राजा का
+ सोलदें सीर्यकर श्रीशान्तिनाथ भगवाद् अपने झन्तिम स्व
€ शान्तिनाथ ) के पह्चिले के तोसरे मद में मेघरथ नामक अवधि ज्ञानी
शाजा थे | पुक समय इशानेन्द ने अपनी समा में मेघरथ राजा की प्रशेघा
करते हुए कह्टा कि-“राजा मेघरथ को उसके धरम से चल्रायमान करने
केपल्षिये कोई भी समर्य नहीं है” । ख़ुरूप नामक देव से यह प्रशंसा सइत
नहीं हुईं। वह सेघरथ की परीद्ा करते के लिये झा रहा था कि मार्गे सें
डसने याज पद्वी ओर कबूतर को परस्पर लड़ते देखकर उनमें भ्रधिष्टित
हो गया। सेघरथ राजां पौषधंशाह्ा-डपाधय में पौपधन्रत ( एक दिन
के लिये साधुत्रत ) धारण करू बैठे थे । इतने द्वी में बद कबूतर, मलुष्य
को भाषा में यट्ट बोक्षता टुआ कि--'मेरी रछा करो, सेरा शड्ड मेट्ा पीछा
कर रहा है” झाया भर मेघरथ राजा डी योद में बैड गया। मेघरथ
विमल-चसहि, दृश्य-१ ६.
9 3 व कलक, कैजाकि 7
( छहे )
हि डे
कबूतर के साथ तराजू में पेठ कर तोल कराने का दृश्य है,
तथा साथ ही साथ १४ स्वभादि पंच कल्याणक का भी देहरी
मं० ६ के गुम्बज के अलुसार दृश्य खुदा है। उसी गुम्बज के
नीचे की चारों तरफ की लाइनों के बीच २ में भगवान् की
शाजा ने उत्तर दिया कि-- तू डरना नहीं, ऊ तेरी रचा पक हु रुप कि कि त ुरना नहीं, मे तेरी रपा करने को तपर
हूं।” इतने में यद्द घाज पच्ो आया और कट्दा कि-- दे राजन ! यह मेरा
>अक्ष्य है, में बहुत तुपात हैं, भूख से मर रद्म हूं, इसाक्षिये इसको मुझे,
*दो 7 राजा ने उत्तर दिया--'तुमे चाहिये उतना भन््य साथ पदार्थ देने को
'सस्यार हूँ, तू इसको तो छोड़ दे ।! उसने उत्तर दिया-- में माँसादारी
ब्राणी हूँ। इसालिये इसी को खाना चाहता हूँ। फिर भी यदि आप दूसरा
ही मॉँस देना चाहते हैं तो ठसी के वजन प्रमाण (जितना ) मनुष्य का सॉप
दीजिये।” राजा ने यह वात स्वीकार फरली भोर छुस्त तोलने का ,
नकॉटा ( तराजू) संगवाया । एक पक्षद्रे में कबूतर को रबखा, दूसरे में
मजुष्य का मास रखने का था, परन्तु मनुष्य का माँस, भनुष्य फी हिंसा
किये चर नहीं मिल सकेगा, और मनुष्य की हिंसा करना सद्दापाप हट,
ऐसा विचार उसपन्न हुआ। राजा जीवदया का पोपर था और
झाज तो पीषधग्रत में था, इसलिये ऐसा विचार उत्पन्त होना
स्वासाषिझ था। दूसरी और चद कबृतर को बचाने का वचन दे
चुका था। इसलिये दुविधा में पढ़ गया कि क्या करना चाहिये। अन्त में
उसने अपने शरीर पर के मोह को सर्वेदा इटकर भपने हाथ से हो
अपनी पिंदक्षियों-जांघें। का मास काटकर दूसरे पलढ़े में रखने खगा | जैसे
जैसे राजा सेघरथ पछके में मात रखता दै, वैपे दी वैसे वह देवाणिष्टत
कबूतर अपना वजन बढ़ाने झूगा। इतना इतना मास रखने पर भी सशाजू
ने पकड़े बराबर नहीं होते दे । यद्ट देखकर राजा को आये हुआ। सन
(८४ )
एक '२ भूर्चि खुदी हुई है, और इसके आस पास पूरी चारों
पंक्षियों' में श्रावक हाथ में पप्पपाला, कलश, फेल, चामर
आदि पूजा का सामान लिये सढ़े है।
(२० ) १६ दीं देहरी के पहिले गुम्बन में भी उपयुक्त
अनुसार पंच कल्पाणक का भाष है । जिन-प्ताता सोते
सोते १४ स्वप्न देखती हे । जन्मामिपेक, दीक्षा का बर-
घोड़ा) भगवान् का सोच करना और काउसरग ध्यान में
मे राजा ने विचारा कि *' मैंने इसके बचाने के लिये प्रतिशा की है, मुक
को झपता चचन भवश्य पालना चाहिये और छेले भी दो सके, शरण्यागत
कब्रूतर को बचाना चाहिये। बस, छेला विचार करके राजा तुरन्त ही
अपने शरीर का बालिदान देने के लिये पलढ़े में बेठ गया। इस घटना से
अआारे नगर व राज द्रबार में हम्हाकार दागया। राजा जेरा भी चलायमान
नहीं। हुआ घोर शातिपूर्वछ बाजपक्षी का कहने लगा क्रि-- मे
मेरे शरीर के
सारे मास को खाकर तू अपनी चुधा का शान्त कर और इल कबूतर को
खोढ़ दे 7
खुरूपदेव खूमरू गया कि--यह राजा सचमुच ही इन्द की प्रशंसा
के योग्य ही दैं। खुरूप देव ने श्रपता असली रूप धारण्य करके राजा के
कटे हुए अंग को अच्छा किया। राजा पर एुष्पश्नष्टि की । एव स्तुति करके
शरवर्यान त्द्री ओर च्वल्ला गया ॥ तब मघरथ राजा का लय जयपकार डुभा |
इस कथा को विस्तृत रूप से देखमे की इच्छा रखने वालों को 'प्रिप्॑ि--
शब्ाका पुरुष घरिश्र' के £ दें पये के अतुर्धे सथे को अथवा ध्ान्तिनाथ-
अगवाब् का कोई सी चरिश्र देखभः खाद्दिय । « + 'ए फडड्रापर छा
( प४)
जड़े रदने आदि की रचना है. पहिलेवलय में एक समः
'चसरण है, जिसमें भगवान् की एक मूत्ति ह। ५ :
« (२० ४०) १६ थीं देहरी के दूसरे गम्बज के नीचे
चाली गोल पंक्लि में बीच बीच में भगवान् की पांच सूर्त्तियों .
खुदी हैँ । इन भर्तियों के आसपास के थोड़े भाग के
सिवाय सारी लाईन में चत्यवंदन करते हुए श्रावक हाथों
में कल्षश, फल, पृष्पपाला ओर चामरादि पूजा की सामग्री
सथा नाना प्रकार के वार्जित्र लेकर बेठे हैं।
(२० ४ थी ) १५वीं देहरी के पहिल शुम्बज में अंतिम
गोल लाईन के नीचे उत्तर और दक्षिण की दोनों सीधी
लाईनों के बोच २ में भगवान् की एक २ मूर्त्ति खुदी हुई है।
उन मूत्तियों फे आसपास आवक पृष्पमालादि लेकर खड़े
हैं। अवशेप भाग में नाटक ओर वार्जित्रादि हैं |
(२१ ) २६ थीं देहरी के पहिले गुम्बज में करी
कष्ण-फालिय ध्महि दमन का दृश्य है | बीच फे वलय
| जैन प्रन्थाजुसार कंस यादवऊुल में उत्पन्न हुआ था और मथुरा
नगरी के राजा उम्रसेन का पुत्र, चत्तिकावती नगरों के देवक राजा
का भतोजा, दवक राजा का पुत्रा दवका का फाक्का का लड़का भाई
डाने के कारण श्रोकृष्णु का मामा भार तान खंड भर तत्तत् (् आप ह्वन्न्दु-
स्थान ) के स्वामी राजमूद्द नगर के राजा ज़राखंध प्रति वासुदेव का जमाई
- द्ीता था। कल अपने पिता उम्रतेस को कद करके मथुरा का राजा
5
( ८६ )
में नीचे कालिय नामक सर्यकर सपे फ्न फैला कर खड़ा
है। क्रीकृष्ण ने उस सपे के कंघे पर बैठ कर उसके सुँद में
नाथ डाल कर यमुना नदी में उसका दमन क्रिया। थक
डुभा था। कंस की श्रीकृप्णु रे पत्ता चस्युदेय के साथ बहुत मित्रता
थी । इसी कारण से राजा 'वमुर्देव', कंस के भागप्रह से आपेक्तर मथुरा
मे ही रहते थे। कस ने अपने काका देवक राजा ही पुत्री देवकी
का विदाह बस्तुदेंव से कराया था। इसकी खुशी में कंस ने मथुरा में
मद्दोत्सव प्रारंभाकिया। उस समय फंस के भाई झतिमुक्त ुमार, जो कि-
खाए द्वोगये थे, कंस के वहाँ गोचरी ( मिछ्ठा ) के किये पधारे | फंस की
खऋरी जीवयशा उस समय मदिरा के नशे में थी । उसमे उस मुनि को
कदयेना ( आरातना ) की । मुनि यह कह कर चख्र दिये कि--'म्रिस
यखुदेय देवकी के विवाइ के आनन्द में य् खुशी सना रही है, उसी का
सप्तम गर्भ तेरे पति और पिता छा यथ करेगा ॥” यह सुनते ही जींचयशा-
के काम खुल राये, नशा उतर गया। उसने तुरंत ही कंस को
इस वात की सूचना दी । कसर ने यह सुनकर अपनी पत्नि से कट्टा--
“साधु का वसन कदापि मिध्या नहीं हो सकता”। सयभीत केस यखुदेद
क पास यया घोर देखकी के सात यर्भो की ग्राचना छठी | मुनि दचन से-
अज्ञात बसुदेच मे भोलपन से यह यात स्वीकार करली। देवकी ने मी,
कँस भपना भाई होने के छारण, उपयुक्र कथन पर बगैर विचारे ही
स्वीकृति देदी। पश्माद देयकी को जब कमी भी यर्भ रहता, तय फंस्स दसके-
सकान पर अपना चौकी पहरा नियुक्त करता था, और देवकी से उत्पन्न
डूई सस्तान को स्वये पत्थर पर पचाढ़ कर मार टाब्ता था। इस प्रकार
उसने देवको के छू ज॒त्रो के म्ाय्यों का अपहरण किया । बखुदव अत्यन्त
दुलूी रइते थे। सेकिन प्रतिज्ञा पाजक होने के कारय्य, दे अपने दचन का पालक
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विमरछ-चसहि, दश्य-२१५
श्रीकृष्ण-कालिय अहि दमन
( ८७ )
ने से वह दाथ जोड़ फर खड़ा रद्द है। उसके आस
स् उसकी साद नागिनें दवाथ जोड़ कर ना उसकी सात नागिनें द्वाथ जोड़ कर खड़ी हैं । बाजू
ते हुए उस दुरा को सहन द्रव थे। सातवें गये के जन्म के समय देयकी
आप्रद से सखुदेय नवजात शिकष (भीहप्ण) को केकर, रातों रात गोफुल
'जंद' और उसकी सत्र यशोदए के पास पुश्न के सौर पर छोड भाये भौर
शोदा की पुश्री, जो उसी समय उत्पन्न हुई थी, उसको लाकर देवकी के
स॒ छोड दिया। फँछ से देखा कि-इस गये से सो कम्या उपपन्त हुई है,
(्ट सुमे कैसे मारेगी ? घुसा विचार फरके फंशत ने उस कन्या की पुक तरफ
८ नापिका काट फर देवकी को सापिस देदी।
गौकुल में आीकुप्णु 'भानन्द से बढ़ रद्दे हैं। तथापि उसकी रक्षा घे
लिये घख़ुदेव ने भपने पुप्त राम (बलभव ) को गोकूल में भेजा । चे
देएनों भाई यहां पर भानन्द चूवेकत निवास करते हहं। योग्य अवस्था होते ई
श्रीकृष्ण ने बलभदर से घ॒लजुर्विद्या भादि समस्त विद्याओं का ज्ञान संपादर
किया, इस प्रकार करीय यारह व्षे म्यतीत हुए ।
इसी अतर में फंस ने किसी नैमित्तिक से पूछा कि--'सुनि के फथनः
झुसार देवकी का सातवां गये मेरा यघ करेगा क्या ? ! उसने उत्तर दिर
#मुतरि का वचन अवस्य सिद्ध होगा! यह सुनकर फंस ने भैमित्तिक से पूछ
मुझे ऐसे चिह्न दिखिलाइए जिससे में अपने घातक को पट्चान सर्क: ।! उस
कह्टा-- तुस्दारे उत्तम रत्न सह जातिवंत भरिष्ट बैल को, केशी अश्चव
शर्देश फो, भेष ( बकरा ) को. पतद्मोत्तर तथा चपक नामक दो हाथियों '
और चाणर नामक सद्ध को जो सारेगा सथा काक्षिय सपे छा जो दूर
करेंगा पद्दी तुमको मारेगा। कर
कंस ने परीक्ता करने के लिये यथाकम जेल, घोड़ा, गर्देभ और से /
को गोकुछ की झोर छूटे कर दिये। थे मदोन््मत्त होने से गोफुल के गाय
( छक )
हि&॥थ. 00० 20 मक..... पु कफ
के एक कोने में श्रीकृष्ण - अगबान् पाताल लोक मे शप-
नाग की शब्या करके उस पर सो रहे हैं। श्री लक्ष्मी देवी
अध्॒रों को पीड़ा पहुंचाने खगे । गवालों की फरियाद सुनकर भ्रीकृष्णु ने .
उन घारों पशुश्रों को यमद्वार में पहुंचा दियां। स्व समाचार सुनने से
फंस को मामृम हुआ कि-मेरा बैरी नंद का घुत्र है, यह जानकर कृष्ण
को मारने के लिये केस ने पपन्द रचा । उसने सैन्यादि साममरियां तेयार
करके पृक दरबार भरा, जिसका मुण्य दतु मह्युद्ध या । इस दरबार में
अ्यनेक राजा श्रौर राजकुमार थाये। धझु देव ने भी थपने समुद्राविजय भादि
समस्त झआाताओं तथा धुत्र परिवार को भी इस प्रसंग पर बुलाया था।
ग्रोकुल में चलभद्र को इस बात की खबर पढ़ी । उसने इस असंग को
शरुक अमृर्य श्वसर जामकर “अपने छूः भाइयों को मारने वाला फंस
अऋपला शजु है! इत्यादि सारी बात कृष्ण को कट्टी । यद सुनते ही श्रीकृष्ण
अत्यन्त कुद्ध हुए और उसी समय दोनों भाई मधुरों की झर चले। मास
में यमुना नदी आवे पर दोनों भाई-श्रीकृष्प और वलभद्ग उस
मे स्रान करने के लिये कुदे । (मद्ामारतादि ग्रन्थी में लिखा है कि-थरीकृष्णु
अर बलभद्गय अपने मित्रो सहित यमुना के किनारे गेंद दंडा खेलते थे
छनकी गेंद नदी में गगेर गई । उसको निः्तलने के लिये श्रीकृष्ण यमुना
नदी में गिरे ।) चद्य॑ कालिय नामक से अपनी फ़ण के ऊपर के मणि के
अकाश को भ्रीकृप्णु पर डालकर कृष्ण को डराने लया | श्रीकृप्ण, तुरंत
छसको पकड़ कर उसकी प्रीठ पर सवार होगये + पश्चात् उसके सुख मे
ड्वाय डाला भोर कमलनालन से नाथ डालकर उसको “यमुना! नदी में बल
की. भांति खूब फिराया।िसले वद शकिदीत होगया ओर भ्रकरर
आक्षाण के सामने दाप जोदकर खज़्य रह गया भोर झास “पास में
( ८८६ ),
पंखा डाल रही है । एक सेवक पैर दाव रहा है। इस रचना के;
पास ही श्री कृष्ण और 'चाणूर मन्न का युद्ध दिखाया
उसकी सात नागनियाँ भी हाथ जोढ़ खदी रहकर पतिभिक्ता मांगने
रूगीं, इससे कृष्ण ने उसको छोद दिया।
यहां से दोनों भाई मथुरा की भोर चले। मथुरा के प्रवेश द्वार पर
कंस ने अपने पद्योत्तर और चेपक नामक दोनों द्वाथी तैयार रक्खे थे
आर महावततों को आज्ञा दी थी कि--नेंद के दोनों पुत्र आर्वे तो उन पर
श्वाथियों को छोड़कर उन दोनों को सार डालना । जब थे दोनों भाई दर-
चाजे पर झाये तो मद्गावतों मे श्पने स्वासी की झ्राज्ञा का पौलन किया
दोनों हए्यी मस्तक नवां कर दंत शूल्त से उनको सारना चाहते ही थे
इके--भीक्ृष्णु और घलभद्नू ने पुक २ हाथी के दंतशूत्र निकाल लिये
और सुष्टि प्रद्दार से डन दोनो को यमद्वार में पहुंचा दिये ।
चहां से ये दोनों भाई मन्न कुश्ती के दरबार में गये। दरवार में
वद्यासन पर बठे हुए किसो राजकुमार को उठाकर उनके आश्नन पर ये
दोनों भाई बठ गये | चास्युर और मुष्टिक नामक दो मन्ले ने मन्न कुश्तो के
इलेये उन दोनों भाइयों को आहान फकिया। श्रीकृष्ण साणुश के साथ व
चलभद्ग मुष्टिक के साथ युद्ध करने लगे | श्रीकृष्ण चोर चलभद्ग ने त्तण-
मात्र में ही चारणूर थार मुछ्टिक नामक दोनों मह्लो को खत्यु के अधीन कर
दिये ! यद्द देख फेस अत्यन्त क्रोभित हुआ और उसने अपने सेनिक
को आज्ञा दी कि--इन दोनों भाइयों को मार डालों। यह सुनकर कृष्ण
ने फेस को सेवोधन करके कहा कि--'मेरे छः भाइयों को मारने चाला
पाषी ! तेरे दो मन्न रत्नों को झत्यु के शरण किये, तो भी बेशरम तू मुमे
सारने की आज्ञा करता है? ले, पापी ! में तुम्के तेरे पाप का प्रायश्रित्त
देता हूं, ऐसा कहकर एक छुल्ग मारकर, श्रीकृष्ण ने उसको चोटो से
( ६० )
गया दहै। दूसरी ओर श्रीकृष्ण वासुंदेव व राम बलदेव”
और उनके साथी गेंद-दृंडा खेल रहे हैं ।
( २२-२३ ) ३४ वीं देहरी के पहिले गुम्बन कः
नौचे पूष्र दिशा की पंक्ति के मध्य में एक काउस्सग्गिया
है, और द्वितीय मुम्बज के नीचे की चारों तरफ की पंक्वियों
के चीच २ में मगवान् की एक २ मूर्चि है । एवं उसके
चारों ओर श्रावक् पूजा की सामग्री लकर खड़े हैं ।
( २४-२५ ) ३४ वीं देहरी के पहिले गुम्बज के
नीचे की चारों ओर की कवारों के बीच २ में एक एक
काउस्सग्गिया है । उनके आस पास लोग पूज्ञा की सामग्री
हाथ में लेकर खड़े हैं और दूसरे भ्ुम्पज में १६ हाथ
वाली देवी की सुंदर मूर्ति खुदी हुई है।
परूदकर सिद्दासन से धर्सरट कर नोचे गिरा कर मार डाला। फंख भौर
जरासंघध के सैनिक श्रीकृप्य से लड़ने को भामादा हुए, से किन समुद्र-
विजय ने उन सवको हट दिया। शमुद्गरुविजय बखुदेव भादि ने थीकृष्ण
दयसमद्ग को छाती से छगया लिया। सवकी भनुमति से कारायारस्थ राजः
उभसेन को निकाज फर सथुरा के राम्य सिंद्यासन पर बैठाया और समुद्र-
विजय, चच्चुदेध, यलछदेव, घाछुदेव आदि सव लोग शौरीपुर गये
विशेष विवरण जानने के लिये प्रिपष्टि शलारा पुरुष चरित्र! के पर्य ८
के सगे २ को देखा जाय ।
( ६१ )
( २६-२७ ) देहरी नं० ३८ वीं के पहिले शुम्बज के:
नीचे फ्री चारों लाइनों के मध्य २ में मगवान की एक २
मूर्ति है। एक तरफ भगवान् की मूर्चि के दोनों ओर दो-
काउस्सगिगये हैं | अत्येक भगवान् के आस पास श्रावक-
पूजा की सामग्री लेकर खड़े हैं। इसके दूसरे गुम्बज में”
देव-देवियों की सुंदर मूर्तियां खुदी हैं ।
( १८ ) देहरी ने» ३६ वीं के दूसरे गुम्बज में”
देवियों की मनोहर मूर्तियां बनी हैं | इन में हँसवाहनी”
सरस्वती देवी तथा गजवाहनी ल््सी देवी की मूत्तियाँ:
मालूम होती हैं।
( २६ ) देहरी नं० ४० वीं के हितीय गुम्बज के
मध्य में लक्ष्मी देवी की मूर्ति है। उसके आसपास दूसरे”
देव-देवियों की मूर्तियां हैं । गुम्पज के नीचे चारों तरफ-
की कतारों के बीच २ में एक २ काउस्सग्गिया है। प्रत्येक -
काउस्सरिगया के आस पास हँस अथवा मयूर पर बैंढे-
हुए विद्याघर अथवा देव के हाथ में कलश या फल हैं |
थोड़े पर बैठे हुए मनुष्य या देव के हाथ में चामर हैं।
( ३० ) देहरी नं० ४२वीं के दूसरे भुम्बज के नीचे:
दोनों तरफ हाथियों के अभिषेक सहित लक्ष्मी देवी की*
सुंदर मूर्तियां खुदी हुई हैं ।
( हू )
६ ३१-३२-३३ ) देहरी न॑ं० ४३, ४४ व् ४५वीं के
“चदूसरे-२ ग्ुम्बजों में १६ हाथ वाली देवी की सुंदर एक २
मूत्ति खुदी हुई है।. * हे
( ३४ ) देहरी न० ४५ वीं के पहिले गुम्बज के नीचे
की चारों पंक्तियों के बीच २ में भगवान् को एक २ मूचि
है। पूर्व दिशा की श्रेणी में भगवान् के दोनों ओर एक २
काउस्सग्गिया है और अत्येक भगवान् के दोनों तरफ हँस
सथा घोड़े पर बैठे हुए देव या मनुष्य के हाथ में फल अथवा
कलश ओर चामर हैं ।
( ३५-३६ ) देहरी न॑० ४६ के पहिले मुम्बन के नीच
की चारों तरफ की श्रेणियों के बीच २ में भगवान् की
- शक २ मूर्ति हैं, एपं उत्तर दिशा की पंक्लि में भगवान् के
दोनों तरफ़ काउस्सग्गिये हैं, और प्रत्येक मगवान् के
आम पास श्रावक पृष्पमाल हाथ में लकर सड़े हैं । इसी
देहरी के दूसरे गुम्बज में श्री कृष्ण मगवान् ने मरसिंह अमव-
लार धारण करके हिरण्यकंश्यप का वध किया था, उसका
इबहू चित्र आलेणित किया है | *
3 अद्टामारत में लिखा दे छि-- द्विरिण्यकारोएु नामक देश्य से अति
सपस्या करके हद्याजा को शस्तश्र कर वरदान सामा था। ( दित्दु धरम के
एन्य प्रम्यों में ऐम्टा भी उद्लेख पाया जाता है [कि--दिरिद्यकारिपु, शिवजों
दि पड
५744-22... 5
ज्ञ्ञ +ल्न-
हर.
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की प्ट््ट्ब्जन्
+&*, . € २,९०७ ६४००० १०२,
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ब्ग जे त+ ।ू «>> नाक पक ++ के मे 2७७
3 5००२८ “70 :02०2०८८०००००००
2 ७४३०
25" बी ॥
प्सद्दि, धतय-३०
पिमल-
छ 3. व ड:करद-
( छैरे )
(३७ ) देहरी नं० ४७ वीं के प्रथम शुम्ब॒ज में ५६-
दिगकुमारियों-देवियों के किये हुए भगवान के जन्मामि--
ह च्ज्ड 2 | ०
पेक का भाव है। प्रथम वलय में भगवान् की गूर्ते हे ।
द्वितीय एवं तृत्तीय चलय में देवियों कलश, धृपदान, पंखा,
छा जड ज हे च्ड त॒र्द
दर्षणादि सामग्री हाथ में लेकर खड़ी हैं। तृतीय वलय
में यह दिखलाया गया है कि-भगवान् की माता को अथवा
का सक्त था, इसलिये शिवजी से उसने वरदान प्राप्त किया था ।) उसने
यह घरदान मांगा था कि--तुरद्वारे निर्माण किये हुए किसी भी प्राणि से
मेरी स्टध्यु न हो | अयोच् देव, दानव, मनुष्य, पशु आदि से मेरी रूत्यु न
हो । मकान के दाहर व अंदर न हो । दिन में घरात्त में नहो। एख्नसे व
अख से न हो । एथ्दी में न हो आकाश में न हो । प्राण रहित से न हो
भाय सहित से न हो (? इत्यादि | इस प्रकार घरदान देने की बद्मयाजी
की इच्छा नहीं थी, परन्तु देत्य के भआभ्रह व तपस्या से चश होकर बह्माजी
मे वरदान दिया ॥
दिरण्यकशिपु का प्रह्मद नामक घुत्र विष्ठ का भक्न हुआ। सारे
दिन विष्णु के माम की साज्ला जपा करता था । उसके पिता ने शिव) भक्त
होने के लिये चहुत समझाया, परन्तु अनेकों प्रयत्न करने पर भी चह न
साना। इसलिये द्रिण्यकश्यप उसको खूच सताने लगा । विष्णु भगवान् ने
अपने भक्त प्रद्धाद को दुखी देखकर हिरण्यकश्यप को सारने के लिये नरसिंहः
अवतार धारण किया। ग्रह्माज़ी के वरदान में किसी प्रदार की स्खलना मे
आये; इसलिये घेसा विदिश्न रूप धारण किया, जिसका आधा भाग ततों-
मनुष्य का झर मुखादि भाधा शरीर सिंद का था! इस प्रकार का नराखिह
अवतार ध्यारण कर 'पिप्छु सगपान मे सन के झदर भी नहीं औरे_
( ६४ )
-अगवान् को सिंहासन पर बैठा कर देवियों मर्देन कर रही
“हैं और दूसरी ओर सिंहासन में बैठा कर स्तान कराती
“हैं। इस गुम्बज के नीचे चारों ओर की श्रेणियाँ के बीच २
में एक एक काउस्सगिगया है। पूर्व दिशा की पंक्षि में
“दोनों ओर दो काउस्सगिगये आपिक हैं। कुल छः काउस्स-
'फैगये हैं और आस पास में कई लोग पुष्पम्ाला लेकर
खड़े हैं।
( ३८ ) देहरी नं० ४८ वीं के दूसरे गुम्बज में बीस
स्ंड में सुन्दर नक्षशी काम है ! उन खंडों में के एक खंड
_ मगवान् की मार्च है। एक खंड में एक आचार्य्य मद्वाराज
पाटे पर पैर रुख कर सिंहासन पर बेडे हैं । उन्होंने अपना
एक हाथ, एक शिष्य जो कि पश्चाड़ नमस्कार फर रहा
बाहर भी नहीं, अर्थात् दरवाने फो देदलो में; जड़े रद्द कर; ४थवी पर नहीं
ओर झाकारा में नहों, भयांत् स्वर एष्दी पर खड़े रद कर झोर दिरएयरूश्यप
को अपने दोनों पैरों के दीच में दवा कर; शब्म से नहीं और भस्र से नहीं
धुर्दे सजीव से नहीं भौर निर्शाद से नहीं, भ्रधोद भपने नाखूनों के द्वारा
गदिन में नहीं और रात में लहीं, अपौव् संघ्या समय हे मार दाका ६
विष्णु भगवाब् जिय समय म राखिद अवतार में के, उस समय दे देव,
न्दूग्गव, मजुध्य भौर पशु कोई भी मी थे। भौर रस नरपिंद रूज के
ज्वत्पादक ग्रद्माजी भी नहीं पे १ इुप्जिये बे अस्छाश्षित रीते से एद्वेर्य्यकरिदु
को मार से | इस्र झदत्या की उत्तम शिरप कल्ा से युश सूचि ुरी हुईं है +
( ६५ )
है, उसके सिर पर रक़्खा है। दो शिष्य दाथ जोड़ कर पास
अं खड़े हैं । दूधरे खडों में छदी जुदी तजे की खुदाई है !
गुम्बज के नीचे की एक तरफ की लाइन के मध्य भाग में
एक काउस्सर्गिया है ।
( ३६ ) देहरी ने० ४६ के प्रथम शुम्बज में भी उप-
सुक्काजसार बीस खंडों में खुदाई है | एक खंड में मगवान् की
मूत्ति है। एक खंड में काउस्साग्गिया है। एक खंड में
देहरी न॑० ४८ की तरह आवचाय्ये महाराज की मूर्त्ति है ।
'एक खंड में भगवान् की मात्ता, भगवान् को गोद में
लेकर बेठी है । शेष खेडो में मिन्न २ तजे की खुदाई है।
( ४० ) देहरी ने० ५३ के पहिले गुम्बज के नीचे
की गोल लाइन में एक और भगवान् काउस्सग्ग ध्यान में
स्थित हैं। उनके आस पास भ्रावक खड़े हैं। दूसरी ओर
आचा्ये मद्दाराज बैठे हैं, उनके पास में ठवणी ( स्थापना-
चार्य्य ) है और श्रावक दाथ जोड़ कर पास में खड़े हुए हैं !
(४१ ) देहरी ने० १४ के पढहिले गुम्बज के नीचे
चाली दाथियों की गोल लाइन के बाद उत्तर दिशा की
लाइन के णक भाग में एक काउस्सगिगया है, उसके आस पास
आवक द्वाथ में कलश-पृष्पमाल्ल आदि पूजा सामग्री लेकर
खड़े दें ।
( ६६ )
: ' (४३ -) इस मंदिर के मूल गम्मारे के पीछे ( बाहर
की ओर ) दीनों दिशा के प्रत्येक ताकों ( आलों ) में
अगवान् की एक एक मूें स्थापित है और प्रत्येक ताक के
ऊपर भगवान् की तीन तीन सूत्तियां व छः छः काउस्सग्गिये
हैं। तीनों दिशाओं में कुल २७ मूर्तियाँ पत्थर में खुदी
छुड्टे हैं ।
' , पिमल-चसाहि की -ममाते ( प्रदुक्तिणा ) में देहरियाँ
४२. ऋषपभदेव भगवान् ( मुनिस्युत्॒त स्वामी ) का गम्भारा |
और अंबिकादेवी क्री देहरी १-इस श्रकार छल ५४ देहरियां
हैं। दो खाली कोठउड़ियां हैं । जिसमें परचुरण सामान
रक्खा जाता है । एक कोठड़ी में तलघर बना है | * जो
आजकल बिलकुल साली हैं! इसके अतिरिक्त विमल-बसदही
और लूश-बसहि में अन्य ३-४ तलघर हैं । परन्तु थे सच
आजकल खाली हों, ऐसा मालूम होता है ।
«। ) इस कोठरी में और तलघर की सीढियों पर, बहुत कचरा कूढ़ा
चढ़ा भा, इसको साफ कराकर इस ज्ञोग अंदर गये थे। देखने से पुक
खड्डे में ददी हुईं धातु की १४ प्रतिमाएं मिल्वी । जिसमे शक सूर्त्ति अंबिका
देवी की थी और शेप सूर्चियाँ मगवान् दी थीं। वे लगभग २०० से ६००
अप की पुरानी सूर्त्तियाँ थीं। कई मूर्तियों पर लेख हैं। इस तज्नर्धर में:
पा के थो | ई:-७आ
संगमरसर की बढ़ी सखेड्धित मूर्तियां के थोड़े टुकड़े पढ़ें हैं ।
( ६७ )
विमल-बसहि में गृढ़ मंडप, नव चौकी) रंग मंडफ
आर समस्त देहरियों फे दो दो शुम्बजों फा एक २ मण्डप
उंगेनने से सारे सन्दिर में ७९ सण्डप होते हैं और गूढ़
मण्डप, नव चोकी, गूढ़ मण्डप के बाहर की दोनों तरफ
की दो चौकियां, रंग मण्डप, श्रत्येक देहरी के दो २ मंडप
और दो देहरियों के नये मणडप बगेरा मिलाकर छल ११७
मंडप दोते हैं ।
विमल-घसहि में संगमरमर के कुल १२१ स्थंभ हैं १
उनमें से ३० अत्यन्त रमणीय नकशी वाले और बाकी के
जड़ी नकशी चाले हैं । इस मंदिर फी लम्बाई १४० फीट
ओर चौड़ाई ६० फीट है।
(६ धर )
५ #॥72-#२६#२-:+२:४से: शेड कै
१९४2
५ विमल-वसहि की हस्तिशाला $
के
...
* ५-5२-४:%:#३-४:९-४7३:४९:४२९:८
«/ यह हस्ति-शाला विमल-बसह्दि मंदिर के मुख्य द्वार
के सामने बनी हुई है। विमल मंत्री के बड़े भाई मंत्री नेढ/
उनके पुत्र मेत्री घन, उनके पुत्र मंत्री आनंद और आनंद
के पुत्र मंत्री शथ्योपाल' ने प्िमल-बसहि की कतिपय
दैदरियों का जीर्णोद्धार करएने के समय स्पकीय कुड॒म्ब के
स्मरणाथे से० १२०४ में यद्द दस्ति-शाला बनाई है ।
हस्तिशाला के पश्चिम द्वार में प्रवेश करते ही पिमल-
अमहि के मूलनायक भगयान के सम्पुस एक बड़े घोडे पर मंत्री
पघिमल शाद बैठे हैं। उनके मस्तक पर मुकट दे । दाहिने हाथ
के कटठोरी-रकत्री आदि पूज़ा का सामान है और वां हाय
हें घोडे की लगाम है। विमल मंत्री की घोड़े सददित मूर्ति
पद्दिले सफेद संगमरमर की बनी थी, किन्तु आजकल तो
मांत्र मस्तक का भाग ही असली-संग्रमरमर का है। गले से
200:
«५ ३--पष्रीपाल आदि व ये दखिय इस पुस्तक का पिदका एह
वश्सेश्८।
फी हस्तिशाला, अश्वारूद विभर मग्रोश्वर
री
विमल-चबसहि
( ६ )
नीचे का भाग और घोड़ा नकली मालूम होता है। अर्थात्
आय तो किसी ने इस मूर्त्ति को खंडित कर दी हो, बिससे
“फिर नई बनवा कर खड़ी की हो; या अन्य किसी हेतु से
“उस पर चूने का पलस्तर कर दिया हो, ऐसा मालूम होता है।
मसाकृति सुंदर है। घोड़े के पीछे के भाग में एक आदमी,
पत्थर का सुदृदद छत्न विसल शाह के मस्तक पर धारण
पकेये हुए खड़ा है ।१
डे
इसके पीछे तीन गढ की रचना वाला सुंदर समवसरण
है। उसमें चौमुखीजी के तौर पर तीन तरफ सादे परिकर
बाली और एक तरफ तीनतीर्थी के परिकर वाली ऐसे
कूल चार मूर्तियां हूं। यह समवसरण सं० १२१२ में
'कोरंटगच्छीय नज्नाचाये संतान के ओसवाल धांथु रू मंत्री
जे बनवाया. ऐसा उस पर लेस है
एक तरफ कोने में लक्ष्मी देवी की मूर्ति है।
) १“-दन््तकथा है कि-इद्धारक व्यक्ति विमल मत्री का भानेज है |
चपरन््तु इस कथन छी पुष्टि करते बाला प्रयाण किस्री प्रन्थ में उपकृब्ध नहीं
हुभा है। होरथिजयस रे रास में लिखा है वि--इशप्नधारक स्यक्ि चिमस्त
की सतीजा है। इससे अनुमान किपा जाता है सि--यायद यद विमल
के उ्येष्ठ आता नेट रा दशरथ नग्मरु प्रतोध हो | «
( १०० )
इस हस्तिशाला के भीतर तीन लाईनों में संगमरमर केः
सुंदर कारीगरी युक्र कूल, पालकी और अनेक प्रकार के-
आशभूपणों की नकाशी से सशोभित १० हाथी हैं; इन सके
पर एक २ सेठ तथा महावत बैठे थे। परन्तु इस समय
इन में फे दो दाधियों पर सेठ और महावत दोनों बैठे हैं ।
शक हाथी पर सेठ अकेला बैठा है। तीन हाथियों पर मात्रा
मदहावत ही बेठे हैं। शेप चार हाथी विलकुल खाली हैं ।
उन हाथियों पर से ७ सेठों ( श्रावंकों ) की और ५ महावतों'
की मूचियां नष्ट दो गई हैं। श्रावकों के हाथ में* पूजा फ्री
सामग्री है। आवकों के सिर पर श्रकुट। पड़ी अथवा
अन्य ऐसा ही कोई आभूषण है ।
प्रत्येक द्वाथी के होदे के पीछे धत्रधर अथवा चामर-
अर की दो दो खड़ी मूर्त्तियां थीं, किन्तु थे सब्र संडित
हो गई हैं । उनके पाद चिह्न कहीं कहीं रह गये हैं ।
मात्र एक ठक््कुर जगदेव के हाथी पर पालकी (होदा)'
नहीं थी और उसके पीछे उपर्युक्त दो मूर्त्तियां भी नहीं
३--द्वायियों पर मैडे हुए आव्कों को सृक्तियँ छार चाट भुमाशों
साकी है 3 मेरी कक्पनानुसार चार चार भुजाएँ, ड्वाय में मिन्न म्रित् पूजा
बड़े सामग्री दिखलाने के इतु से बनदाई गई होंगो। दूसरा कोई कारण-
“जईयी दोगा । क््योंकि--दे मूर्तियां मनुष्यों झी अर्थात् विमलशाद्ट केः
झुदुमियों को हो हैं
५६०१)
जीं। सिफे भूल पर ही 5० जगदेव की मूर्ति बैठाई
गई थी ( इसका कारण यह मालूम होता है कि-वे महा
अंत्री नहीं थे )। इस हाथी की सेंड के नीचे घुड़ सवार
'की एक खंडित छोटी मूर्ति खुदी हुई है।
इन हाथियों की रचना इस ऋम से है।--
हस्तिशाला में प्रवेश करते दाहिनी तरफ के क्रम से
ध्यहिले तीन हाथी, बांइ ओर के क्रम से तीन हाथी और
सातवां समबसरण के पीछे का पहिला एक हाथी, इन सात
हाथियों को मंत्री एथ्वीपाल ने वि० सं० १२०४ में
बनवाया था। आठवां दाहिने हाथ की तरफ का अन्तिम,
नववां समवसरण के पीछे का आखिरी और दसवां
चाम हाथ की तरफ का अंतिम) ये तीन हाथी मंत्री
चथ्वीपाल के पुत्र मंत्री घनपाल ने बि० से० १२३७
कं बनवा कर स्थापित किये ।
ये हाथी निम्न लिखित नामों से घनवाये गये हेंः-
झ्ाथी का
क्रम
किसके लिये बना
संवत् परिचय
पड महभंत्रो नीना ््ा (विमल मंत्रों के कुछ दृद्ध )
करा | » लहर (यु शकीना का घर)
.शि/26 ४८९०७
( १०२ )
डाथी का ्ं बिग मी
कम | फिसके लिये वना | संवत्
परिचय
महामंत्री चीर
चौथा | +, नेढ +)
पांच »% घल | +
छठा | , आनंद।| +
सातवा| ,, एथ्ची-
पाल क
आंठवा| ( पउंतार ? ) ।
जगदेव | १२३
नववां |महामत्री धन- || ]
पाल
दसवा | ..... «««
१२०४ ।( लहर का वंशज )
(चीर का पुत्र और विमल का
बड़ा माई )
(नेंढ का पुन्न )
(घबल का पुत्र )
( आनंद का उत्र )
(म्नी पथ्वीपांस का बडा पत्र
ओर घनपाल का बड़ा माई )
( एथ्वीपाल का छोट पुत्र भौर
जगदेव का छोटा भाई )
इस हाथी की लेख बाली पट्टी
खंडित हो जाने से लेख नष्ट हो
गया हे। परन्तु यह हाथी भी:
सें० १२३७ में मंनी घनपाल
ने उसके छोटे माई, पुत्र अथवा
अन्य किसी निकट के सम्बन्धी,
के नाम से बनवाया होगा।
हद
१5
है]
विमरू--धसहदि की हस्तिशाला में, गजारूढ़ महामंत्री नेढ़,
0, ३. एच्ल5, 3]०ल०
( रेण्दे )
/* (१) हस्तिशाला की पूषे दिशा के तरफ की खिड़की
के बाहर की चौकी के दो स्थंभों पर भगवान् क्री १६
सू्तियां बनी हुई हैं ( एक २ स्थंभ में आठ २ भूत्तियां
हैं )। इन स्थेभों के ऊपर के पत्थर के तोरण में रास्ते की
तरफ (बाहरी तरफ ) भगवान् की ७६ मूर्तियां बनी हुई हैं।
इन ७६ के साथ दोनों स्थेभों की १६ मूर्तियां मिलाने
पर कुल ६२ सूत्तियां हुई। इनमें की ७२ मूर्तियां अतीत
उपनागत व वत्तेमान चौबीसी की ओर अवशिष्ट बीस मूर्तियां,
बीस विहरमान भगवान की होंगी, ऐसा ग्रतीत्त होता है ।
इसी तोरण में अंदर के भाग में ( दस्ति-शाला की तरफ)
भगवान् की ७० मूत्तियां खुदी हैं । किन्तु असल में ७२
होंगी। संभव है दो मूत्तियां दीवाल में दब गई हों।
अथोत् यह तीन चौबीसी हैं, ऐसा समझना चाहिये ।
( २ ) उपयुक्त चौकी के छल्ले के ऊपर के पत्थर
चाले तोरण में दोनों तरफ भगवान् की मूत्तियाँ व काउ-
स्सग्गिये मिलकर एक चौबीसी बनी दे ।
( ३) सारी हस्तिशाला के बाहर के चारों तरफ
के छल्जे के ऊपर की पके में, भगवान् की मूर्ति व काउ-
इसगिगिये मिला कर एक चौवीसी बनी है । ;
| 33228 अप की भर हस्तिशात्ा
» उसका निर्माय काल
( १०४ )
और निर्माता के विषय में कुछ मी सामग्री उपलब्ध नहीं
हुई। यह सभा मंडप हस्तिशाला के साय तो नहीं बना कै
क्योंकि-होर सौभारय महाकाब्य से ज्ञात होता है कि-
पबे. से. १६३६ में जगत्पूज्य श्रीमान् हो रविजय सरीस्वर
जी यहां पर यात्रा करने को पघारे, उस समय विमल
चसहि के मुख्य द्वार में प्रवेश करते हुए जड्गले वाली सीटी
थी। परन्तु उपर्युक्त सभा मंडप नहीं था। उक्त महाकाव्य में
मंदिर के अन्य विभागों के वर्णन के साथ ही साथ उपर्युक्त
सीढ़ी का भी घर्णन है फिन्तु इस सभा मंडप का बेन
नहीं है । इससे यद्द मालूम होता है कि--इस समा मंडप
की रचना वि. सं. १६३६ के बाद हुई है।
हस्तिशाला के बादर के उपर्युक् समामंडप में सुरमी
4 सुरदी )-अछड़े सहित गायों के चित्र च शिलालेख चाले
सीन पत्थर विद्यमान हैं| उनमें से दो पत्थरों पर ति. से.
१३७२ और एक के ऊपर १३७३१ का लेख है। ये तीनों
लेख सिरोही के वर्चमान महाराव के पूर्वन चाह्मण
मदहाराव छ्लुमाजी (लूंढाजी ) के हैं। इनमें 'विमल-वसद्दी
च् लूण-वसही मंदिरों, उनके पूजारियों व यात्रालुओं से
प्रकेसी भी प्रकार का टेक्स-कर न लिया जाय इस आशय
के फर्मान लिखे हैं।
( १०५ )
इसी रंग (सभा) मंडप के एक स्थ॑भ के पीछे पत्थर के
*णक छोटे स्थंभ में इस प्रकार का दृश्य बना है ;--
एक तरफ एक पुरुष घोड़े पर बैठा है; एक छत्रधर उस
'यर छत्र धर रहा है। इस दृश्य के दूसरी तरफ वही मलुष्य
“हाथ जोड़ कर खड़ा है, इन पर छत्न रखकर एक छत्नधर खड़ा
'है। पास में स्री तथा पुत्र खड़े हैं। उसके नीचे संवत् राहित
सेख खुदा है, जिसमें बारहवीं शतादि के सुप्रसिद्ध राज्यमान्य
आवक श्रीपाल कांबे के भाई शोझित का बरणन है।
इस स्थंभ के पास ही दीवाल के नजदीक संगमरमर
“के एक सूर्तिपइ्ट * में भगवान् के सामने हाथ जोड़ कर
खड़े हुए श्रावक-थाविका की दो मूर्चियाँ घनी हैं। राज्य-
नमन्य सुप्रसिद्ध महामंत्री कवडि मामक श्रावक ने ये दोनों
“सूत्तियाँ अपने माता-पिता 5० आमपसा तथा 5० सीता
देवी की बनवा कर आचाये श्री धमपोपस्तरिजी के पास
उसकी प्रतिष्ठा कराई है। उसके नीचे वि० सं० ११२६
अच्य तृतीया का खेख है।
$ भ्रष्ट मूर्त्तिपद्द, खणिइत पत्थरों के गोदाम में पढ़ा था। हमारे
सूचना पर ध्यान देकर यहां के कार्ये-पाहकों ने इस सूर्तिपष्ट को इस
जगई स्थापित कराया । माहुम होता है कि-यह सूर्त्तिपद् कुछ वर
थद्दिसे दिमज-दसहि के श्री ऋषमदेव (श्री मुनिसु्रत) स्वामि के गम्मारें
“मे था। इसकी मरम्मत होनी चाहिये ।
हि (् जै्ई )
5/0/£१/७/४२/७॥४४२/२७४८२/७/४४२/८४
ओऔ महावीर स्वामी का मन्दिर हैं
जज के छह छ/ 3 0 हर
विमलबसहि के बाहर हस्तिशाला के पास श्री महाबीर
स्वामि का मंदिर हैं। यह मंदिर और हस्तिशाला के
सिकट का बड़ा सभा मंडप किसने और कब बनवाया
यह ज्ञात नहीं हुआ । परन्तु इन दोनों की दीवारों पर
वि सं० १८२१ में यहाँ के मंदिरों में काम करने बाले
कारीगरों के नाम, लास रंग से लिखे डुये हैं। इस से ज्ञात
होता है कि-ये दोनों स्थान सं० १८२१ से पहिले और
सं० १६३६ के बाद बने हैं। क्योंकि-भीहीर सौभाग्य
सह काव्य में इन दोनों का वर्णन नहीं है। श्री महाघीर
स्वामि के मंदिर में मूलनायकजी सहित १० जिन बिंदा
हैं। ग्रह मंदिर ओटा और सादा है ।
तक
( शर्०७ )
हु भर हे ् कृणकरसाहि डा
# हे
४
मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल के पूवैज--शुजर
हालत की राजधानी अणहिलपुर पाठण में बारहवीं
शताब्दि में प्रा्याद ( पोरवाल ) ज्ञाति के आभूषण समान
ब्वयडडप नामक एक गृहस्थ, जिसकी पत्नी का नास
घांपलदेवी था, रहता था। वह गुजरात के चौलुक्य
६ सोलंकी ) राजा का मंत्री था। राज्यकाये में अत्यन्त
चतुर होने के साथ ही प्रजावत्सल एवं धमं काये में भी
तत्पर था। उसका चेंडप्रसाद नामक पुत्र था; जो अपने
पिता का अनुगामी और सोलंकी राजा का मंत्री था।
उसकी स्त्री का नाम चांपलदेबी ( जयश्री ) थाग इसके
दो लड़के थे, जिसमें बड़े का नाम शूर (घर) और छोटे
का नाम सोम ( सोमसिंह ) था। दोनों बुद्धिशाली, शूर--
चीर ओर धर्मात्मा ये। दूसरा जैनधर्म में अत्यन्त इढ़ था
और गुजरात के सोलेकी महाराजा सिद्धराज जयसिंह
का मंत्री या। इसने यावजीवन देवों में तीथकरदेव, गुरुओं-
( १०८ )
में नामेन्द्र गच्छ के भ्रीमान् ह रिभद्र सूरि तया स्वामीस्वरूप
“महाराजा सिद्धराज को स्वीकार किया था। इसकी घर्मपत्ती
का नाम सीतादेवो था, जो महासती सीता के जैसी
“पतिवता और धर्मकर्म में अत्यन्त विश्वल थी। सोमसिंह
- का आसराज ( अश्वराज ) नामक पुत्र या; जो बुद्धि
शाली, उदार और दाता था। परम माठ्मक्क ही नहीं था।
- बल्कि जैनघर्म का कट्टर अनुयायी भी था। मात्भक्कि को
उसने अपना चसीवन ध्येय चना लिया थां। उसने महा
महोत्सवपूवंक सात वार अथवा सात तीर्थों की यात्रा की
थी। उसकी कुमारदेवी नामकी पतित्रता मायी थी। यह
भी अपने पति के समान ही उदार व जैनधर्माठुयायिनी
भी | कुछ समय के बाद ध्यासराज किसी हेतु से अपने
-कुटुम्बी जन और राजा आदि कौ अनुमाति लेकर अणय-
छिलपुर पाठन के समीपवर्ता झुंहालक नामक गांव में
अपने पुत्र कसत्र के साथ सुखपूर्वक रह कर व्यापारादि कार्य
करने लगा। वहां प्यासराज फो कूमारदेवो की कुछि
से लूणिग, मलदेव, चह्तुपाल और तेजपाल मामक
चार पुत्र तथा जाल्ह,-माऊ, साऊ, घनदेवी, सोडया-
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3०५7 ९८५५४.
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नि आं॥ां #. . «००००१
हट ७७ धर कह!
लूण घसददि की हस्तिशाला मे,
महा मन््त्री वस्तुपाल-तेजपाल के माता पिता
09 3 ए.छ७८ड 3]्हक
( १०६ )
सातों बहिनें, स्थृलि भद्र स्वामी की सात बहिनों की तरह:
बुद्धिशालिनी और घमे कार्य में रत ऐसी आविकाएँ थीं ।
मंत्री लुणिग राज्य कार्य पड़, शूरवीर व तेजस्वी युवक
या। किन्तु आयुष्य कम होने के कारण युवावस्था के”
आरम्भ में ही वह काल कबालित हो गया। उसकी पत्नी
का नाम लूणादेवी था। मंत्री मललदेव भी राज्य कार्य
में निपुण, महाजन शिरोमणि और धार्मिक कार्यों में तत्पर "
रहने वाले लोगों में मुख्य था। उसके लीलादेवी और
प्रतापदेयो नामक दो घमपत्नियाँ थी। मछदेव लीला
देवी का पूर्ण सिंह नामक पुत्र था | इसकी पहिली भाया
का नाम अल्हणादेवी था। पर्णसिह-अल्हणादेवी
के पुत्र का नाम पेथड़ था। पेथड़ इस मन्दिर की प्रतिष्ठा
के समय विद्यमान था। पूर्णसिह की दूसरी स्लो का नाम
महणदेवी या। पूणेसिह के दो बहिने थीं, सहजलदे
ओर सदमलदे; और चलाखंदे नामकी एक पुत्री भी थी।«
महामात्य श्री वस्तुपाल-तेजपाल---महामात्य
चस्तुपाल-तेजपाल; शूरवीरता, घार्मेक काये पराययता,.
राम्यकाये दचता, प्रजावत्सलता, सब घ्मे पर समान
रष्टिता, बुद्धिमचा, विद्वरा और उदारत आदि अपने सुर्यो-
६ ११० )
“से आवाल-इद्ध में असिद्धं हैं। अत उनके विषय में
खेवेचन करना, सिर्फ़ पिष्पेषय ही करना है इसलिये उनके
गशुर्णों का वर्णन न करके, मात्र उनके कुडुंबादि का प्रिचय
- संक्षप में कराया घाता है।
मंत्री वस्तुपाल राज्य कार्य में हमेशा तत्पर रहने पर
भी अपूर्व विद्वान थे। उनके समकालीन कवि उनका
परिचय * सरस्वती देवी के धर्मपुत्र” इस अकार कराते हैं!
क्योंकि-उनके घर में सरस्वती व लद्मी दोनों का नियास
था। ऐसा अन्य स्थानों में बहुत ही कम दिखाई देता है ।
मंत्री चस्तुपाल के ललितादेवी और वेजलदेंबी
नाम की दो धर्मपत्नियों थीं। ललितादेवी गुण भएडार
और बुद्धिमती होगी, ऐसा मालूम होता है। क्योंक्रि-मंत्री
घस्तुपाल, उसका बहुत आदर-सम्मान करते थे और घर
के खास खास कार्मो में उसकी सलाह लिया करते थे ।
ललितादेवी की क्क्ति से उत्पल्त जयस्तसिंह ( जैद्च-
सिंह ) नामक चस्तुपाल का पुत्र था। जो खर्यपुत्र जयन्त
से किसी प्रकार कंम न था। चंद मी अपने पित के साथ
ध स्वतंत्र रीत्या राज्य कार्य में दिलचस्पी लियों करता था
इसके जपततवदेवी, जम्मणरवी ओर रूपदियों नामक
तीन सियां भा 4 5५३ «3.73 इक वि | ४35
जज |ग
है. - के 50७ 75%)
लूण यदि की दस्तिशाला में,
महा मसन््त्रा वस्तुपाल और उनकी दोनों ख्धिया
एव. छिाच्छ #)छच
बह
८
३ 5,
«४ 407 #दल् 2
सन अण्णमपीटत
चुश-घखद्दि भद्रि के निर्माता
पैजपाल और उनझी पत्नी अजुफ्म देवों
8 | जत्नथ 4पणकत
(१११ )
महामात्य तेजपाल की दो पत्रियाँ--अलुपमदेवी
और खुहडादेवी--थीं। अशुपमदेवी की कुल्िस मंदा
अतापी। बुद्धिशाली, श्रबीर और उदार दिल लूण्सिंह
( लावण्यसिंह ) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | यह राज्य
काये में भी निपुण था । पिता के साथ व स्वर्य अकेला
मी युद्ध, संधि, विग्नदादि कार्यो में भाग लेता था। इसकी
रघणादेवी और लखमादेबी नामक दो स्लिया व गठर-
देवी नामक एक पुत्री थी। (लेजपाल के) खुहडादेवी
की कूल से सुहडसिह नामक एक दुमरा पुत्र हुआ था ।
उसके सुह्ड़ादेवी और सुलखगणादेवी ये दो ख्त्रियाँ थीं ।
मन्त्री लेजपाल को बउलदे नामक एक पुत्री भी थी | ,
मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल अपने पिताकी विद्यमानता
में अपनी जन्मभूमि सुंहालक में ही रहे, परन्तु पिताजी
का स्वगेबास होने के बाद दिल नहीं लगने से, छुजराल के
संडलि (मांडल) गांव में सकुहुम्ध रहने 'लगे। कालुक
ऋमानुत्तार उनकी भाता भी पंचत्व को भ्राप्त हुई। मात
वियोग का शोक दोनों भाईयों के लिये असाधारण थां।
“उस समय। पस्तुपालं-तेजपाल के माहपंत के गुर मलधार
नाच्छीय श्री नरचन्द्रसरीश्वर. विचरेते पिच॑रते” मंडल
आएंदाें पथ । उन्होंने उपदेश डांस कम सहंप संपद्धी
( हर)
कर दोनों भाईयों का शोक दूर कराया और तीर्थयात्रादि:
अमे कार्ये में तत्पर रहने के लिये ग्रेरणा की |
नागेन्द्र गच्छीय श्री आझ्यानन्द्सरि-अमरस्रि के
प्रइघर भ्रीमान् हरिभद्वद्तूरि के शिष्य श्री विजयसे नस रि,-
जो वस्तुपात-तेजपाल के पिठपक्ष के गुरु थे, उनकेः
उपदेश से उन दोनों भाईयों ने शब्ल॑ंजय तथा ग्रिरिनार
सी का ठाठ बाठ से बड़ा भारी संघ निकाला और संघपति”
होकर दोनों तीर्थों की शुद्ध भाव पूर्वक यात्रा की ।
चोलुक्य ( सोलंकी ) राजा---छजरात की
राजधानी पझणदिलपुर पाठन के सिंहासन के श्रधिपाति”
सोलंकी राजाओं में के कुमारपाल मद्दाराज तक के कतिपयः
नाम विमलवसद्दि के प्रकरण में आगये हैं। महाराज कुमार-
पाल के बांद उनका पृत्र अजयपाक्ष गद्दी पर आरुद हुआ | '
ध्यवयपाल की गद्दी पर सूलराज ( द्वितीय ) भोर सूलराज
को गद्दी पर भामदेव (द्वितीय) गुजरात का महाराजा:
डुआ। उस समय गुर्जर राष्ट्रान्तर्गत घघलकपुर ( घोलका 9
में मद्ामंडलेश्वर सोलंकी ध्य्योराज का पृत्र लवणप्रसाद
राजा था और उसका पुत्र चोर धचल युवराज था। येर
गुजरात के महाराजा के झख्य सामंत थे। मशराजाः
६ ११३ )
ओभीमदछेय उन पर बहुत प्रसन्न था। इस कारंण से उसने
अपनी राज्य-सीमा को बढ़ाने का व संभाल रफने का कार्य
लवशप्रसाद को सौंपा और वीरधवल को अपना
युवराज बनाया | वीरघवलछ की, कुशल मन्त्री के लिये
याचना होने पर भीमदेव ने वस्तुपाल और तेजपाल
को घुलाया और उन दोनों को महा-सन्त्री बनाकर, दीर-
घबल के साथ रहते हुए कार्य करने की सचना दी।
मन्त्री चस्तुपाल को घोलका और खंभात का अधिकार
दिया गया और मन््त्री लेजपाल को संपूर्ण राज्य के
महा-सन््ज्री पद पर निवोचन किया गया।
युवराज वीरधवल व् मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल ने
शुजरात की राज्य-सत्ता को खूब विस्तृत बनाया। आस पास
के मातहत राजा, जो खतंत्र होगये थे, अथवा स्वतंत्र होना
चाहते थे, उन सब पर विजय प्राप्त करके, उनको गुजैराधि-
प्रति के आधीन किये। इसके उपरान्त आस पास के देशों
पर सी विजय घ्वजा फहराकर गुजरात की राज्य-सत्ता मेँ
बुद्धि की। महामंत्री चस्तुपाल-तेजपाल ने कई समय
लड़ाईयां लड़ी थीं। कभी बुद्धिबल से तो कमी लड़ाई से,
इस प्रकार उन्होंने शब्युओं पर विजय ग्राप्त की। इसने बड़े
शरबीर ओर सत्ताधीश दोने पर भी उनको किसी पर्
प्प
( हुए)
अन्याय करने कौ पृद्धि कभी भी नहीं छकी। हमेशा
राज्य के ग्रति बफादारी व प्रजा पर वात्सल्य भाव रखते थे ।
'विकट असंगों में भी उन्होंने धरे और न्याय को अपने से
दूर नहीं किया। उन्होंने अपने व अपने सम्बंधियों के
कल्याण के लिये तथा शजाहित के लिये सारे देश में
जगह जगह पर झनेक जैन मंदिर, उपाभ्रय, धर्मशालाएँ,
दानशालाएँ, हिन्दू-मन्दिर, मसनिदें, बावड़ियें। छू,
वालाब, घाठ, पल और ऐसे ऐसे अनेक घर्म व छोकोप-
योगी स्थान नये बनयाये। तथा ऐसे स्थान जो पुराने
होगये थे, उनका जीणोडद्धार कराया । उन्होंने धर्मकाये में
ऋरोड़ों रुपये व्यय किये, जिनकी संख्या सुनते ढी इस
समय के लोगों को बढ घाव माननी कठिन होजाती है ।
उनके किये हुए धर्म कार्यों का कुछ चर्णन इसके दूसरे
भाग में दिया जायगा ।
आबू के परमार राजा---शाजपएतों की सान्यता-
सुसार आयू पर तपस्या करने बाले वशिष्ठ ऋषि के दोम के
अग्नि-कुण्ड में से उत्पन्न हुए परमार नामक पुरुष के वंश
में धूमराज नामक पढ़िला राजा हुआ । उसके वंश में
घेंबूक नामक राजा हुआ. जिसका नामोल्लेप विमलवसदि
के वर्णेन में झुका दे। आए के इन परमार राजाओं की
( १३१५ )
राजघांनी आयू की तलेटी (तलइटी ) के निकट चंद्रावत्ती
नगरी में थी। ये लोग शुजरात के महाराजा के महामंडलेशर
(मुख्य सामंत राजा) थे । धंघूक के पंश में भ्रुवभटादि
राजा हुए | पश्चात् उसके वंश में रासदेव नामक राजा हुआ।
इसके पीछे इसका यशो घवल त्तामका शूरवीर पुत्र राजा हुआ+
जिसने चौलुक्य मद्दाराजा कुप्तारपाल के शब्रु सालया के
शजा यट्ञाल को युद्ध में मार डाला था। यशोघवल के बाद
उसका पुत्र धारावर्ष राजा हुआ। यह भी अत्यन्त पराक्रमी
था। इसने फॉकण देश के राजा को लड़ाई में मार डाला था ।
घाराव् का प्रह्मदन नामक छोटा भाई था। यह भी महा
पराक्रमी, शाखवेत्तर एवं कवि था। “पालणपुर” नामक
नगर का यह स्थापक था । मेवाड़ नरेश सार्मतसिंह के
साथ युद्ध में त्षीणबल होने वाले शुजरात के भद्दाराजा
ध्मजपपाल के सेन्य की इसने रक्षा की थी। धारावष के
चाद उसका पूत्र सोमसिंह राजा हुआ। इसने पिता से
शस्त्र विद्या, ओर काका से शास्त्र विद्या अहण की थी।
उसका पुत्र कृृष्णराज़ (कान्हड़ ) हुआ। घह महामात्य
वस्तुपाल-तेजपाल के समय में युवराज था।
लूए-वसहि---महामात्य चस्तुपाल-तेजपाव ने
इस एथ्वी पर जो अनेक तीथ्थस्थान व धर्मस्थान बनवाये ये;
( शह६ )
उन सत्रमें आध्व पर्वतस्प यह लुण वघ्तहि नामक जैन
मन्दिर विशेष उल्लेखनीय है। मंत्री वस्तुपाल के लघु
भाई लेक्षपाल ने अपनी घर्मपत्ती अलुपमदेवी व उसकी
कुपि से उत्पन्न हुए पुत्र लावय्यसिंह के कल्याण के लिये,"
शुजरात के सोलंकी महाराजा भं।मदव (द्वितीय) के महा-
मंडलेखर झ्मान् के परमार राजा सोमसिंह की अनुमति
स्तेकर आद्ू पर्वतस्थ देलवाड़ा गांव में बिमल बसही
मंदिर के पास ही उसीके समान; उत्तम कारीगरी-नकशी-
बाले संगमरमर का; मूल गंभारा, गृढ़ मंडप, नव चौकियाँ,
रंग मंठप, बलानक (द्वार मंडप-द्रवाजे के ऊपर का मंडप )|
खचक (ताक-आाले), जगति (भमती) की देहरियों तथा
हस्तिशालादि से अत्यन्त सशोभित श्री नेमिनाथ मगयात्
का। भीलूएसिंह (लाययपसिह)-वसहि नामक भव्य
अंदिर करोड़ों रुपये खचे करके तैयार कराया। इत्त मंन्दिरि
में श्री नेमिनाथ भगवान् की कसौटी के पत्थर की अत्यन्द
रमणीय व बड़ी सूर्त्त बनवा कर मूलनायकरजी फे तौर पर
पिरावमान की। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा, भरी नागेन्द्र गच्छ के
अहेन्द्रचरि के शिष्य शान्तिछ्तरि, उनके शिप्य प्मानंद्ू-
साररि-शझमर रि, उनके शिष्य हरिभद्र सूरि, उनके शिष्य
ओऔ विजयस्ेन सूरि द्वारा भारी आाइंवर और महोत्सव पूर्वक
लुण-पर्सादि का अति घएव
की के 28
(११७ )
बे, सं, १२८७ के चैत्र बदि ३ (गुजराती फागुन बदि ३)
(विवार फे दिन कराई इस मंदिर के गृढ गेडप के मुख्य द्वार
के बाहर नव चौकियों में दरवाजे के दोनों तरफ बढ़िया
नकशीयाले दो तास (आलि) हैं, (जिनकी लोग देराणी--
जेठानी के ताख कहते हैं )। ये दोनों आले मंत्री तेजपाल ने
अपनी दूसरी स्री छुदडादेवी के स्मरणाथे तैयार कराये हैं।
में, तेअपाल मे ममती की फई एक देह्रियों अपने
आहयों, छुजाइपों, बहिनों, अपने व 'माहयों के पुत्र,
पुन्न-चधुओं ओर पुत्रियों आदि समस्त कुडुंच के
ऋल्पाणाथ ख्नवाई हैं। कुछ देहरियें। उनके श्रसुर पत्र
के घ अन्य परिचित लोगें। ने बनवाई हैं। इन सब देहरियों
की अतिष्ठा वि, से. १४८७ से १२६३ तक में और उपयुक्त
दोनों त्ताखो की प्रतिष्ठा वि. से. १९६७ में हुईं थी।
इस मंदिर का नकशी काम भी विमलवसही जैसा
ही है। विभल-बसद्दी ओर लूश-बसही मंदिरों की दीचारें,
डार। बारसाख, स्तंभ, मंडप, तोरण ओर छत के गुम्बजादि
में न मात्र फूल, भाड़, बेल, बूंटा, हंडियों और कुमर आदि
भिन्न भिन्न प्रकार की विचित्र वस्तुओं की खुदाई ही की है;
अल्कि इसके उपरान्त हाथी, घोड़े ऊँट, व्याप, सिंह, मत्स्य,
बची, मतुष्य और देव-देविमों की माना प्रकार की मूर्चियों फे
( शृश्द )
साथ दी साथ, मनुष्य जीवन के जुदे जदे अनेक प्रसंग, जैसे
कि-राज द्रवार, सवारी, वरघोड़ा, वरात, विंबाह प्रतग
में चोरी बगैरह, नाटक, संगीत, रणसंग्राम, पथ्च चराना;
सप्रद्यात्रा, पशुपालों ( अद्दीरों ) का ग्रह-जीवन, साधु और
श्रावर्कों की अनेक प्रसंगों की घार्मिक क्रियाएँ, व तीयेकरादि
मद्दा पुरुषों के जीवन के अनेक ग्रसंगों की भी इतनी मनोहर
खुदाई की हैं कि-यादि उन सब अंगों पर वत्तम रीति से
झष्टिपात किया ज्ञाय तो मंदिर को छोड़ कर बाहर आने
की इच्छा ही न हो।
इन दोनों मंदिरों की नकशी को देसने घाले मलुप्प
के मस्तिप्क में खाभाविक रीति से यह प्रश्न गूंज उठता है
कि-इन दोनों मंदिरों में मे किस मंदिर में अच्छी नकाशी
है? किन्तु इस प्रश्न का निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता।
प्रेचकवर्ग स्वेच्छानुसार दो में से किसी एक को प्रधान पद
देते हैं-दे सक्ले हैं । में मी अपने नम्र मताजुमार नकाशी की
बारीकी व श्रेप्ठता पर दृष्टिपात करके विमल-बसद्दी मंदिर
को प्रधान पद देता हूं। क्योंकि लूण-बसहि में खुदाई की
ख्मता व सुन्दरता अधिक दई । जब कि विमल-बसहि में
इसके उपरान्त मनुष्य जीवन से संबंध रखने वाले अनेक
अर्ुगों की नकशी व खुदाई अधिक है
(११६ )
:.. इस लूण-वसही मंदिर को बनाने वाला शोभनदेव
नाप्तक मिस्धी-कारीगर था। इस मंदिर की प्रशस्ति के बड़े
शिलालेख के निकट के दूसरे शिलालेख से यह मालूम होता
है कि--मंत्री लेजपाक् ने स्ववुद्धि बल से इस मंदिर की
रचा के लिये तथा वार्षिक पर्वो के दिन पूजा-महोत्सबादि
हमेशा अस्खलित रीति से चालू रहे, इसके लिये उत्तम
व्यवस्था की थी । जसे--
(१) मंत्री मछद्वेव, (२) मंत्री वस्तुपाल, (३) मंत्री
तेजपाल और (४) लावण्यसिंह का मौसाल पत्त
लिवश्यसिंह के मामा चन्द्रावति निवासी (१) खिम्ब-
सिंह, (२) प्माम्यसिंह और (३) ऊदल तथा लूणसिंह,
जगसिद, रक्षसिंह आदि] और इन चारों की संतान परंपरा
की। हमेशा के लिये इस मंदिर के दृष्टी मुकरर किया, ताकि
थे तथा उनकी संतान परंपरा इस मंदिर की सब प्रकार की
देख रेख रक््खें ओर ख्नात्र-पूजादि काये हमेशा करें-करावें
और जारी रक़्खें ।
इस मंदिर की सालगिरह ( बपेगांठ) के प्रसंग पर
अट्टडाई महोत्सव और श्री नेमिनाथ भगवान् के पोंचो कल्या-
शक के दिनों में पूजा महोत्सवादि हमेशा होते रहें, इसकेः
लिये इस प्रकार की व्यवा की--
( १२० )
चन्द्रावती, उवरणी तथा छ्िसरठली गांव के जैन
मंदिरों के सभी दुष्टी और समस्त महाजन लोगों को
सालगिरद निमिच अट्टाई महोत्सव के प्रथम दिन-चैत्र
कृष्ण २ के दिन महोत्सव करना चेत्र रृप्ण ४ के दिन
सक्ाासहद गांव के आवकों को, चत्र कृष्ण ५ के दिन
ब्नह्माण्य गांव के भ्रावकों को, चेत्र कृप्ण ६ के दिन घठली
गाँव के आवक्ों को, चत्र कृष्ण ७ के दिन सुंडस्थल
महातीर्ष के भातकों को, चैत्र कृष्ण ८ के दिन हंडाउद्रा
सथा डवाशी गांग के शावकों को, चेत्र कृष्ण £ के दिन
मसडाहछ गांव के आबकों को, और चेत्र कृष्ण १० के
दिन साहिलवाड़ा गांव के थ्रावकों को प्रति वर्ष महोत्सव
करना वथा श्री नेमिनाथ भ० के पांचों कल्याणक के दिन
देठलवाड़ा गांव के आावकों को हमेशा महोत्सव करना ।
इस प्रसंग पर चंद्रावती के परमार राजा सोमसिंह
ने पूजा आददे खर्च फे लिये टवाणी नामक ग्राम थ्री
नेमिनाथ भगवान् को ध्रपण किया तथा इस दान को
इमेशा मंजूर रखने के लिये आगामी परमार रामाझों
को उन्होंने विनयपूवक फरमान किया था ।
ई यह गाँव पीछे से सिरोह्टी राग्प ने अपने घापिझार में झ्ल दिया हैं ।
( १२१ )
प्रतिष्ठा उत्तव के समय लूण-वसहि मंदिर के रंग
ऑँडप में बैठ कर चंद्रावती के अधिपति राजकुल श्री
सोमसिंह, उनका राजकुमार कान्हड् ( ऋष्णराज ) आदि
नऋुमार, राज्य के समस्त अधिकारी, चंद्रावती के स्थानप्दि
अद्गारकादि, गूगुली ब्राह्यण,/ समस्त महाजन तथा
ध्वुंदाचल के अचलेश्वर, वशिष्ठ, देठलवाड़ा ग्राम, श्री
ओऔमाता महदु ग्राम, आाधुय ग्राम) ओरासा ग्राम,
उत्तर भराम, सिहर ग्राम) सांल ग्राम, हेठठंजी ग्राम,
ध्याग्वी आम, श्रीघांधलेश्वर देवीय कोटडी आम आदि
आमों में निवास करने वाले स्थानपति, तपोधन, गूगुली
ब्राह्मण, राठिय आदि समस्त लोगों तथा भालि, भाड़ा
आदि णांवों के रहने वाले प्रतिहार वंश के सब राजपूत
आदि समस्त लोगों के समक्त यह सब व्यवस्था की गई थी।
इस सभा में सम्मिलित उपयुक्त समस्त समासदों ने
अपनी राजी खुशी से भगवान् के समज्ष मंत्री तेजपाल
से, इस मंदिर की सब तरह सार संभाल रच्षादि करने का
काय अपन सिर पर लिया था।
इस प्रकार महामात्य तेजणल ने ऐसा श्रेष्ठ मंदिर
चनवाकर व उसकी सार-संभाल-रचादि के लिये उपयुक्ष
( श्श२ )
कृथनानुसार उचम व्यवस्था करके अपनी आत्मा को कृतार्थ
बनाया।
मंदिर का भंग व जीर्णोड्धार--- विमलवतदि
के चणेन ( एृ० ३६ और उसके नीचे के नोट ) के अछु-
सार चिमलघसहि मंदिर के भंग के साथ छसलमान बादशाह
के सैन्य ने वि० सं० १३६८ के लगभग इस मंदिर के मी
मूल गंभारा और शूढ मंडप का नाश किया था और अन्य
भी कृतिपय भागों को लुकसान पहुंचाया था |
इसके बाद व्यवहारी ( व्यापारी ) चंडसिंह का पुत्र
आमान् संघपति पेथड़ संघ लेकर यहां यात्रा करने को
आया | उस समय उसने अपने द्रव्य से इस मंदिर का
वि० सं० १३७८ में जीणेडद्धार कराया अथीत् नष्ट हुवे
भाग को फ़िर से चनवाया और श्री नेमिनाथ भगवान् की
नई मूर्ति धनवाकर उसकी अविष्ठा कराई |
मूत्ति संख्या ओर विशेष हकीकत--
मूल गंमारे में मूलनायक ओ नेमिनाय मगवान् की
श्याम वर्ण की परिकर युक्त सुन्दर मूर्सि १, पंचतीर्थी के:
08) (550 पे
“९४ ) ६ .३. 5 पल रस अर ।
क्र
| ६ पं
४ 3८ का कर सलस्ला जन ऑफ पथ प्र, के 2-2...
खुणु-चसहि मलनायऊ श्रीनसिनाथ भगवान
( १२३ )
परिकर वाली मूर्ति १३ व परिकर रहित सूत्तियां २,
प्रकार कुल मूर्त्तियां ४ हैं ।
गूह संठप में श्री पाश्चेनाथ भगवान् की अत्यन्त
श्मणीय, खड़ी, बड़ी ओर मनोहर मूत्तियों (काउस्सगिगये) २
हैं, ( ये दोनों काउस्सगिगिये, विमस वस॒हि के गृह मंडप
के काउस्सग्गियों फे लगभग समान आकृति के ही हैं ।
उसमें जो बड़ा काउस्सग्गिया है, उस पर लेख नहीं है | छोटे
काउस्सग्गिये पर वि० सं० १३८६ का लेख है, जिससे प्रतीत
होता है कि-सुंडरथलल महातीथे के श्री महावीर चैत्य में
कोरंटक गच्छ के नवाचाय्ये सेतानीय मह धांघल (घांधल
मंत्री) ने यह जिनयुग्म कराया । इस काउस्सग्गिया के सदश+
उपयुक्त लेख के सम्मान लेख से युक्ृ, एक कएउस्सगिगया
ऊपर की सब से ऊंची देहरी में हे )। परिकर वाली
भार्ति ३, बिना परिकर की सूत्ति १६, चोबीसी के पद्ध
से जुदी हुई भगवान् की छोटी मूत्ति २, घातु की पंच-
तीयी २, धातु की एकतीर्थी ३, भव्य मूत्ति पइक १,
है. इसमें मूल गंभारे, देहरिया और आले मै इससे सूल गेभारे, देहरिया भर आले पयरढ के सिफे मूजनायक
भगवान का है। नामोहेख किया गया है। सूलनायक भगवान के झतिरिक्त
(सिवाय) मूर्तियों, चौदिस तोर्थकरों में से किसी भी दोदकर सगवान झो-
है, ऐसा समकना आहिये।
( १२४ )
“ जिसके मध्य में राजीमती (राजुल) की खड़ी भूतति
है, नीचे दोनों तरफ़ दो सल्षियों की छोटी मूर्तियां बनी
“हैं, ऊपर भगवान् की एक मूर्चि है। इस मूर्ति पहक
के नीचे के भाग पर वि० सं० १४१५ का लेख है), और
श्यामबर्ण, एक मुख, दो नेत्र, (१) बरदान। (२) आअहुश,
(३ पा न्न्न्, (४) अकुश युक्त चार झुजा तथा हस्वि
-के!वाहन वाले यक्ष की मूर्ति १ हैं। (इस मूर्चि के नीचे एक
छोटा लेस है, किन्तु उसमें यत्त के नाम का उल्लेख नहीं
'है। यह मूर्चि औ अमभिनन्दन भगवान् के शासन रक्षक
खंश्वएं यत्ष की अथवा श्री सुपार्थनाथ भगवान् के शासन
“रक्षक मांग! यक्ष की होनी चाहिये) |
नवचौकी में अपने वाम हाथ की तरफ के ताखर में
-मूलनायक श्री ( अजितवाथ ) संभवनाथ भगवान् की
“घंचतीर्थी के परिकर वाली मूत्ति १ और दाहिने द्वाथ
की तरफ के ताख में मृलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान्
की पंचतीर्थी के परिकर वाली मूर्ति १ है ।
झ् इसके पास में ही दाहिने हाथ की वरफ के एक ओोर-
के बढ़ें खचक ( ताख ) में भूत। भविष्य, वर्तमान इन
“तीनों कालों की तीन चीबीसियों के ७२ भगवानों का एक
चड़ा पट्ट ईं। इसमें मूलनायकजी की मूर्ति परिकर बाली
लूण वसदि, यूढ सडप स्थित--राजिमती को
0.4 ॥एल्क 3: १ मर 22 क्रो मूत्ति,
स्य्प्पश्फायव # 6
कडेडे ४४ ॥५ 2]॥६ ४2805 2(॥& ॥४|20॥ ५2॥॥2॥:-)४१२
शा
+ने.
0.
ध
3
( १२४५ )
है। इसी पट के नीचे के भाग में पड्ठ चनवाने वाले आवकः
“सोनी विधा” और दूसरी ओर इसकी ख्ी आविका 'संघ-
वरणि चंपाई' की सूर्तियाँ हैं। पद्ठ के ऊपर के भाग में:
दोनों तरफ एक एक आविका की सूर्तियाँ चनी हुई हैं । उस
पर नामेल्लेख नहीं दै। परन्तु सम्भव है कि-बे दोनों-
भूर्तियाँ भी उन्हीं के छुडम्त की स्त्रियों या पुत्रियों की होंगी।
यह पट्ट १६ वीं श॒ताब्दि में मांडबंगढ़ निवासी ओसवाल
जातीय शआविका चपा बाई के बनवाने का उस पर लेख है ।
देहरी नं० १ में मूलनायक श्री वास॒ज्य भगवान्,
की परिकरवाल्ी सू्ति १५ परिकर रहित मूर्तियाँ २, छल
मूर्तियाँ ३ है ।
देहरी दि ०२ मे मूलनायक श्री ००० ५००० ०००० की परिकर
वाली मूर्ति १ है।
दहरी ने० हु मे मूलनायक श्री“ ““की परिकर
युक्क मूर्ति १ है।
देहदरी नं० ४ में मूलनायक् भरी अनंतनाथ भगवान्:
की परिकर बाली मूर्चि १ है। |
देहरी ने० ४ में मूलनायक श्री शाश्वता चंद्रानन भग--
कन् की परिकर वाली मूर्ति १ है ।
(१३६)
देहरी नं० ६ में मूलनायक श्री नेमिनार्थजी की परिकर
'चाली मूर्सि १ और चौत्ीसी का सुन्दर पट्ट १ है। जिसमें
मूलनायक की सूर्चि परिकर वाली है। इस पट्ट पर लेख है।
देहरी नं० ७ में मूलनायक श्री संभवनाथ भगवान्
-की परिकर चाली मूर्चि १ है।
देहरी नं० « में मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान्
की परिकर वाली मूत्ति ! है ।
देहरी ने० ६ में सूलनायक भरी नेमिनाथ भगवान्
की परिकर युक्त मूर्ति १ ओर परिकर रहित मूर्चियाँ २,
'झुल भूर्चियाँ ३ हैं।
,.. देहरी ने» १० में धूलनायक श्री ( पार्शनाथ ) पार्थ-
“नाथ भगवान् की परिकर सद्दित मूर्ति १ है।
देहरी नं० ११ में मूलनायक श्री मद्गावीर स्वामी की
परिकर वाली मूर्ति १ और परिकर रदित मूर्चियाँ ३,
कुल मूर्तियों ४ हैं ।
देहरी न॑० १२ में भूलनायक भी“ ““““की परि-
कर युक्त मूर्सि १, भगवान् की चौबीसी का पड £ झौर
पमिन-माता की चौबीसी का पइ्ट | हैं।
( १२७ )
देहरी न॑० १३ में मूलनायक श्री ( नेमिनाय ) शान्ति
नाथ भगवान् की परिकर वाली भूचि १ है तथा पास की
दीवाल के ताख में श्रावक श्राविका की खंडित मूत्तियों
के युग्म ( जोड़ी ) ३ हैं [। उन पर नाम या लेख नहीं हैं।
देहरी नं० १४ में मूलनायक श्री ( शान्तिनाथ )
सुपार्थनाथ भगवान् की पारिकर वाली मूर्ति १ है।
देहरी नं० १५ में मूलनायक श्री ( ओदिनाथ )
आान्तिनाथ मगवान् की परिकर वाली मूर्ति १ है।
देहरी नं० १६ में मूलनायक भ्री ( संभवनाथ ) चंद्र-
अभ भगवान् की परिकर वाली मूर्ति १ है।
देहरी नं० १७ में मूलनायक और” हप० की परि-
कर पाली मूर्चि १ है ।
देहरी नं० १८ में भूलनायक श्री नेमिनाय भगवान्
की परिकर बाली मूर्ति १ है। ( देहरी नं० १७-१८
दोनों साथ में हैं । )
देहरी नं० १६ ( गम्भारे ) में मूलनायक ओऔ ( मुनि-
: सुब्रत ) सुनिसुब्रत स्वामी की परिकर वाली मूर्ति, १ है।
पाउ में पंचतीर्थी ओर फ़ेन वाले परिकर में चार तीये हैं ।
- | इन खणिदत सूरत्तियों की मरम्मत गतदप में हुई है
( शर८ )
इसमें मूलनायकजी की जगह खाली है। तथा दाहिनी
ओर की दीवाल में एक सुंदर पट्ट है। जिसमे 'अम्वाव८
खोध ओर समली विहार! तीर्थ का दृश्य है 4 | इस पड में
» ई केवछल्ञान भ्राप्ति के बादु बीसर्वे तीय॑छर ओऔ मुनिसुच्रत
स्वामी भव्य प्राणियों को प्रावियोध करते हुए श्थ्वीततल पर विचरते
थे। एक समय मंगवान् को केवलज्ञान से यह छात छुशा क्वि--मेरे
उपदेश से भरोंच नगर के एक अश्व को कल श्रतिवोध दोगा।
देसा देखकर प्रतिष्ठानपुर से विहार करछे एक हो दिन में २४०
कोंस चलकर लाॉट देश में नंमेंदा नद्दी के किनारे भृगुफच्छ
६ भरोंच ) बन्दर के बादर कोरंट बन में जा विराजमान हुएं। इस
समय इस्र नगर के राजा जितशहु ने अध्मेघ यज्ञ प्रारस्म किया था।
डिसमें उसने खुद के जातिदंत घोड़े का होम देने का निश्चय दिय्रा भा 8
और इसीलिये नियमानुसार उस घोड़े को कुछ समय से स्वेच्छाचारी
वा दिया था। यहा श्री मुनिधुत्तत स्वामी समवसरण में बैठकर देशना
देने लगें। राजा प्रजा सभी इस देसना का छाम लेने को ,आये। रप्तक
शुरुषों के साथ वह स्वेच्छाचारी घोड़ा भी झा पहुंचा । मगवाद के झप्रतिम
झूपष को देखकर घोड़ा स्तः्घ दो गया और उपदेश शवण्य करने छगाव
अगयाद दे उपदेश में अपना और उस घोड़े का पूत्र भव भो कद धुनाया।
थोड़े को अपना पे भव सुनने से जातिस्मरय छान हुआ । जिससे उसने
जद पूर्वक समकित युक्त श्रावक घ॒र्मे अद्वीझार दिया भोर सबित्त ( सीद-
युक्त ) आद्यार-पानी नहीं लेने का प्रत प्रदण क्रिया--निर्मीव झ्राइार-पानी
डो लेना, ऐसा संशदप झकिया। उस समय भगवान् के यणधर-मुण्य
सशिप्य ने भगवान् से प्रश्न किया कि--' हे मगवन् ! आज भापके उपदेश से
उस किस फो धर्म शाप्ति हुईं? सगवान् ने उत्तर दिया कि गितरादु
लूण-बस हि, देहरी १६--अश्वावबांध व समली विहार हर
9 3. शाश्क्क #
थे का द््य
€ दु२६ 3)
सीचे के खेड में एक बड़ा वृत्तः हे / उस-पर एक समली
राजा के घोड़े के उपरान्त फिसी को भी दतन घर्म प्राप्ति गधटी हुई।7?
यह बात सुनकर मितशय्ु अध्यम्त प्रसद् हुआ और उस घोड़े को यायजोय
स्वेष्दानुसार अमण करने के किये छोड़ दिपा। समस्त प्जावयग ने घोड़े
की भरशंसा दी। घोदे ने छः सास तक भ्रावक धर्म फा पाक्षन किया।
पद्मात् नश्वर देंए को प्याग कर सौधर्म देवजोक में सौधर्मावर्तंसक विमागे
में-मइर्दिक देव हुघा। पदां उसने घवरधि ज्ञान फे उपयोग से स्थपूर्य
मय फा परिज्लान किया) तस्कारा उसी समवसरण के स्थान में शाकर
'झुन्दर भौर पिशाद मन्दिर बनाया। इस सान्दिर में मुनिमुप्रत स्वामी
की तथा खुद फौ-अखभव की सूर्सि की स्थापना की । उसी समय से
थए स्पान ' अशभ्यायवोध दीर्थ ' के नाम से प्रष्योत हुआ । इस विपय मे
अविशेष ज्ञान प्राप्त करने पी इच्चा रफने वाले गिछ्ासु 'त्रिप्टि शदाया
झुरुष चरिण,! पर्य ६, सर्ये ७; 'स्थाद्याद रत्लाढरः का प्रथम पत्र और श्रौ
जिन॑प्रभम्रि कृत ' तीर्थरुदप ? से ' अश्चावद्रोधकरप * देखें ।
4 स्पाह्माइरक्षाकर ? के प्रथम पत्र मे यट छोक है;--
एकस्यापि तुरशरूस्य क्मपि झा्योपकारं सुर- ,
श्रोश्चिमिः सद्द पष्टियोजनमितामाक्रम्य यः काश्यपीम्
चाराम समवासरद भुशुपुरस्यशानादुइमणडन
स भ्रीमान् सयि सुन्नतः प्रकुरतां कारण्यसान्दे दशो ॥ २७
रे हि के डः
रॉ
५
सिदलद्वीप के रत्लाशय नामक देश के ओपुर नामक नगर मे
राजा चन्द्रगृप्त राज्य करता था। चनच्द्रलेंखा उसकी रू थी / सात युत्रा
के उपरान्त, नरदुत्ता देदी की आराधना से उसको झुदशेना नाम की घुच्रो
हुई । यह उत्तम रूप और गुर्णो से युक् भी । समस्त विचाओं और कलान
६
( १३७ )
€ शकुनिका ) भैटी दै। उसकी एक तरफ से एक शिकारी
का अभ्यास करके वह युदावस्था को भ्राप्त हुईं । पुर दिन सभा में सुद-
आया, भपने पिता की गोद में बेदी थी। उस समय धमेश्वर नामक! एक
अयापारी भरोच से जलूमारों द्वारा हां झाया। दब्य से परिपूर्ण पुछे
“थाद राजा के आगे मेट रसकर वह सभा में बैठ गया। उस समय किसी
कारणवश आतितीध्र गंध झाने से व्यापारी को स्लींक ग्राई। उस सम्रय
उसने 'नमों झरिहृतार् का उच्चारण (रिया । इस पद के अ्रवणमात्र से
“शानकुतारी शुदरंना मूर्छित हुई | इस घटना से ्यापारी पर मार की प्रो
हुईट। शीतल उपचार्रों द्वारा सुदशना स्वस्थ हुई भौर उसको जातिस्मरव्य
जवान आस हुआ । घनेश्वर स्यापारी को अपना धर्म यंघु समर कर उसने
उसको मुक्त कराया। मूच्छी का हेठ पुदते पर सुदरोना ले राजा को कंष्टा---
चनेश्वर शेठ के उद्यारण किया हुआ “नमो झारिद्दताणं' पह मंत्र पद मेने पछिन्े
स्कई सुना है, ऐसा विचार करते ३ सुर मूथी भाई भौर उसमें मैंने मेरा पूर्व
आअव देखा, जैसा कि--'मैं दूरवे मद में भरोंच नगर में, भमंदा नदी के किनारे,
कोरंट घन में घट पदक ऊपर शझ्निका थी | युक्त समय चातुर्मास में सात दिन
शक खगातार महांरेटटि हुईं। भादवे दिन चुधाते में नंगर में आद्ार की शोध मे
चूम रद्दो थी। मेरी दृष्टि पुू शिकारी के चांगन में पढ़े हुए मांस पर पड़ी ।
के मांस उठारुर झे चत्नी और उस बट वृक्त पर जा बैठी । क्रोधांदुर होडर
झैरा पीछा करने पाल्ले उस शिकारी ने चाय से मुझे विधा । शिकारी मेरे
झुष्त से पिरे हुए मांस के टुकड़े को शौर झपने दाय्य को लेकर चला यया।
झेम्घढ़ पर से नीचे गिर कर पेदना से ऊंइन कर रही धी, उप समय मेरी घट
हू.खी अदस्पा दो मुनितानों ने देखी। उन्दोाने अपने जलपात्र से मेरे पर जब
ब्य सिंचत किया और नवकार मंत्र सुदाया। उसको मैंते श्रद्धा पूर्देक
अवश्य छिया। वहाँ से मरकर सुनिराजों रे सुनाये हुए नयकार संत्र के म्माप
मे मे हस्दारे यश पुरी झप उत्पः हुई ।7 त्लद्ांद सुइर्धंगा को संसार
( १३१ )
बाण मार रहा है। बाण के छगने से शकुनिका नीचे
रजनी जनम कमर जनम मर कजाद.ह जी 25 मम मनकिनी की तभी 2 मल मी उईन 2 मल मल की: > जब आम आह जी अप लानत कक
के प्रति झराये उत्पन्न हुई | माता पिता मे उसको पाणिप्रद्टय करने के
पक्षेये बहुतित समझाया, परन्तु सारा प्रवत्न निष्फत हुआ । पुष्री की
त्कर इच्छा थी सरोच ज्ञाने की, मिससे राजा ने उपयुफ़ घनेश्वर व्यापारी
के साथ सुदर्शना को धन, धास्प, पखस्र, सेनिकादि से परिपूर्ण सात सो
,जद्दाज देकर बिंदु क्िया। क्रमशः भरोंच के राजा फो झपने चर पुरुषा द्वारा,
नन्य साद्षित इतने शद्दान्ों के भागमन की यात ज्ञात हुई निससे उसको
कल्पना हुई कि सिंहलेश्वर मेरे नगर पर भाक्रमण करने को झाता है ।
और पेसा समम्घ्कर उससे अपने सैस्य को तेयार भी फैया। परन्तु नगर
जनों के पोभ को मिटाने क्षे किये धनेश्वर सेठ पद्विले ही से भेर>उपदारादि
खेकर शीघ्र ही राजा के पास पहुंचा चर लिंदल द्वीप की राजकुमारी
के झागमन की सूचना की । सय लोगों के दिखयों में शान्ति हुई । राज
सवर्य छद्दाई फी तैयारियां बंद करके राजकुमारी के स्वागत के लिये बंदर
पर पहुंचा। राजपुश्ती ले भी जद्वाज से नौचे उतर कर राजा का उपहार-
सेट आादि से यथायोग्प आदर-सत्कार किया। राजा ने उसका घूम धाम
भूवे नगर प्रवेश कराया ओर रहने के लिये एक मद्दल दिया। पश्चात्,
खुदर्सना झोरंट दन में गई बढ़ा भश्वादब्रोध तीये एुवे स्वउ युस्थान देखा
पर उपवास पूर्वेक उसने मुनिसुश्मत स्वामी की भाव-भक्नि से पूजा की $
हुछ समय के बाद उस रशभपुत्री को अर स््स(त् पु साथु महाराज, जिन्होंने
शकुनिका के भव में नवकार मंत्र सुनायः था, के दर्शन हुए । भक्ति पूरक
उसने दंदना छी। ज्ञानी मुनिरान ने शकुनिस्य का जीव जानकर दानादि
चार्मिक कृत्य करने का उसझे उपदेश देकर साम्पकुत्य में द॒इ खिया। सुदर्शवा
ने भपने हब्य से भधावयोध तय का उद्दार क्िया। तथा चौबीस सम-
खाब् की चोदीस देदरियां, झोपधाजय, दानशालाएं पाठशालाएँ पौरद
(7६३२)
लिमीन पर-गिर कर तड़फड़ाती हुँडे मरने की तैयारी में है।
उसके पास दो साधु-झ्ुनिराजां खड़े हैं और थे उस
*बहुव से धरम स्थान कराये, इस प्रकार अपना दब्य सप्त क्षय में ( धर्स
'कें सात स्थानों में ) लगा कर अन्त में अवरान ( भौजनादि का त्याग )
।करके रु पाकर देव लोक में गई। उस समय से घह अभ्वानयोध तीर्थ
समली पिदार तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध डुच्म । कुमारपाल राज के
'मंत्री उद्यन के पुर्व चाहड़ देय ( वागुमट ) ने शर्चुजय के सुट्प
मंदिर का जीणोंदार कराया, ड॑ंस समय चाहडू के छोटे भाई अंबड़
४६ आम्रमट ) ने अपने गीता की स्केति के उपलत्त में पुण्याध इस
शकुनिका पजिद्वाई मंदिर का जीणेडार कराया । घ्रतिड्टा के समय ध्वजेन
दंड चढ़ाने के लिये प्रासाद शिप्र पर चढते समय मिथ्याइ्टि संछदेवी मे
अड़ा उद्धव किया, तिसको भी देमचदाचार्य ने स्वविद्यायल्न से दूर किया +
"विशेष जानने के किये श्री सियमभस्यारिं कृत 'तीर्थ कंल्यों में 'भ्श्वावधोध
फह्प! बगेरद देसना चाहेये। | 7
** इस द्श्य में घोड़े के प्रास एक झादमसो सड़ा दे । समय है वद घोढ़े
'छ्वा धंगरक्षक हो अधवा घोड़े का यीव देव हुआ है, बढ़ हो । मंदिर की शछ
और एक धुरप और दूसरी शोर एक खो की आकृति खुदी हुई है। घढ
मअरॉच का शतजा और सुदर्शनां रासयुप्री दोनें को, तथा नीच बरत्त और
अस्प्लुद के पास पक पुरप और एक ख्रो दें वे दोनों इस पट के बनवाने
चात्षे घादरू ध्ाविद्य हाने की संभावना दो सफ्ती है
उै उनमें से मुख्य साधु ( मुनिरात ) के एक द्वाय में ुँदप्रचि भर
दूसरे द्वाप में बिना शिएर वा सादा दडा है | दूसरे साधु के एक द्वाथ में
चैसा ही देंदा और दूसरे द्वाय में तरपणी है। दोनों यो यांयी थगल में
कआरघा ( रजोइरण ) है और पांदी के नीचे तक कपड़ा पएदना शुधा दैं।
( १३३ )
वचेड़िया-समली को नवकार मंत्र सुना रदे हें! ऊपर,फे संड़ में
आंयी तरफ एक छत्नी के नीचे सिहलद्ीप का चंद्रग॒प्त
राज़ा गौद में अपनी पुत्री खुदशनर को,लेकर बंठा हं।
उसके पास 'मरॉच निवासी घनेस्चर सेठ हाथ जोड़ कर
खड़ा है। सेठ के पास खड़े हुए आदमी, के हाथ में राजा को
भेट्र करने के लिये द्रव्पपूण थाल दे राजा के पदिले खड़ें
हुए अंगरक्षक के ठेढे हाथ में सुंदर वेग-सैली लटक रही है ।
, नीचे'के खंड में वक्त के पास समुद्र है । जिसमें एक
बड़ा जह्यम है। उस जद्याज़ में राजपुत्री रुद्शना सहिस
चार द्वलियों बंटी हैं ओर एक ख्री, सुदशना के सिर पर छत्र
चर कर सड़ी हैं । वही जहाज, समुद्र से ।मिली हुई नमेदा
नदी में होकर भरोंच के बाहर के कोरंट नामक उद्याना:
ज्तगत श्री मुनिसुब्रतस्वामी के मंदिर की ओर, जाता है।
समुद्र में मछालियां, मगरमच्छ, सपे और कछुये आदि हैं।
ऊपर के खण्ड के मध्य भाग में ्रीपुनिसु्रत स्वामी का
शक मंदिर है। इस संदिर के बाहर बांपी तरझ एक श्ावक दाथु
जोड़ कर सड़ा ह ओर दाहिने हाथ की तरफ एक भ्राविका
चूजा की सामग्री हाथ में लेकर खड़ी है। मंदिर के ऊपर के
आग में ढोनों तरुक दो आदमी पुष्पमाज लेकर बैंढे हैं.।
( १३४ )
मंदिर के पास चरण-पादुका सहित एक देहरी है। जिसके पास
एक मलुंप्य खाली घोड़ा लिये खड़ा है। समुद्र तथा इच्त
के पाश्न एक आवक व एक आऋतिका हाथ जोड़ कर
शड़े हैं। इस पट्ट को ध्मारासणाकर वासी पोरबाड़ ध्यास-
चाल ने वि० सं० १३३८ में बनवाया । ऐसा उस पर
लेख था, लकिन अब यह लेख देखने में नहीं झाता है |
देहरी नं० २० में मूलनायक औी आदिनाथ भगवान्
की पारिकर वाली मूत्ति १ ओर बिना परिकर वाली मार्चे १,
कुल मूर्तियों २ हैं |
देहरी नं० २१ में सूलनायक श्री आदिनाथ भगवान्
की परिफर पाली मूर्ति १ है। ( देहरी नं० २० व २६१
दोनों मिली हुई हैं । ) *
देहरी नं० २२ में मूलनायक श्री (नेमिनाय) वासु-
पूज्य मगवान् की परिकर सुक्त सूचि १ और बाम ओर
परिकर युक्व भूर्ति १, छुल मूर्तियाँ २ हैं। दादिनी तरफ
पिंद रहित एक परिकर है । ( इस के बाद एक खाल"
कोठड़ी है | )
देहरी न॑० २३ में मूलनायक श्री (नेमिनाथ) “४”
की सर्पफणायुक्त पुराने पारेकर वाली मूचि १ और वबाजू
[ गाह्ड्् मर [ |
(8 6/८६४%;
चलद्दि की दृस्तिशाला में, इयाम वण के तान चनुमुंख (चौमुसनी) का दृश्य
( १३५ )
परादे परिकर घाली मूर्तियों २; कुल मूर्तियां हे हैं। एक
परिकर का आधा भाग खाली है | इसमें दिंव नहीं है ।
देरी नं० २४ अम्बानीकी है। इसमें अंत्रिकादेवी
की एक सुंदर बड़ी भूर्ति $ है। इसके ऊपरी हिस्से में भग-
चान् की एक मूर्ति खुदी दे। अंबाजी के ऊपर के आम्र-
चूत के परिकर में भी भगयान् की एक मूर्चि खुदी है ।
इस मूर्ति पर लेस नहीं है ।
देहरी नं० २४ में मुलनायक श्रीनमिनाथ भगवान् की
परिकर वाली मूर्चि १ है। (नं० २३-२४-२५ वाली तीनों
देदरियों मिली हुई हैं। ) इसके बाद लूणबसहि की इस्ति-
शाला है।
ह/<7<<+<:६८१८९:५८+<:-<+ल
९ हस्तिशाला /
प्ै+7८2047722०+2१:2+:>
इस्तिशाला के बीच के सेड में मूलनायक भ्री आदी-
खर भगवान् फी परिकर थाली एक भव्य बड़ी मूर्ति
विराजमान है। इस मूर्चि के सामने श्याम बण के संगमरमर
में अथवा कसौटी के पत्थर में मनोहर नकशी युक्त मेरुपपैत
की रचना की तरह तीन मंजिल के चौमुसजी हैं। इन
तीनों मंजिलों में उसी पापाण के श्यामदर्ण के चौमुसजी
दैं। पहली मंजिल में चार काउस्समिये हैं। दूसरी व
६ १३६ )
तीमरी मंजिल: में भगवान की थआाठ मूर्तियां हैं। ये सभी
मूर्तियां परिकरवाली हैं। मे
. , भत्तिम संड में ( दीवाल के पास ) दोनों ओर परि-
कर वाली भगयान् को एक २ सूर्ति € और एफ मूर्चि
का पवासन खाली है।._ हि
हस्तविशाला के अन्दर उस चौमुसजी के दोनों तरफ
के पाँच पांच संडों में मिलकर सफेद संगमरमर के रसणौय:
डेतृशल, भूल, पूलकी और अनेक आभूपयों से सज्ित
१० बडे हाथी बने -हैं | उन हाथियों पर इस समय किसी
की भी मूर्ति नहीं है । परन्तु प्रत्येक हाथी के पीछे दीयाल
के पास इस क्रमानुसार बड़ी २ सड़ी मूर्चियां हैं--
| इन दर्शो हाथियों छो पालकिया # बेटी हुई एक एक थ्यवक की
झआर्ति, इन नू्तियों के आगे एक एक महादत की चैठी मूर्ति घ पीछे बैठे हुए
चुझ एक छु्रधर की इस प्रकार एक एक हाथी पर ततौन २ सूर्षिया थीं?
ऋ्थेक हाथी के नीच उन छोगों का नाम सुरा है, जिनके ।मिमिद से इन
ड्वाधियों का निर्मा्य हुआ हैे। संभव दे कि पिस रूमय गुसत्षमान घादशाइ
के सैन्य ने इन दोनों सेदिरों छा भंग डिया, उस समय इन ट्वायियों पर की
सभी मर्चियोँ सड्ित कर ईद. हों।। हाथियों की घूदू, कान, सूद झांदि सांढित
डुए थे, जो पीपे से नये बनवायें गये हे ऐसा प्रतीत होता दै। मय सीट
- औक शाथी पराविस्ध पुरुष स्थ नाम दे, द्वाथी के पीछे-के झे में रेहो हुई
आबू ०७४८८”
एप
धो (३॥3,॥
मर
का -४८:2
आवू-
( १३७ )
खयह पहिला--
१ गझाचार्य उद्घप्भ! ( आचाये श्री विजयसेनदरि के
न शिप्य ) '
आचान विजयसेन? ( आचाये श्री उदयप्रम के और
मंत्री वस्तुपाल-तेजपाल के गुरु, जिसने
पं इस मंदिर की प्रतिष्ठा कराई थी 2
महं० श्री चडप! ( मंत्री चस्तुपाल तेजपाल के द््दा
के ढादा-पिंताम् के पितामह )
प्री चाँपलदेवी? ( में? चंडप का पत्नी )
खगड दूसरा--
२ “महं० श्री चेडप्रसाद! ( में० चंडप का छत )
२ महें० शी चाँपनदेदी? (मेंण्खा चंडअसाद की पली
खरखड तीसरा-ः
१ महँं० की सोम! ( में? थी चंडग्रर हज )
३ 'महं० ओ सीतादेवी' ( जज पक रूम श्री सीतादेवी? ( में? श्री सोम की पल, )
चट्टी नाम ८ । दुशव खड मे हार्थी पर मे
घुरुप की मुर्जि पर भय
झाावशयसिदह (् तेजपाल-असुपसदेवी के पुश्र) का नाम है, और इसी खंढू
झे पीछे की सूर्ति पर उसके आई मदद सुदडखिह् ( तेजपाल-सुददडादिदो
बल हो सुप्ते दे। हा स्विशाला में गृदरथों की सद सूर्चियों के हाथो में,
8 व9 माज्ाये चंदन की घ्थोरी अरर फलादि पूष्ा की सामग्री है ॥
( श्३ृ८ )
सीतादेवी की मूर्ति के पेर के निकट उसी पत्थर में
शक छोटी मृचि खुदी है, जिसके नीचे 'महँ थ्री आसण
इस प्रकार लिसक हुआ है।
स्वगंड 'चौथा--
१ महं० शी आसराज! (अश्वराज ) (मं० श्री सोम का
पुत्र )
२ “महं० क्री कुमरादेवी? ( कुमारदेबी ) ( मं० भी आस-
राज की पत्नी )
स््॒ण्ड पांचव--
२ “महं० आओ लूय्यगः” (लूणिंग ) ( म॑० श्री अश्वराज का
पुत्र ओर मं० वस्तुपाल-सेजपाल क्या
ज्येष्ठ आता )
२ “महं० भरी लूयादेदी” ( मं० लायिग की पत्नी )
खरड छठपाँ---
२ 'भहं० ञ्री माजदेवः ( मन्नदेव ) ( मं० पस्तुपाल-तेज-
पाल का बड़ा माई )
२ “महं० श्री लीजादेदी? (मं० श्री मन्नदेव की प्रथम पत्नी)
3 सरहूक७ म्पी चसापल्ली (,, # द्वितीय #2'
( १३६ )
स्पड सातवा---
१ 'मेंहँ० भय पस्तुपालः ॥ सत्र वरसाकारि' € महामंत्री
वस्हुएल, में० पग्रश्वराज का प्रत्ध तथा
लूणिग, मद्नदेव ओर तेजपाल का”
भाई। यह सूर्चि सिलाबट वरसा की”
बनाई हुईं है। भूचि के मस्तक पर
छू घना है )
३ 'महं० लजतादेवी' ( में० बस्तुपाल की प्रथम पत्नी »
३ 'महं० वेजलदेबी' ( , # दितीय ५ )”
स्रए्ड आाठवां--
१ 'महं० त्तेजपालः ॥ श्री सत्न चरसाकारित' ( महामंत्री
वस्तुपाल का भाई, यह मूर्ति भी सिला-
बढ बरसा ने ही घनाई है )
२ 'महं० ओऔी अनुपमदेव्या:” (महामंत्री तेजपाल की ख्री) *
सक्एड नववा--
$ सहं० “श्री जितसी/ ( जैत्रसिंह ) ( मं० वस्तुपाल--
ललितादेवी का पुत्र )
३ 'महं० श्री जेतलदे! ( मं० जेत्रसिंह की प्रधम सी )
(१४० ).
ममहँ० क्री ज॑मसादे! ( मं» जैत्नसिद को दूसरों स्वी )
भहूँ० श्री रूपादेँ ( , / 9, वैपरी #!. ),
खगड दसवा-- * की
'महँ०भी छुट्डसीह!' (म० तेंजपाल-सुहृडादेवी का पुत्र)
'महं० श्री सुहडादे! ( मं० सुहडसिंह की प्रधम स्री )
“भहं० श्री सलपणादे( ५, +» द्वितीय, )7
उ अ्रषम खंढ में झाचाये क्री उद्यप्रभसूरिज्ञी की खदीसूर्सि के
दोनों तरफ पैरों के णस साथुओ्रों की दो घोटी खड़ी सूरत्तियाँ खुदी देँ | एक
साधु बगल में भोधा ( रजोददरन ) निये द्वाथ जोड़ कर खड़ा हैँ। दूसरा
साध| दाहिने हाथ में पिवा मोगरे का सादा।दढा और चास द्वाय में ओपा
रक््खे हुए दे और दाहिने दवाथ की धरफ कमर के कंद्रोरे-सेखक्षा में
भुदपत्ती लगा रखी है । ध द
डे 5 0४ १80
उद्यप्रभसरि की झूर्ति के पास धराचार्य श्री िजयसेनसरि
को पद्ी शत क पैर के प्राप्त दोनों तरफ पुक २ छोटी सूर्ति बनो है।
दाहिने पैर छी तरफ द्वाथ जोड़कर खड़े हुए श्रावक की सूर्सि मालूस
दोती दे । बॉन पर की चरंफ साथुन्नी द। इनके शक द्वाथ में ओवा! और
दूसरे द्ाथ में दुढा दे । ह (०
इसी प्रकार दस खडों में रही हुई खड़ी श्ावक धाविकार्थों की बढ़ी
२४९ मूर्तियों के पैरों के पास कुल ४३ घोटो खड्टी ख्ये पुरुष की सूर्चियाँ
आुददी हैं । कई पक सूर्चियों में द्वाथ जोड़े हुए हैं, कई मूर्तियों के हाथों में
-कलरा, फल, चामर, पु्पमाखादि पूरा के योग्य घत्दुएँ है। इन सूर्चियों
मे से मात खीतादेयी की मूर्ति क पेर छे पास घुरुष की एक छोटी
स्मूर्ति पर मदद श्री आसण' लिखा हैं। इस लेप से यह मालुम॑ होता है
५ १४१))
; ” इंस प्रकार हस्तिशाला के थन्द्र परिकर बाले फाउ-
इसग्गिये ४, परिकर थाली मूर्तियों ११५ आचायों को
“ड़ी मूत्तियों २, आ्रावकों की राड्ड्री मूर्तियोँ १०, श्रावि-
“काओं की खड़ी मूर्तियों १५ और सुन्दर हाथी १० हैँ।
इस इस्तिशाला का निर्माण महामंत्री तेजपाल ने, ड्डी
कराया है ।। , |
« देहरी ने० २६ में मूलनायक श्री ( सीमंधर स्वामी )
आदीश्वर भगवान् की परिकर वाली मूथि १ है। 7
देहरी ने० २७ में मूलनायक श्री ( विहरमान युगंधर
“जिन ) श्रीबाहु स्पामी की परिकर वाली मूर्ति १ हे।
देहरी ने० २८ में मूलनायक श्री ( विदरमान बाहु
जिन ) गदवीर स्थामी की परिकर वाली मूर्ति १ है!
कि--मन््त्री सोम-खीतादेची को अभ्वराज (आखराज् ) के भतिरिक्र
एक दूसरा झआासखण नाम का भी युत्र द्वोगा। झथवा आसराज़ व
'खआासशण इन दोने नाम में विशेष अन्तर नहीं होने से आसराज़ का
ही यह सेद्िप्त नाम दो और वह बहुत मानृभक्क या, पेसा सूचित करने के
पलेये माता के चरण के पास्त उसकी सूर्चि बनाई गई हो |
| मन््त्रो चस्तुपाल-तेजपाल भर उनके कुटम्व के लिये ९० १०७ से
8१२ तक, तथा आचायये श्रो विजयसेन सूरि के लिये ए० १३२९
च ११६ देखो।
( १४२ )
देदरी मं० २६ में मूलनायक श्री (विदरमान श्रीसुवाह
पंजिन) शाश्वत श्री ऋषम जिन की परिकर पाली मूर्ति १ है।
देहरी नं० ३० में मूलनायक श्री (शाथत भी ऋषम-
द्वेव मिन ) विदरमान थ्री सुबाहु जिन की परिकर चाली
आूर्चि १ है।
देहरी नं० ३१ में मूलनायक भ्री (शाथव श्री
रवद्धैमान जिन ) शीतसनाथ भगवाद् की परिकर बाली
-मूर्चि १ है। है
देदरी नं० ३२ में भूलनायक श्री ( तीर्थमर [तीथे-
>कर ] देव )““““““““की परिकर वाली सूचि १ है।
(( न॑० ३१-३२ की दोनों देहरियोँ एक साथ हैं )।
देहरी मं० 2३ में मूलनायक श्री ( पार्शवनाथ )
"पाश्वनाथजी की फंणयुक्त परिकर बाली भूदथि १ और
“परिकर रहित मूर्चियोँ २, कुल मूर्चियाँ ३ हैं।
देहरी न॑० ३४ में मूलनायक श्री ( शाश्वत चंद्रानने
< देव ) मह्वीर स्पामी की परिकर वाली मूर्ति १ है।
देहरी नं० ३४ में मूलनायक श्री (शाश्वत श्री
“वारिपेण देव ) भमहादीर स्पामी साहेत परिकर बाली
>मूर्चियों २ हैं। (नं० ३४ और ३४ देहरियाँ एक साथ हैं)।
( ए४३ )
देहरी मे० ३८ में मूलनायक श्री ( आदिनाथ )
च्यादिनाय भगवान् की परिकर वाली मूर्ति १ है। एक
इछ्योटा परिकर खाली दै, उसमें दिंप नहीं है। एक तरफ
श्री पार्थनाथ भगवान् के परिकर के नीचे की गादी के
जायें दवथ की ओर का डुकड़ा है, जिस पर विक्रम सम्बत्
१३८६ का अधूरा लेख है।
देहरी मैं० ३७ में मूलनायक श्री ( अजितनाथ )
अजितनाथ भगवान् की परिकर वाली भूर्ति १ है। एक
“तरफ परिकर के नीचे की गादी का थोड़ा भाग है।
“जिस पर संबत् बिना का श्रुटित-अधूरा लेख है।
देहरी नं० ३८ में ( पधासय उपर के और देदरी
की वारसाख पर के लेख, में भूलनायक श्री सेभचनाव,
एक तरफ श्री आदिनाथ और दूसरी तरफ श्री महावीर
“स्वामी, इस प्रकार लिखा है। ) मूलनायक भ्री आदिनाथ
“भगवान् आदि की परिकर पाली समूत्तियाँ ३ हैं।
देहरो नं० ३६ में ( प्रासण ओर देहरी के घारसाल
"पर के लेख में मूलनायक श्री अभिनंदन, एक ओर श्री
'शांदिनाथ और दूसरी तरफ श्री नेमिनाथ, इस अकार नाम
'लिखे हैं।) मूलनायक श्री नेमिनाथ, श्री अजितवाय
आर श्री चंद्रप्रभ स्वामी को परिकर थाली यूर्चियों ३ हैं।
(३४४ )
देदरी ने० ४० में मूलनाथक भ्री ( सुमेतिनाथ »
शाश्वत थ्री चद्मान जिन की परिकर वाली मूत्ति १५
मंचतीर्यी के' परिकर वाली 'मू्ि १ और पंचतीर्थी के
भरिकर बाले मूलनायक्र साहित चोगीसी का पट्ट १ है।
. देहरी नं० ४१ में मूद्ननायक भ्री ( पद्मम्रभ ) महावीर
स्वामी की परिकर वाली मूचि १ है। ४
£ * इन देहरियों के वाद दक्तिण दिशा के दरवाजे, के
'ऊपर का बढ़ा खंड है । जिसमें दो बड़े शिलालेस बाँये
ओर की दीयाल के साथ खड़े किये है। जिसमें एक-
शिला लेस काले पत्थर में ग्रशस्ति को हैव दूसरा
पशिल्ा लेख सफेद पत्थर में है, जिसमें मंद्रि की व्यवस्थादि
का चर्णन है! मंत्री वस्तुपाल-वेजपाल के चरित्र के
अंयंध में व इन मंदिरों के बारे में उपयोगी वस्तुय बतलाने
के लिये साधन रूप ये दोनों शिला लेस, कई णक्
शेतिहासिक पुस्तकों व मासिकपत्र आदि में संस्कृत व यंग्रेजी
लिपि में छप चुके है। इन शिला लेसों के सामने
जिन-माताओं की चौबीसी का एक अधूरा पह है।. *
देहरी न॑० ७२ में मूलनायक श्री ( सुपार्थनाथ )
अद्मग्रम मगवाव् की परिकर वाली मुतत्ते १५ परिकर रहित
सूर्चे १, छुल अतिमायें २ है।
/ १४५१)
४" « देहरी नं० ४३'में भूलनायक ओऔरी““““क्ी परिक्र
वाली मूर्चि १है।' - ५ + ' ३
|. देहरी ने० ४४ में सूलुनायक .भ्री ( सुधिधिनाथ )
सुमतिनाथ भगवान् की परिकर बाली मूर्ति १ और बिना
परिकर की मूर्त्ति १, कुल ग्रेतिमायें २ हैं।
देहरी नं० ४४ में मूलनायक श्री (शीतलनाथ) अर-
नाथ भगवान् की परिकर वाली मूर्ति १ है।
देहरी नं० ४६ में मूलनायक भरी ( श्रेयांसनाथ ) श्री
महावीर स्वामी की परिकर वाली मूच्ि १ है।
देहरी नं० ४७ में मूलनायक औ (वासुपुच्य)० “«
भगवान् की परिकर वाली मूर्त्ति १ है।
देहरी न॑० ४८ में मूलनायक श्री ( विमलनाथ )
“”“““भगवबान् की परिकर बाली मूर्ति १ है।
मूल गेभारे के पीछे (बाहर की तरफ ) तीनों दिशाओं
की दीवारों में एक एक ताख़-आला है। अत्येक झाले में
मंगवान् की एक एक मूर्ति है | उनमें दो मूर्सियां परिकर
वाली है। दाचिय दिशा के ताख में परिकर रहित मूर्ति
है । उत्तर की ओर के ताख की मूर्ति और परिकर ये दोनों
है 4.
( १४६ )
एक हो सादे पत्र में बने हैं। मूर्चि पर चूने फ्ा प्लस्दर
किया गया है । मूर्चि परिकर से अलग नहीं है ।
लूययमही मंदिर के दाकिय दिशा के अवेश द्वार के
चाहर। आदर जाते बांयी तरफ के ताख में श्री अंबिका देवी
की एक मूर्ति हे ओर दादिने तरफ के ताख में यक्ध की
णक मूर्ति है +
इस मंदिर की कुल मूत्तियाँ इस पकार हैं--
(९ १) पंचतीर्थी के परिकर बाली मूर्चियाँ ४
(२) सादे परिकर वाली मूचियाँ ७२
(३ ) परिकर रहित सूर्चियाँ ३०
4 ४ ) काउस्सग्गिये ६
< ४ ) तीन चौपीसियों का पट्ट (नवचोकी वाला ) १
(६ ) एक चौबीसी के पट्ट ३
(७) जिन-माता चौबीसी का पट्ट १ पूरा, १ आधा
(८ ) अश्वावयोध तीर्थ और समली बिद्दार तीथे का
पट्ट (देहरी नें० १६ में)
+ यह १ झुक २ नेत्र और ४ मुज्ा घाजी मूर्त्ति ह। इसके ऊपर के
घुक ट्ाथ में गददा व दूसरे ड्वाय में मुग्दर है । नीचे के दो ह्वायों में रही
हुई वल्तुएँ द वाहन पद्विचान में नहीं झाने से यह मूर्ति किस यछ को दैं,
आलूस नहीं इोसका |
( १४७ )
(६ ) तीने चौस्ुखजी सहित मेरु पर्चंत की रचना १
(१०) चोबीसी में से अलग हुए भगवान् की छोटी
मूत्तियों २ !
(११) धातु की पंचतीर्थियं २
(१२) धातु की एकतीर्थियें ३
(१३) मूलनायकजी रहित चार तीर्थियों का परिकर १
(१४) श्रीराजीमती की मूर्ति १( गूढ़ मंडप में )
(१४१ आचाय्ये महाराज की मूर्ततियाँ २ (हस्तिशाला में)
(१६) श्रावक की मूत्तियाँ १०( #+# )
(१७) श्राविकाओं की मूत्तियों १४६( +»+ )
(१८) श्रावक-श्राविका के युगल ( जोड़े ) हे
(१६) अंबिका देवी की मूर्तियाँ २ ( १ देहरी नं० २४
में ओर १ दरवाजे के बाहर |
(२०) यक्ष की भूचियों २( १ गृह मंडप में व १
दरवाजे के बाहर )
(२१) खाली परिकर २
(२२) सुन्दर नकशी चाले संगमरमर के हाथी १०
भावों की रचना--( १-२ ) लूख बसदि मंदिर
के गृह मंडप के सुख्य द्वार के बाहर ( नव चोकियों में )
"(४८ )
दरवाजे के दोनोंःतरफ अत्यन्त मनोहर व अनुपम नकशी
वाले दो बड़े-गोख़-ताखहैं, जो 'देरानी-जेठानी के गोखले'
इस नाम से मशहूर हैं। परन्तु वास्तव,में थे'ताख देरानी
जेठानी ने नहीं चनवाये हैं | वस्तुपाल' के भाई, इस मंदिर
के निर्माता तेजपाल ने अपनी टदितीय पत्नी सुहड़ादेवी
की स्पाते में ये बनवाये हैं । इनकी प्रतिष्ठा पीछे से वि०
सं० १२६७ के मैसाख सुदि ४ गुरुषार को हुई है। दोनों
शाखों पर लेख है। इन दोनों ताखों में बहुत सक्तम ओर
अपूर्व.नकशी है। जिसमें कहीं २ मगवान्, साधु, मनुष्य)
ओर पशु पाक्षियों की छोटी २ मूर्तियों खुदी हैं । वास्तव में
हिंदुस्थानी प्राचीन शिल्प का एक अलुपम नमूना है।
इन दोनों ताखों के ऊपर लक्ष्मी देवी की एकः २ सुन्दर
सूर्ति बनी दे ।
(३ ) नवचौकी में एक तरफ तीन चौवीपियों का
एक बड़ा पट्ट है। पट्ट वाले ताख के छल्ले पर लच्तमी देवी
की सुन्दर मूर्ति बनी है ।
(४ ) नवचौकी के दाहिनी तरफ के दूसरे (बीच के
शुम्पज में फूल की लाईन के ऊपर की गोल लाईन में
(भगवान् की.एक चोतीसी खुदी हुई है ।
(४,
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लूशवसह्वि. नव चौकी में दाहिनी ओर का गवाज्ञ (आला-ताक )-
छू ३3 एकल डा
(४६४६५)!
“ (५० नवचौकी के दाहिनी ओोर के तीसरे गुम्बज के
बारें 'कोनों'में दोनों तरफ हाथी सहित सुन्दर आकृति
वाली चार देवियों हैं और चारों दिशाओं में प्रत्येक देवी"
के बीच में भगवान् की छः छः सू्तियाँ (अथीत् सब मिल
के, २४ मूर्तियों ).बनी हैं.। :, . 5 «१
(६ ) रंग मंडप के बीच के'बढ़े श॒म्बज में पिमल
वसहि की भांति प्रत्येक स्थैम के सिरे पर भिन्न २ वाहनों
ब शत्रों वाली अत्यन्त रमणीय १६ 4 विद्या देवियों की
खड़ी, सूत्तियों है. «४ हू
घ्या प्ग ०
. (७) उन सोलह विद्यादेवियों के नीचे' की सोलइ'
नाटकनियों की कतार में ही एक पंक्ि में ३ चौबीसियों
अथांत् भगवान् की ७२ मूत्तियाँ खुदी हैं । हि
हरे
( ८ ) इसके नोचे एक .किनारी पर पूरी लाइन में
आचाय महाराज-साधुओं की /६० मूचियों खुदी हैं। , «
( & ) रंगमंडप के बीच चाले घड़े मंडप के पहिले
दो कोनों मेंऊपर सुन्दर आकृति वाली इन्द्रों की मूर्चियोँ
दी हुई मीलूम होती हैं। ' '
मय 287 कम हक मकर तप मद की
३१६ पथिदादेवियों के नाम इस उस्तक, के पृष्ठ, ६४ के नोट में, दोजिये ।.
( १४० )
« (१० ) रंगमंडप के दाहिनी तरफ के सुन्दर नकशी
वाले दो खंगों में भगवान् की चौबीस चौबीस भूत्तियाँ
खुदी हैं ।
(११) संगमंडप और भमती के बीच में, पं्चिम
दिशा की छत के तीन खंडों में से, घीच के खंड के सिवाय,
दोनों खंडों में पश्चिम ओर की लाइनों में बीच बीच में
अंबाजी की एक एक मूर्त्ति खुदी है ।
(१२) रंगमंडप व दाहिनी तरफ की भमती के घीच
में दाहिनी बाजू के पादिले खंड के नकशी वाले पढिले
शुम्बज में श्रीकृष्ण-जन्म का दृश्य दे। तीन यढ़
बारद दरवाजे वाले महल के मध्य भाग में पलंग पर
देवकी माता सो रही है। श्रीकृष्ण का जन्म हुआ है।
बगल में बालक सो रद्या है। एक स्त्री पंखा ऋर रही है
एक दासी पास में बैठी है। सब दरवाजे बंद हैं । तमाम
दरवाजों के पास व तीनों गढ़ों में हाथियों, देवियों, सैनिकों
ओऔर संगीत के थात्र वगेरह सुन्दर रीति से खुदे हैं ।
३ दस पुस्तक के एछ सह से ६० की छोट से दाचक्र सम्रफ गये
इंगे कि--भ्रीकृष्ण के जस्म के समय कंस ने वसुदेव के महत्न पर
अहरां रक़्खा था। इसी कारण से तमाम दरवाजे के दिवाड़ बंद हैं, और
द्श्वाजों के चारों तरफ द्वायी व लैन्यादि दे ।
डे (इनक इस क्र > रेट
जो थक
के हे (मम ६ अशशश्शा पा धर
(६ उका- ६
कर
लूश-चसहि, इश्य--१०, और भीतरी हिस्से की सुंदर, छोरण, का ऋएद,
व. य. #ाहब+क 8]फ९
लूण-चसहि, ध्श्य-१२-
0.7. शक, #3ण९
(१५१ )
(१३) उपयुक्त दृश्य के पास ही) भकशी वाले दूसरे
( बीच के ) गुम्बज के नीचे की लाइनों में दोनों तरफ
प्रत्येक के सामने निम्नालुसार जीकृष्ण-भोकुछ का भाव
है+। (क) उससमें पूर्त तरफ की लाईन के एक कोने के
+ बछुदेव के मदर पर कंस का पहरा होने पर भी देखकी की
आभ्रष्ट युक्त विनति से चखुदेय, कृष्ण को गुप्त रीति से गोकुज खे गये *
हां पर नेंद और उसझी र्वी यशोदा को पुत्र के तीर पर उसका पालन
पोषण करने के लिये घोड़ भाये। नंद व यशोदा के संरषण में, मोकुल
में भीकृष्णु के बात्यकाल को ग्येतीत करने रा यद शरय है। श्रीक्षष्ण
> रो झोकी बंधी दे उस मणड़ के नीचे दो भादमी बेठे हैं। शायद ये नेद्
और यशोदा ही हों अथवा अन्प कोई गो चरामेवाल्ेे दो! पुक घोटा
और पुर बढ़ा पशु पाजर आड़ी और खड़ी कड़ी रकखे हुए खड़े हैं $
थे शायद कृष्ण भौर घलभद (राम ) हों या दूसरे कोई पशु पालक हों ।
परदिज्े वसखुदेव ने सुसाफिरी के वस्द सूपेक नामरू विधाधघर को लड़ाई
में सार डास्षा था, उसका यदला खेने के किये उसकी शकूनी भौर
पूतना नामछ दो पृत्रियोँ, धछुदेय को हानि पहुंचाने में भपमर्थ होने
के कारण गोकुल में भाई ओर भ्रोकृष्णु को मार डालने के किये पुक
के उसे गादी के नोचे दबाया भर वूसरी ने भपने विषल्लिस स्थन को कृष्य
के मुख में रक््खा। ( जैन मान्यतानुसार ) कृष्ण के सहापरू-रचक देवों
ने, ( दिन्दू मान्यतानुसार कृष्ण ने स्वयं ) उस गाड़ी के जरिये दत
दोनों विधाधारियों को मार डाद्धा ।
पुन. किप्तो समय सूर्पेर विधाघर का पुत्र, अपने पिता और दोनों
शट्टिनों का बैर केने के लिये भ्रीकृष्णु को रत्यु शरण करने के देतु योकुल मे
(९४२)
शारंभ में एक दरख्त है। इस इच्त की डाली में बंधी हुई
औओली में श्रीकृष्ण-त्राज़्का सो रहा है। दरख्त केःनीचे
दो आदमी बैठे दैं। पास|में एक छोटा अहीर अपने माथे
के पीछे गरदन पर रक्ख्री हुई आाड़ी लकडी की दोनों हाथों
से पकड़ कर खड़ा है। ऊपर अभराह (ठाँड ) में घी, दूध,
दही की पांच दोनियाँ ( मंठकियां ) हैं। पास में, बड़ा पशु-
पालक-अहीर गांठें युक्त सुन्दर लकडी खडी रखकर उसके
सद्ारे खडा'है। पास में पशु चर रहे है । दो स्रियों छाल
_बना रही हैं। उसके पास देवकी या यशोदा, श्रीकृष्ण व _
आया । चहा पर अजुन नामक दो दृत्तों के धीच में भ्रीकृष्प का लाकर
मार डालने का प्रयक्ष करने लगा । उसी समय (जैन मान्यताजुसार) कृष्ण के
सद्दायक देवों ने, (ददिन्दु मास्यताबुसार स्वय ) उत दोनों वृक्षों को
डस्याद डाल भर उन्हीं बृत्तों द्वारा उस्त विदयाधर को भी यमराज का
अतिथि बना दिया | हु ५
क्रिस्सी समय फेस ने थ्रीकृष्णु को मारने क किये प्मोत्तर नामक
शेठ्ठ हस्ति को श्रीकृष्ण के सामने छोड़ा) द्वाथी टेढा होकर भ्रीकृष्णु
को भारमा चाद्ता दी हैक इतने में कृप्णु ने दतशूज खोंखरर मुह्ठा के
अद्ार से द्वाथी को सार ढाज्ञा । ६ + ॥ «७
इस प्रकार ग्रोकुल, पश्ठ पालक का सकान, पशुभों का चरना और
ऋष्णु की बाक्ष कीढाशों का अत्यन्त मनोइर दृश्य इसमें खुदा हुआ है ।
सामने की तरफ़ राजा राज़महत़, हास्तशाला, भश्वयात्रा भौर
अध्यादि हें, यह, राजा चछुदेव के राजमदल का इर्प होगा ! ५ ८
लण-चसद्दि, चसुद्रेष दरचार,
लुण-चस द्वि, श्रीमष्ण-गोकुछ, इस्त--११ क.
कर 2. एक मै] एल
(शश३ ) '
उलिक्षनासा पुत्री को गोद में लेकर बेठी. है !: उसके पास
चाले दो काड़ों में क्ूला बंधा! है, जिसमें से !बाहर -कूदने
के लिये श्रीकृष्ण प्रयास करते हैं। उस भूले के पास *
एक कुछ झुका हुआ हाथी खड़ा: है।।-उसे पर कृष्ण
सुप्ठि-पहार कर रहे हैं। पास में श्रीक्रेप्ण दोनों, तरफ के 5
चूक्चों को बाहुओं के बीच दबाकर खड़े हैं ।.'( ख ) पश्चिम' *
"दिशा, की लाईन के प्रारंभ के एक कोने। में सिंहासन - पर £
ऋन्न के नीचे राजा बेठा हे। पास में हजूरिये व अंगरचक।
खड़े-हैं। पीछे।हस्तिशाला/व अश्वशाला है । “बाद में
'राजमहल है, जिसके/अन्दर और दरवाजे में लोग खड़े हैं।
(१४) उसके पास के दूसरे खंड' के नेकशीबाी ।
चीचले शुम्वज के नीचे 'पूचे और परम की पंक्ति के मध्य
में भगंवान् की एक एक मूर्ति खुदी हैं। ' /
: (१४ ) शूढ़ मंडप के दाहिनी तरफ के दरवाजे, के
बाहर की चोकी के दोनों -खंभों, पर भगवान्. की - आठ
आठ मूर्तियाँ खुदी हैं । की
. (१६) लूणवसहि मंदिरिं के पश्चिम-सुख्यद्वार के
सीसरे, गुम्यज्ञ के किनारे के दो स्थँसों में आठ आठ बिन
अत्तियाँ अंकित हैं ।
( १४४ )
(१७) उसी मुख्य द्वार के तीसरे मम्बज के नीचे की
लाईन में दोनों तरफ अंबिका देवी की एक एक भूर्ति
खुदी है । *
(१८) देहरी मं० १ के पहिले शुम्बज में अंबिका
देवी की मूर्ति खुदी है। इस मूर्ति का बहुतसा माग
खंडित है। देवी के दोनों तरफ एक एक भाड़ खुदा है।
वक्ष के धड़ के पास एक ओर एक श्रावक्र और सामने
की तरफ एक श्राविका हाथ जोड़कर खड़ी है |
( १६ ) देहरी नं० ६ ( मूलनायक श्री नेमिनाथनी )
के दूसरे गुम्बज में द्वारिका नगरी हझऔर समवसरण का
शुश्य है, उसके ठीक मध्य में तीन गढ वाला समवसरण है।
जिसके मध्य में जिन मूर्ति युक्ष देहरी है | समवस्रण की
एक तरफ एक लाईन में साधुओं की १२ बड़ी भोर दो
छोटी मूत्तियाँ हैं। दूसरी तरफ एक लाईन में आवकों और
दूसरी लाईन में श्राविकायें हाथ जोड़ कर बैठी हैं। (अत्येक
साधु के एक द्वाथ में दंडा, एक हाथ में झुंदपति और
4 इस देहरी में सूज़नायक श्री नेमिनाथ मगवान हैं। इस कारण से
शहद दृश्य उन्हीं के संबंध में इगेमा चाहिये । जिससे पद द्धारिका नगरी,
गिरिनार पंत और समचससरण का दृश्य पतीत ट्वोता है। युम्वज के मध्य
आग में तीन गढ़ वाद्य समवसरण दे। वह भी मेमिनाप भगवान् दारिका
अगरी में पघार कर समवसरद में बेठ कर उपदेश देते थे, इसका दशप दै।
५ शी
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लण-वसही , र्श्य-१६.
9 ३2 एए०९ 3]णल
( १४४ )
(१७) उसी स्ुख्य द्वार के तीसरे ग्म्बज के नीचे की
लाईन में दोनों तरफ अंबिका देवी की एक एक मूर्ति
खुदी है ।
न (१८) देहरी नं० * के पहिले गरुम्बज में अंबिका
देवी की मूर्ति खुदी है। इस गूर्चि का बहुतसा भाग
खंडित है। देवी के दोनों तरफ एक एक भाड़ खुदा है।
भक्त के घढ़ के पास एक ओर एक आवक और सामने
की तरफ एक शभ्राविका हाय जोड़कर खड़ी है ।
( १६ ) देहरी न॑० ६ ( मूलनायक भरी नेमिनाथजी )
के दूसरे गुम्बज में द्वारिका नगरी ध्मौर समवसरण का
इृश्य ह,/ उसके ठीक मध्य में तीन गठ बाला समवसरण है।
जिसके मध्य में जिन सूर्चे युक्त देदरी है । समवसरण की
एक तरफ शक लाईन में साधुओं की १२ बड़ी और दो
छोटी घूर्तियों हैं । दूसरी तरफ एक लाईन में श्रावकों और
दूसरी लाईन में श्राविकायें हाथ जोड़ कर पैटी हैं! (प्रत्येक
साधु के एक द्वाथ में दंडा, एक द्वाथ में मुंहपति और
| इस देशरी में मूलनायरू थी नेमिनाथ भगवान हैं। इस कारण से
शइ दशप उरहीं के सेदेघ में होगा चाह़िये। जिससे यह द्वारिका नगरी,
गिरिनार परत भोर समवसरण का दृश्य प्रतीत होता है। शुम्दज के सप्य
आग में सीम शरद चाद्वा समवसरदा है; दश भी नेमिनाथ भगवा दारिढा
शअगरी में पधार कर समवसरद में शैट कर उपरेश देसे थे, इसका इर॒य है।
( १५४ )
बगल में ओधा है। गोड़े से नीचे पिएडली तक कपड़ा-
पहिने है। दाहिना हाथ खुला है। कंधे पर कैपल नहीं
च्े के. हि... डोरे
है । तीन साधुओं के हाथ में डोरे वाली एक एक
तरपणी है )।
शुम्पज के एक कोने की चौकड़ी में समुद्र का दिखाव
है। उस समुद्र में से खाड़ी निकाली है, जिनमें जलचर
और साधु-साथिवएँ तथा ध्रावक-श्राविकाएँ वर्गरद्द मग्रदान् के दशेनाये
समवसरण की तरफ जाते हैं व उपदेश सुनने के किये बैठे हैं, यद भी
डस में भरती तरद दिखलाया गया है ।
उस गुग्बज के एक तरफ के कोने में; जल्ूचर जीवों से युक्न समुद्र व खाड़ी,
किनारे पर जहाज, किनारे के आस पास जड़ल्य व उस जड्ल्न में मंदिर
आदि हैं। पह सारा इश्य द्वारिका नगरी के बंदरगाह का है ।
इसी गुग्वज के दूसरी तरफ के पुक कोने में; एक पर्देत पर शिखर-
बंध चार मंदिर हैं । उनके भासपास छोटी घोटी देह्दरियों तथा जृक्षादि हैं ।
मेदिर के बाहर भगवान् कास्सग्ग ध्यान में खड़े हैं । यद् सद गिरवार!
पर्दत का इशय है. और काउस्सग्य ध्यान में खड़े हुए भगवान् नेमिनाय
हैं। साथ, भादक, हाथी, घोड़े, पार्मित्र, नट संदल्ती भौर सारा सैन्य मंदिर
अधवा समवसरण को तरफ जाते हैं | यह सब श्रीकृष्ण मद्दारान धूम-
आम पूर्वक सादान् नमिनाथ को दंदना करने के किये जाने का दृश्य
है। पहिले इरिशा नगरी 4२ योजन ऊंदी और & योजन शौढी थी। इससे
देसा मालूम होता है कि--गिरनार पदेत और द्वारिका नगरी प्रास'
दी जल दोंगेल-न
( ४४ )
बगल में ओधा है । गोड़े से नीचे पिएडली तक कपड़ा
पदिने है। दाहिना हाथ खुला है। कंधे पर कंबल नहीं”
है । तीन साधुओं के हाथ में डोरे वाली एक एक
तरपणी है )।
भुम्बज के एक कोने की चौकड़ी में समृद्र का दिखाव
है। उस समुद्र में से खाड़ी निकाली है, जिनमें जलचर
: और साध-सास्विएू तथा भावक-भाविस्द बे पद ह पप- साधु-साभ्विए तथा आावक-भ्राविरार्द दमेरह अगवान् के दर्शनाथे
समवसरण की तरफ़ जाते हैं द उपदेश सुनने के लिये बेढे हैं, वदद भी
उस में भरती तरह दिखक्वाया गया है ।
उस गुग्बज के पुक तरफ के को ने सें; जजचर जीवों से युक्त समुद व खाड़ी,
किनारे पर जहाज, किनारे के झास पास जद़त व उस जल में मंदिर
आदि हैं। यह सारा इस्य द्वारिका नगरी के बंदरगाह का हे ।
डसी गुम्यज के दूसरी तरफ के पृक कोने में; एक पदेत पर शिखर--
अंडध चार मंदिर हैं । उनके भासपास छोटी घोटी देडरियाँ तथा बृफादि हैं।
मंदिर रू बाइर भगवान् झाठस्सग्ग ध्यान में खड़े हैं। यह सब गिरमाएः
पर्वत का इश्प है और काउस्समा ध्यान में खड़े हुए भगवान् नेमिनाथ
हैं। साधु, भावरू, हाथी, घोड़े, वार्मित्र, नट मंडल भौर सार सैन्य मंदिर
अथवा समवपरण की सरफ जाते हैं। यह सब भ्रीकृष्ण महाराज
( ह्रशदा ) 5
“जीव क्रीड़ा कर रहे हैं.। खाड़ी में जहाज भी: है । समुद्र के
वकनारे:कफे आसपास जड्शल क़ा-ध्श्य -ह-। -जहूल/के [एकः
प्रदेश मं,एक मंदिर:व भगवान् की प्रतिमा युक्त एक देहरी
हूं । खाड़ी के दोनों किनारे पर दो दो जहाज हैं.। यह
- सारा दृश्य द्वारिका नगरी का हैं ।
॥१॥ 5 ६2
शुम्बज, के दूसर कोने में गिरिनार पयेतस्थ मांद्रिरों का
दृश्य है। शिसर युक्त चार मंदिर हैं। मंदिर के बाहर *
भगवान् की. काउस्सग ध्यान की सड़ी मूर्चि है! मंदिर
छोटी २ देहरियाँ तथा बक्षों से घिरे हुए हैं ।, मंदिरों,
» पास की बीच को पांक्ि.में पूजा. की सामग्री-फलश, फूल
की माला, धूपदाना और चामरादि हाथ में लेकर आवक!
वयोग मंदिरों की ओर जाते हैं । उनके आगे छः साधु भी
हैं। जिनके हाथ में ओपघा व मुँहपति के आतिरिक्त एक के
हाथ में तरपणी ओर एक के हाथ में दंडा है| अन्यं सब
लूाईनों में हाथी, घोड़े, पाल़की, नाठक, वाजित्र। पेंदल
सेना तथा मजनुष्यादि है।-वथे सब मंदेर की. अथवा,
“समवसरण की तरफ जिन दर्शनाथ जा रहे हों, ऐसा सुंदर
“इश्य खुदा हुआ हैं। हार कक: ड्षू * ५ बज बे
४ (०१०२१, ) देहरी नं? १० थ ११ के पढह़िले पदिले
-शुम्ब॑ज में इंस के चाइनवाली देवी की एक २ मूर्ति/बनी दे ।»
८7 ००७०४१०-:० ०. ० ४्५२०६,८०१४ ७०७ ८ + *५ ई
अदा परे फ्राजिए
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ल(-२२ ) देहरी ने० ११ केड्सरे गुम्बज में श्री अरि्ट|
।मिकुमार फी थरातादि का दृश्य हैं गुम्बज में सात”
कवियों हैं। .उसमें' नीचे से पहिली पंक्ति में हाथी, घोड़े
ह कु आर नेमिकुमार एवं अरीकृप्ण दोनों साथ डी द्वारिका में
इते थे। श्रीकृष्ण चाखुवेव एवं जरखेध प्रति चासुदेव फे आपस में
शड़ाई हुईं थी, उस समय युद्ध में नेमिकुमार भी शरीक थे। श्रीकृष्ण, -
प्रासंघ का उच्छेद करके तीन खंड के स्वामी हुए। नेमि कुमार बादय-
का से ही संसार पर उदासीन होने से विवाह करने के लिये इन्कार
करते थे । माता-पिता व थी कृष्णादि परिजन का अत्यन्त आम्रह होने पर
नेमिकुमार चुप रहे | इन लोगों ने, यद्ध समझ कर कि-नेमिकुमार शादीः
करने के लिये सहमत दैं, उम्रलेन राजा की लड़की राज़ीमती के साथ
सगाई करके विवाह की तैयारियों भारंभ की। ख़ग्न के दिन
'नेमिकुमार रथ पर बैठ कर बरात को साथ लेकर धूमधाम के साथ'
खसुर-महल के दरचाजे पर पहुंचे । राजीमती अन्य सह्देलियों के साथ*+
(अपने स्वामी की यरात की शोभा देस रही हैं । उस समय नेमिकुमार की
+श्ट सइसा एक पशुणाला की ओर गई, जिसमें इस लग्न के निमित्त होने
घाजे भोज के किये दजारों पशु एकश्नित किये गये थे । नेमिकुमार के दिल्त
में झाघात पहुंचा 'पुक जीवके विवाद आनंद के लिये हजारों जो के
[,भानंद को लूड क्षेना-उनको यमराज के द्वार पर पहुंचाना, ऐसे विवाद्द को
टसिकार है ।! बस, सुरन्त ही पशुभों को पशुगृह से मुक्त रराकर रथ को
* द्ञापिस फिराया और अपने मद पर चले गये | माता-पिता को समर
, कर झाक्षा प्राप्त कर दीका के लिये वार्षिक दान देनां प्रारंस किया। प्रतिर्दिन
पुक करोद भांठ खाख सुदरणय मुदायें दान में दी जाती भी | पक सात संक -
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ओर आगे नाटक हैं । दूसरी में श्रीकृष्ण व जरासंघ
( बासुदेब-प्रातिवासुदेव ) का युद्ध चल रहा है, जो शंखे-
ख्वर के आसपास हुआ था । उसमें एक रथ में श्री नेसि-
कुमार भी विराजमान हैं। तीसरी पंंक्ि में नेमिकुमार की
बरात का दृश्य है। चौथी लाईन के एक कोने में
डग्नमसेन राजा का मदल है, जिसके ऊपरी हिस्से में दो
साम्ियों सहित राजीमती सड़ी है। राज-प्रासाद में मनुष्य
हैं और उसके द्वार में द्वारपाल खड़ा है। दरवाजे के
पास अश्वशाला द, जिसमें सईस दो घोड़ों को मुंह में दथ
डाल कर खिला रहे हैं । दो धोड़े नीची गरदन करे चर
रहे है । अश्वशाला के पीछे हस्तिशाला दे । पीछे चौंरी
( लग्न मंडप में खास स्थान ) चनी है। जिसके आस
पास ख््री-पुरुष खदे हैं ! इसके पीछे पशुशाला हैं। तत्पश्चात्
द्वान देकर गिरनार प्वेत पर जाकर उत्सत पू्तक अपने हाथों से प्रच
मोष्टिक लोच कर लिया । दीक्षा क्ेने के २४ दिन बाद ही गरिरिनार प्रवेत
पर भगवान्, को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ ज्ञान प्रापि के याद बहुत भरसे
खू लोगों को उपदेश देते हुए भायुष्य पूणये डोने के समय गिरिनार पर
चधारे और शुभ ध्यान की श्री में ल्ञीन द्वोकरसमस्त कमो का क्षय करके
अक्ति को प्राप्त किया । विशेष विवरण के ज्षिये इस धुस्तक के प४ छ८-८३
को नोट, 'ब्रिषष्टि शल्लाका पुरुष चरित्र! पर्व रू के ४, ६, १०, ११
>भौर १२ थें सम तथा 'भी नेमिनाथ महा कांब्य! घररद देखिये ।
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+ शाला तदनन्वर -राजमहल है॥* राजमहल के बाहर राजा
/ सिंहासन पर बैठा हैं। शक आदमी उस पर छप्र रखे हे व
" एक मनुष्य पंखा डाल रहा है। तत्पश्ात् सनिक-हायी-घोड़े
बर्गरह हैं! तीसरी लाइन के बीच में हस्ति का अमिपेक
श्व॑ नयनिधि सहित लक्ष्मीदेवी है! उसकी एक तरफ
तिपाई पर रतराशि अथवा अश्व-आदहार ( चारा-घास ) है।
पास में रे का सप्तमुसी घोड़ा है। घोड़े के ऊपर सर्यदेव
है। धोड़े के पास फूल की माला है । उसके पास एक
बृक्ष है। उसके दोनों तरफ दो खाली आसन दें । उस ही
लक्मीदेवी की दूसरी तरफ़ एक सुंदर हाथी है। उसके-
ऊपर चंद्र हैं। उस द्वाथी के समीप विमान अयवा महल ह्दै।
उसके पास एक कुंम दे। दोनों तरफ के शेप हिस्सों में
गीत बाजे-नाटकादि हैं। अपशेप पंफ्नियां हायी, घोड़े;
पक
बैदल। पालकी, सैन्य, नाटक व संगीत के साधनादि से
परिपूर्ण ६।
(२४) देदरी नं० १६ के दूसरे गुम्बज में सात लाईनों
में सुंदर दृश्य खुदा दे 4 उसमें नीचे से पद्चिली लाईन के
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आओ शोर इस इस्य के मप्यसाग में भी पर्धनाय मगदाद की काटरसप्ग
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(१६२ )
नाथ भगवान् काउस्सग्ग ध्यान में खड़ हैं। मस्तक पर
सर्व की फना का छत्र है। उनके आस पास शआावक वर्ग
- दाथों में कल्षश-हार-धूप दाज़ादि पूजोपकर्ण लेकर खड़े दैं।
अवस्था में नियाणा बांधने के कारण में इस अटवी में हाथी झे भव में
'बैद्ा हुआ हूँ।? इससे अच इस भगवान् की मैं सेवा करू तो सेहा जन्म॑
“पवित्र हो जावे । ऐसा विचार करके वह हाथी. हमैशा उस सरोवर में से
- सूंद द्वारा शुद्ध जल व श्रेष्ठ कमल लाकर भगवाद की पूता करने लगा।
इस यकार वह हाथी आनंद पूवरेक मगवान् के दर्शन -पूजन के द्वारा भपने
नधत्मा को कृतार्थ करता हुआ श्रावक्र धर्मे पालने लगा। इस वृत्तास्त से
४खुश होकर कड़े एक ब्यंत्तर देव-देवियां चह्०ों आकर, भण्वान् की पूजा कर,
+अगयान् के सामने नृत्य करने क्गे । चर पुरुषों के सुस्त से यद् समाचार
लानकर करफरडू राज्य परिदार सद्दित थी पाश्यनताथ भगवान् के दरोंना ये
सरोवर पर झाया। पहौँ झाने पर यद् जाल कर कि--'भगवान् विहार
ज्कर गये हैं', सम में यहुप्त दु:खी हुआ और सोचमे लगा क्ि--मैं पापी
“हूँ क्वि--मिससे सुझे भगवान् के दशेन भी नहीं हुए । हाथी भाग्यशाली
(है 8--जिसने भगवान् की पूदा की ।? राजा को शोकातुर देखकर धरणेन्द्र
ने श्री पाश्वैनाथ भगवान् की ६ द्वाथ प्रमाण की प्रतिमा प्रकट की । राजा
व्या्यन्त प्रसन्न हुआ भौर उसने भक्िपूर्वक दर्शन-पूजा भादि किया।
“राजा ने धईं पर मंदिर चनथा कर चह्ट सूर्त्ति उसमें विराजमान की भौर
बत्िकाछ्न पूजन एयं संगीतादि कराने लगा। इस तरष् यद्ट इस्ति-फानि-
कुयड़ मासक तोर्थ खोगों में उ)्रसिद हुथा। कालिकुपड प दृस्तिकुएंड
ब्लाम से भी थद्द सीधे पद्धिचातर जातर था। वह द्वाथी का़ान्तर में शुभ
आदना पूर्वफ सुस्यु पाकर ध्यन्तर देद हुभा। झयधि ज्ञान द्वारा द्राथी
व्मय का यरुत्तान्त जानकर यद कलिकुरएड तीये का भविष्टापक देव हुमा।
र्ज्स् श्ध्३े )
अवशेष पंक्षियों में दाथी सवार, घुड़ सवार, पैदल लश्कर
तथा नाठकादि का च्श्य खुदा हुवा होने से वह कोई
मगवद-भक्टें की सहायता करने और अनेक चमत्कार दिखाने लगा, इस
कारण से उस तीये की सद्दिमा खूब बढ़ी ।
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श्री पश्वेनाथ भगवान्, छुम्नस्थ अवस्था में बिचरते २ किसी समय
सिवापुरी के समीपवर्त्ति कौशाम्ब नामक वन में आकर कायोत्सग्रे
चूवेक ध्यान में खड़े रहे | उप समय सागराज धरखेन्द्र ने बढ़ी पिभूति
नव परिवार के साथ वहाँ झाकर भगवान् को वंद्न्य कर बहुत भक्ति
से भगवान, के सन्मुख नाटक किया ( लौटने के समय भगवान् पर सखूदे
“का भूप पढ़ता देख कर उसके मन में विचार हुआ किं--'मैं भगवान् का
सेघक हैँ. और मेरी विधमानता में मी भगवान् के ऊपर सूर्य की किरणें
पढे, यद्ट थ्रच्छा नहीं ! ऐसा विचार कर धरणेन्द्र ने सर्प का स्वरूप
धारण कर अपने फण से भगवान के ऊपर तीन अह्दोरात्रि तक छत्न किया
और उनके परिवार के देद-देवियों सगवान् के सामने सृत्य करने लगे!
आस पास के गांवें घ शहरों में से लोगों के चेद यहां आ्राकर भगवान् को
बंदना रूर झानदित हुए । चौथे दिन भगवान् वहां से अन्यत्र विहार कर
शये '्यौर खपरिवार घरणेम्द्र अपने स्थान पर पहुंच। इस चमत्कार से
यमन में उसी स्थान पर अहविछतन्ना नामक नगरी बसो। भक्त लोग ने वहाँ
श्री पाध्वेताथ भगवान का संदिर खनवाया, इससे डस नगरी डी मद्ठीमा
खूब थदी। इस तरह अद्विछृत्ा नगरी थ तौर की उत्पात्ति हुईं। विस्तार
से जानने के लिये थ्री जिमप्रभर्ारि विरचित 'ततोथ कर्प' मे 'हस्ति
( १६१ )
“शक कोने में बिना सवार के हाथी, घोड़ा और हाथी हैं»
ना | कक 4
उससे आगे के भाग में और दूसरी लाईन में भी खी-युरुप_
..* युगल नाच रहे हँ। चौथी लाईन के घीच में औपाशे-
ध्यान में एक खड़ी सूर्सि यली हुई है। इससे यह अज्ञमान होता है कि-
दन दोनों जिनेश्वरो में से किसी एक के ( प्रायः पार्शनाथ भगवान् के हो )
जावन के किसी प्रसंग का यह भाव-इश्य होना चाहिये । किन्तु यह दइश्य
प्रसंग का है, यह स्पष्ट तौर से मालूम नहीं हो सका । तथापि यद्द
शय शायद ' हस्तिकलिकुराड ! तीये अथवा 'अदिछत्ना! नगरी कीं
के प्संग का हो। उन ती्थों की उत्पत्ति का वर्णेन इस प्रकार ढैः---
भंग देश की चेपा नगरी में श्री पाश्येनाथ भगवान् के समय मे
(धानसे कैेकर करीबन २ ७४६० वर्ष पहिले) करकणडडु राजा राज्य करता था ॥
उप्त चंद्र नगरी के पास ही कादवरी नाम की बढ़ी अ्रटवी में फालि नामक
था। उसकी तलइझी में कुरड नामक सरोवर था । वहाँ हस्तियूथाघिप-
हयियों का सरदार महीघधर नामझा एक हाथी रहता था। छन्नस्था-
दैशा में किसी समय पाश्नेनाथ भगवान् विचरते २-अमण करते २
डैएड सरोबर के पास भाकर काउससग्य करके वहां खड़े रद्दे। उस समय
पैह हाथी यहाँ झाया। भगवान् को देखकर उसकछो जातिस्मरण झग्न'
ईभा। मिश्से उसको यह मालूम हुआ कि--' पूर्व भव में मैं हेमंघर नामक
दामन-टिगना आदमी था। युवान् लोग मुमकों देखकर बहुत इँसतें थे।
डर कारण से में एुक समय एुक क्ुके हुए इंच की डाली के साथ गले
में गदाद् ज्गाकर सरने की तैयारी कर ही रहा था, दि-उतने में सुप्रतिष्ठ
नामक भावक ने सुभको देख लिया। उसने सुर से कारण पथा। मैंने
सब हालत कह दिया। उसने सुमुको एक सुगुरु के पास लेजाकर जैनधर्मे
औआ ज्ञान कराया। मैंने यावज्ीद जैनधर्म का पालन किया भौर झांतिम्य
कया
4 २४)
राजा की सवारी भगवान् को वंदना फरने के लिये जाती
. हो, ऐसा मालुम होता है। _
(२४) देहरी नं० १६ के भीवर एक तरफ की
दीवार में अम्वाचयोध और समलीविहार तीर्थ के
मनोहर दृश्य का एक पट लगा हुआ है। ( देखो
धृष्ठ १२८-१३४ तथा उसकी नोट )
(२६) देहरी नं० ३३ के दूसरे ग॒म्बज में जुदी जुदी
चार देवियों की सुन्दर मूर्चियाँ खुदी दें ।
(२७ ) देहरी नं० ३४ के शुम्बज में किसी देव की
एक सुन्दर मूर्चि खुदी है ।'
हे [4 का ञध्/ छा हल
(२८-२६ / रंगमंडप में से नव चाकियां पर जाने
वाली मुख्य सीढ़ियों के दोनों तरफ के गोखे में इन्द्र
मद्दाराज की एक एक सुन्दर मूर्ति बनी है ।
कल्िकुष्द कदपा व चाहता कक्पा तथा नी पाना प संगदाय् का कोई
भी चरित्र देखे ।
उपयुं़ दोनों तीपो की उत्पत्ति के प्रसंग के साथ यह धस्य संगत हो
सकता है। क्योंकि टोनों प्सेगों में श्री पा्नाथ भगवान् के सा।मने देव
देवियों मे उृत्य किया है तथा यहुतेरे मनुष्य शो साथ राजाओं छी सवा"
हियाँ भगवान् को बदन करने को आई हैं तथापि इस दश्य में भगवान
रे सस्तकोपरे सपे का फय होने से यद दृश्य दूसरे धसंग के साथ पिरोध
संगत ट्वोता है ।
( १६५ )
लूखणवसहि मंद्रि की भमती में, दोनों तरफ के दो
धशम्भारे घ अंबाजी की देहरी को भी साथ गिनने से तथा
बहुतसी देहरियाँ इकट्ठी हें, उनको जुदी झुदी गिनने से
'कुल ४८ देहरियाँ होती हैं ओर एक विशाल हस्तिशाला
है। बीच में एक खाली कोठड़ी है।
सारे लूणबसहि मंदिर में गूढ़मंडप, उसके दोनों तरफ
की चौकियों, नव चौकियाँ, रंगमंडप व सब देहरियों के दो
दो तथा हस्तिशाला के मिलकर १४६ गुम्बज ( मंडप )
“हैं। इनमें ६£१ नकशीवाले व ५३ सादे शुम्बज हैं| सादे
गुम्पज) जीणोंद्धार के समय फिर से बने हुए मालूम होते हैं।
इस मंदिर में दीवारों से पथक् संगमरमर के १३०
खंभे हैं, जिनमें ३८ सुन्दर नकशी वाले और ६२ सामान्य
नकशी वाले हैं ।
ब्रिमलवसहि व लूणवसहि की नकशी में, जीवन-प्रसेंग
एवं महा पुरुषों के चरित्रों के प्रसंगों की रचनाएँ, उन उन
मंदिरों के वर्णनों में वर्णित की (बताई ) गई हैं,
उतनी ही हैं, इससे ज्यादे दृश्य नहीं होंगे, ऐसा मान
लेने की शीघ्रता कोई न करे। हमारे जानने में जितने
इश्य आये उतने ही यहाँ लिखे गये हैं । मेरा तो विश्वास
“है कि--यददि खत्मता के साथ वर्षों तक खोज की जाय,
का
2.4
( १६६ )
तो भी उसमें से नवीन नवीन चीजें जानने को मिला करें।
ब्रेक्षकों से मेरा अनुरोध है कि-यादे आप लोगों को इस
पुस्तक में उल्लिखित दृश्यों के अतिरिक्त कुछ विशेष देखने
व जानने में आवे, तो आप इस पुस्तक के प्रकाशक को
अवश्य छ्चना करें, जिससे दूसरी आद्वत्ति में उसको स्थान
दिया जाय ।
विमलवसही और लूणवसही मन्दिरों की नकशी में
खुदे हुए ऊपर लिखे दृश्यों के आतिरिक्त हाथी; घोड़ा,
ऊँट, गाय, बैल, चीता, सिंह, सर्प, ' कछुआ, मगर और
पक्षी आदि आणियों की तथा नाना प्रकार फी ह्टिडयाँ,
मूमर ( काँच के झाड़ ), बावड़ियाँ, सरोवर, समुद्र, नदी,
जद्ाज, बेल, फूल, गीत, नाटक) संगीत, वार्जित्र, सैन्य,
लड़ाइयाँ, मल्नयुद्ध, राजा व्गरह की सवारियों आदि की
तो संख्या ही नहीं हो सकती।
दरवाजे, मंडप, गुम्बज, तोरण ( बंदरवाल ), दासा+
छत, ब्राकेट, भींत, धारसाख झादि कहीं भी इष्टि डाली
जाय, आनन्ददायक नकशी दिखाई देगी। “कुमार”
मासिक के संपादक के शब्दों में कहा। जाय तो--
“विमलशाह का देलवाड़े में बनवाया हृुष्मा
महान देवालय, समस्त भारतवर्ष में शिल्पकला का
प
कोतिस्तम्म ( ती्थेस्तम्म ),
भौर लूय बसद्ठि का दह्दतियों का यारा दरप
६0 3 #रू०७, औ छरर
(१६७ )
अपूर्व---अल्ुपस नमूना है। देलवाड़े के मंदिर, ये
केवल जैन मंदिर हो नहीं हैं,' वे शुजरात के
घ्यतुलित गौरव की प्रतिभा है। ? बस, इससे अधिक
कहने की आवश्यकता नहीं रहती ।
विमलवबसहि में मूलनायक श्री आदीश्वर भगवान् व
लूणवसहि में मूलनायक श्री नेमिनाथ भगवान् विराजमान
होने से ये दोनों स्थान ऋमानुसार शझ्लुजध त्तीर्थाचलार
च गिरिनार तोर्थावतार माने जाते हैं।
क-ननमम-त त-3+> मम
. है
लूणवसहि के वाहर---लूणबसदि के दक्षिण-
ड्वार के बाहर दाहिनी तरफ बाग में दादासाइब के पगलियाँ
युक्क एक नई छोटी देहरी बनी है।
उपयुक्त दरवाजे के बाहर बांयी तरफ के एक बड़े
चपूतरे पर एक बड़ा भारी कीर्चिस्थंभ है। उसके ऊपर का
भाग अधूरा ही मालूम होता है, इससे यह अज्ञुभान होता
है कि-पाहिले यह कीर्त्तिस्थंम बहुत ऊंचा होगा 4 । पी छे से
7] इपदेशतसहियो आदि प्न्थों से जात होता दे कि. “इस बोलि..
सथस्म के ऊपरि द्विस्से में, इस मंदिर रे बनाने वाले मिश्रो शॉभनदे य
की माता का हाथ छुड़ा हुआ था ।” यद्द अब नहीं है ।
( हृद्धव )
कसी कारण से थोड़ा भाग उतार लिया होगा। सिरे पर
पूर्णुता का बोध कराने वाला कोई भी चिह नहीं है।
इसको लोग तीयस्थेम भी कहते हैं।
उस कीर्चि-स्थंम के नीचे एक सुरमी (सुरही ) का
पत्थर है। जिसमें वछिये सहित गाय का चित्र और उसके
नीचे कुंभाराणा का बि० सं० १४०६ का शिलालेख है ।
उस लेख में इन मंदिरों, तथा इनकी यात्रा के लिये आने
चाले किसी भी यात्रालु से किसी भी प्रकार का कर (टैक्स)
फिंवा चाकीदारी-हिफाजत के बंदले में कुछ भी नहीं लेने
की कुंभाराया की थाज्ञा है|
गमिरिनार की पाँच टूंकें--उस कीर्ें-स्थंम के
पास बांये द्यथ की तरफ सीढियाँ हैं! उन पर चदुकर
ऊपर जाने से एक छोटासा मंदिर आता है, जिसमें दिगे-
चरीय जैन मूत्तियाँ ् । बद्"ों से उचर दिशा की तरफ
जालीदार दरवाजे में से होकर थोड़ा ऊंचे जाने से ऊंची
डटेकरी पर चार देहरियाँ मिलती हैं। उनमें नीचे से पदिली
शक देहरी में अंविकादेवी की मूर्चे ओर उसके ऊपर की :
तीनों में जिन ग्रत्िमाएँ विसजमान दें। लूयवसद्दि मंदिर
की गिरिनार त्तोर्धाचतार मानने के कारण मृलमंदिर,
( १६६ )
“ईगेरिनार की पहिली ट्रेंक और उपयुक्न चार देहरियाँ दूसरी,
ज्तीसरी, चौथी व पाँचवीं टूंके मानी जाती हैं ।
श्री सोमछन्दरसरि कृत “अबुद गिरि कल्प! में
“उन चार देहरियों के नाम इस क्रमानुसार बतलाये हैं।
“4 नीचे से )--
(१) अंबावतार तीथे, ( २) पचुज्नावतार तीथ,
(३) शाम्बावतार तीथे और (४) रथनेमि अवतार तीये।
परन्तु इस समय मात्र नीचे की पहिली देहरी में अंबा
देबी की दो छोटी मू्तियाँ हैं । अवशेष तीन देहरियों में
अद्यक्ष। शाम्ब और रथनेमि की भूर्चियों अथवा उनसे
संबंध रखने वाले कोई भी चिह्न नहीं हैं। आजकल तो
उन देहरियों में निम्नानुसार मूर्तियोँ विराजमान हैं ।
६ उपर से )--
देहरी न॑० १ में मूलनायक श्री पार्थबनाथ भगवान्
की काउस्सग्गावस्था की मनोहर सड़ी मूर्ति है। इसी
मूर्ति में मूलनायक भगवान के दोनों ओर छः छह
जिन भूत्तियां बनी हैं । जिनके नीचे दोनों तरफ एक एक
इन्द्र और उसके नीचे एक भ्रावक व एपः आविका को मू्चि
खुदी है | इसके नीचे सं० १३८६ का लेख है। इस लेख
(१७० )
से मालूम होता है कि-आवबू,के नीचे के झुंडस्थल महा-
तीथे के श्री मह्मबीर भगवात्र के मंदिर में कोरंट गच्छ के-
औ नक्वाचार्प्प के संतानी सहँ० घांघल-मंत्री घांघलने दो
काउस्सग्गिये कराये । लूणबसहि के गूढ़ मंडप का छोटा
काउस्सग्गिया इसी की जोड़ का हैं और बह भी उसी
आबक ने बनवाया ह। ( इसके लिये देखिये 2० १२३)-
अतएब इन दोनों मूर्तियों को एक ही स्थान में स्थापिता
करनी चाहिये । इस देहरी में परिकर रहित द्वो मूर्चियाँ/
और हैं | कुल जिन बिंय हे हैं।
देहरी न॑० २ में मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान,
हरी वीनतीर्थी के परिकर वाली मूर्ति १ दव। परिकर
खंडित है !
देंहरी नें० ३ में मूलनायक श्री ४7४८ की पारिकर'
बाली श्याम मूर्चे १ है।
देहरी नं० ४ में अंबिका देवी की दो छोटी मूर्तियाँ
हैं। इनमें से एक मूर्ति पर संबत् रहित छोटा लेख दे £
यह मारते पोरचाद़ बातीय आवक चांडसी ने कराई दे ४
चारों देदरियों में कुल सात मूर्तियों है ।
( १७१ )
इन चार देहरियों के निमोता कौन हैं ! इस विपय में”
कुछ भी ज्ञात नहीं हुआ। यदि मंत्री तेजपाल की ही बनवाई
हुई हों तो ऐसी सर्वथा सादी न होना चाहिये। अनुमान यह
होता है कि-पहिले ये देहरियाँ महामंत्री तेजपाल ने लूण-
चसहि मंदिर के जैसी सुन्दर ही वनवाई होंगी । परन्तु बाद
में उक्त मंदिरों के भंग के समय अथवा अन्य किसी समय
उनका नाश हुआ हो, और फिर से मंदिरों के जी्णोड्ार
के समय या अन्य क्रिसी समस इनका भी जीणोद्धार
हुआ हो |
घास्तव में ये चारों देहरियोँ महामन्धी तेजपाल की बनवाई
मालुम नहीं होती हैं । यदि उन्हीं ने ही बनवाई द्वोतीं तो लूयवसद्दि
मंदिर की प्रशस्ति में इनका भी उद्देख होता । किन्तु इनका उल्लेख नहीं
है। इसाजिये ये देदरियां पीछे से भन्य किसी ने घनवाई मालूम दोती हैं ६
( 7७२ )
-डु.चकालस्काड:2:8:8:8:8:5:6:8:6:#:85:6:4:%#:5:874
। पित्तलहर ( भीमाशाह का मन्दिर ) ई
यह मंदिर भीमाशाह ने बनवाया है। इसलिये
“ मीमाशाह का मंदिर कहा जाता है। भीमाशाह ने पहिले
स्मूलनायकश्री आदीश्वर भगवान् की मूर्ति बनवाई थी ।
कुछ समय के वाद मंत्री सुंदर और मंत्री गदा ने बनवाई,
“जो अभी भी माजूद है । य दोनों मूत्तियां पित्तलादि धातु
की होने से यद मंदिर एपेत्तलहर र इस नाम से मशहूर है ।
बत्तेमान मूलनायकजी की यूर्चि, गूढ मेंडप की अन्य
मूत्तियां णव॑ नवचोकी के गोखों पर के लेखों से तथा
“अबुद गिरि कल्प, “गुरुमुणरत्नाकर काव्य” आदि ग्रन्थों
पर से यह बाघ निर्विवाद सिद्ध है क्ि-यह मंदिर गुर
ज्ञावीय भी माशाह ने बनवाया हैं और उन्होंने भी आदी-
अर भगवान् कौ घातु की भव्य बड़ी मूर्ति बनवाकर इसमें
मूलनायक स्वरूप स्थापित की यीई तया इस मंदिर _मूत्ननायक स्वरूप स्थापित की यीई तया इस मंदिर की
_ पिचलदर-पित्तल्मगरइ-पित्तत आदि घातुझो की सूर्चि युद्ट देघ मेदिर !
$ अचलगढ के चौमुखनो के मंदिर के लेख से ज्ञात होताद
उक्रे-बाद में यह मूर्ति यहां से लेजाबर मेंदाड़ के कुंमलमेर गांव के
5 चौमुखनों के मंद्रि में विराजमान की गई थी ।
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|/
( १७३ )
प्रतिष्ठा भी कराई थी । परन्तु इस मंद्रि की अतिष्ठा किस:
संबत् में किस आचार्य के पास कराई तथा भोमाशाहू
की विद्यमानता का समय कौनसा था । यह बात इस मंद्रिः
के लेखों पर से ज्ञात नहीं होती ।
इस मंदिर के मूलनायकजी आदि कई एक मूचियों :
पर के बि० सं० १४२४ के लेखों के आधार से कई लोग
यह मानते हैं कि--यह मंदिर सं० १४२४ में बना । परन्तु.
यह ठीक नहीं है ।
इस मंदिर के दरवाजे के वाहर 'वीरजी' की देहरी
के पास के एक पत्थर के राजधर देवड़ा चूंडा के वि० सं०
१४८६ के लेख से यह बात मालूम होती हैं कि-उस समय
देलबाड़े में तीन जैन मंदिर थे ! यहां के दिगम्बर जैन
मंद्रि के बि० सं० १४६४ के क्षेख में इस मंदिर का नाम
आता है। भ्री माता के मंद्रि के बि० सं० १४६७ के-
लेख में इस मंदिर का पितच्तलहर नाम से उल्लेख है।इस
मंदिर के गृह मंडप में चांई तरफ के एक खेंभे पर इस.
मंदिर की व्यवस्था के निमित्त ग्लागा संबंधी बि०
सं० १४६७ का लेख है। पंद्रहवीं शवान्द के श्रीमान्
सोफणखुल्दर सूरि सफल अहुद फिर कल्प रे खरे हैं +---
( १७४ )
“#भीमाशाह ने पहिले यह मंदिर मूलनायक भ्री आदिनाथ
“भगवान् की घातुमयी मार्त्ते सहित बनवाया था, जिसका
-भीसघ की तरफ से इस समय जीणेद्वार हो रहा है ।”
इन सब लेखों से यह मालूम द्वोता है क्रि--यह मंदिर
“बि० सं० १४८६ के पहिले ही प्रतिष्ठित हो चुका था|
जीर्णोद्धार सम्पूर्ण होने पर मंत्री छन्दर व मंत्री गदा ने
सं० १५२४ में आदीश्वर भगवान् की घातुमयी मूर्चि--जों
इस समय विद्यमान है, नूतत वनवाकर समूलनायकजी के
स्थान पर स्थापित की। वि? सं० १४२४ के पहिले इस
मंदिर का जीरेद्धार आरंभ हुआ। इससे मालूम द्ोता है
कि-यह मंदिर करीब १००-१२४ वे पहिले जरूर बना
होगा। १००-१२४ वर्ष के पहिले मंदिर का जीर्ोद्धार
कराने का प्रसंग उपस्थित हो, यह असंभव मी है।
ब्रिमलवसद्दि के बि० स॑० १३५०, १३७२, १३७२ और
१३७३ के, उस समय के मदाराजाओं के आ्राज्ञापत्र के चार
लेखों से, उस समय देलबाड़ा में विमलवसद्दी और लूशवसद्दी
ये दो ही बैन मंदिर परिद्यमाम होने का मालूम दोता है ।
इसलिये बि० स॑० १३७३ से १४८६ तक के ११६ वर्ष के
अन्दर किसी समय में यह मंदिर बना होगा ।
(१७५)
उपयुक्त कथनालुसार श्रीसंघ की तरफ से इस मंदिर
का जीर्णोद्धार होने के बाद राज्यमान्य गुजेर श्रीमाल
ज्ञातीय मंत्री छन्दर और उसके पुत्र मंत्री गदा ने
श्री आदिनाथ भगवान् को धातु की १०८ मण की महान्
मनोहर मूर्ति इस मंदिर में स्थापन फरने के लिये नवीन
अनवाकर, मूलनायकजी के स्थान पर पिराजमान की और
उसकी वि० सं० १४२४ में श्री लक्ष्मीसागर सरिजी से
अतिए्ठा कराई। मंत्री छुन्द्र व मंत्री गदा, अहमदाबाद
सके रहने बाले एवं उस समय के सुलतान सुहम्भद बेगढ़ा
के मेंत्री थे। थे दोनों राज्यमान्य होने से राज्य की सामग्री
व ईडर आदि देशी राजाओं की सहानुभूति एवं सहायता
से उन्होंने अहमदाबाद से आबू तक का बड़ा भारी संघ
निकाला था। उस समय इन्होंने धूमघाम से इस मंदिर की
प्रतिष्ठा कराई, जिसमें कई संघ सम्मिलित हुए ये। उन
सबकी, उन्होंने भोजन और बहु मूल्य बस्रों आदि से भाक्ति की
थी। इस महोत्सव में उन्होंने लाखों रुपये खच किये थे |
इस मंदिर क्री नवचोकियों के दोनों ताखों-गोसों के
सेखों से यह मालूम होता है कि-इन ताखों की आतिष्ठा
वि० सं० १५११ ज्येष्ट चदि ३ गुरुपार को हुई है।
ज्मगृती के भ्री सुवाधिनाथ भगवान् के शिखसवंधी मंदिर
(६ 3७३))
की श्रतिष्ठा ज़्येह सुदी २ सोमवार वि० सं० १४४० में
और कई एक देहरियों की प्रतिष्ठा बि० स॑० १५४७
में हुई है ।
भूत्ति सेख्या व विशेष विवरण--
मूल गंभारे में पंचतीर्थी के परिकर वाली धातु की
१०८ मण वजन की मंत्री छुन्दर व उसके पत्र मंत्री गंदा
की सं० १४२४ में धनवाई हुई अत्यन्त मनोहर आदीशध्वर
भगवान् की एक बड़ी मूर्सि है।। परिक्र सद्वित इस सूर्चे
की ऊँचाई लगभग आठ फुट व चौड़ाई ५॥ फुट है । उसमें
खास मूलनायकजी की ऊँचाई ४१ इंच है । परिकर और”
मूलनायकजी पर विस्व॒त लेख दें | मूलनायकजी की दोनों
वरफ धातु की एकल बड़ी सूर्तियाँ २ परिकर रहित
मूर्सियोँ ७, काउस्सग्गिये ४ ओर तीन-तीर्थी के परिकर-
वाली मूर्चि १ हैं। जिसके परिकर का ऊपरी दिस्सा
नहीं दे ।
शूठमंडप में एक तरफ पंचतीर्थी के परिकर युक्त
संगमरमर का आदीश्वर मगवान् का वड़ा पिंच दे । इनकी
चैठक के ऊपर सम्मुख भाग में ओर पीछे भी बढ़ा लेखक
ह। सोरोहडो के रदने वाले श्रावक्र सिंहा और रत्ना
कट
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पित्तलद्दर मूलनायक अरीऋकपमदेव भगवान.
( १७७ )
ने वि० से० १५२४ में यह भूत्ति बनवाई है। दोनों
ताखों-आलों में धातु की एकल मूर्तियों २, परिकर रहित
मूर्त्तियाँ २०, धातु की त्रितीर्थी १, धातु की एकतीर्थियां ३,
श्री गौतम स्वामी की पीले पापाण की मूर्ति १३ ( जिसके
उपर लेख है ), अंविका देवी की मूर्त्ति १, ( इस पर भी
लेख है) और छोटे काउस्सग्गिये २ हैं।
नवचौकी में से गृढमंडप में जाने के दरवाजे के दोनों
तरफ के गोखों पर लेख हैं। उन दोनों ताखों में श्री
खुमतिनाथ भगवान् का विराजमान किया जाना लिखा
है, परन्तु इस समय दोनों खाली हैं।
मूल गंभारे
के ताख खाली
मंगलमूत्ति बनी
में खुदा हे$।
पीछे, बाहर की तरफ तीनों दिशाओं
। अत्येक ताख के ऊपर भगवान् की
। उसके ऊपर एक एक जिन चिंव पत्थर
4१ पर सी
3 इस मूर्त्ति की ग्देन के पीछे ओघा, दाहिने कंधे पर मुंहपत्ति, एक
ड्वाम में साजा तथा शरीर पर कपड़े के निशान हैं ।
6 संभव है कि पद्दिले हन ताखो में भगवान् स्व मूर्चियाँ विराजमान
की दो, फिर किसी कारण से उठाली गई हो।
डर
( शजच८ )
अमती में निम्नलिखित सूत्तियाँ हैंः--
इस मंदिर के झुख्य द्वार में ग्वेश करते अपने थायें
हाथ की तरफ से +---
देहरी नं० १ में मूलना० श्रीसंभवनाथ आदि की ३ मूत्तियाँ हैं ।
7) आदीश्र ] ह।
2 99 8
१8
9 99 १५॥
पे न्) 98
7! 8 7९
8 १ ठग
इसके बाद सामने के गंभारे जितना वढा गंभारा बनाने
के लिये काम शुरू किया गया होगा; लेकिन किसी कारण
से कुरसी तक बनने के बाद काम बंद होगया हो, ऐसा
मालूम द्वोता है ।
इस मंदिर के प्ुख्य द्वार में श्रवेश करते अपने दाहिने
हाथ की तरफ सेः--
देदरी नं० १ में मूलना० श्रीआदीशर भ० की £ मूर्ति है।
१ ् 99 है 8 3 आदि के ३ घिंव है ।
१ 74 है ११ 8 डे 7
दे
6 न बड 6६ 0 ७
40 ००७ 6७७ ०2८ ्छ
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4३८ कै +२३७७ ३४५ 7
लिम), , +3-2 25 2५ 20४ >> शक,
पित्तजहर, थी पुद्धेक स्वामो
( १७६ )
8
देहरी नं० ४ में झूलना० श्रीनेमिनाथ भ० आदि के ३ पेंच हैं ।
॥. ४ $३ आदीश्वर »+ हे #
६ क अजितनाथ ॥ ३ »
3७. ७9 9) आदीधर »9 ३ #.
पश्चात् इसी लाइन में, बाज के बड़े मंभारे के तौर पर
श्री सुविधिनाथ भगवान् का शिखखंद मंदिर है। इसको
लोग शान्तिनाथ भगवान् का मंदिर कहते हैं। परन्तु
उसमें अभी मूलनायक श्री छविधिनाथ भगवान् की
पंचतीर्थी के परिकर वाली मूर्ति विराजमान है। उनके
दाहिनी तरफ पुंडरीक स्वामि की एक मनोहर मूर्ति है ।
उसमें दोनों कानों के पीछे ओमा, दाहिने कंधे पर
अँहपत्ति, शरीर पर बस्र की आहृति, मस्तक के पीछे
मार्मडल ओर पतद्मासन-पालकी के नीचे सं० १३६४ का
लेख है । अपने बांये हाथ की तरफ मूलनायक श्री संभव-
नाथ भ० की पंचतीर्थी के परिकर वाली घूत्ति १ और दाहिनी
तरफ मूलनायक श्री धर्मेनाथ भगवान् की पंचतीर्थी के
(भी पुंडरीक स्वामी को यह झूर्ति, विमलवसदि मन्दिर का
जोग्योद्धार कराने वाले शाह वीज़ड़ की धर्मपत्ती बील्दणदेवी के
कल्याणायें घपथमसिंद्ध ने बनवाकर उसकी प्रातिष्टा सं० $इ2४ में
ओ झ्ावचन्द्र-धूरीबरजी से काई है।
( १८० )
परिकर वाली मूर्त्ति १ हैं। मूलनायक श्री छुविधिनाथ
भगवान्, थ्री संमवनाथ भगवान् और श्री घर्मनाथ
भगवान् की बैठकों के ऊपर बि० स॑० १४४० के लेख हैं।
किन्तु ये सब पिछले गाग में होने से पूरे २ पढ़े नहीं जाते।
बिना परिकर की मूत्तियोँ ६ तथा परिकर से अलग हुए
काउस्सग्गिया १ है। इसके बाद-- [
देहरी नं० ८ मूलना० श्रीनेमिनाथ भ० आदि की ह सूर्चियाँ दैं।
#.. है »# ओऔआदिनाथ भग० की १ मूर्ति है
ह. | र् दा का 4) है 4 हक ।
# ११ $# 4$ आदि की ६ मूत्तियाँ हैं।
इमके बाद की दो देद्दरियाँ खाली हैं ।
इस मंदिर में गर्भागार ( मूल गंभारा )) ग्रह मंडप
ओऔर नव चौकियों हैं। रंग मंडप तथा भमति का काम
अधूरा रह्या हो, ऐसा मालूम होता है। भमति में भरी छवि-
घिनाथ ममबान् का शिखरबंद मंदिर ओर दोनों तरफ की
मिलाकर कुल २० देहरियों हैं। जिनमें से १८ देहरियों
में मूर्तियों विराजमान हैं सौर २ देहरियाँ साली हैं।
इस मंदिर के गृह मंडप में जाने के मुख्य द्वार क्री
मंगल मूर्चि के ऊपर छज्जे की नकशी में भगवान् की खड़ी
( श८१ )
तथा बैठी १६ मूर्चियाँ हैं । उसी द्वार के वारसाख के
दाहिने भाग में एक काउस्साग्गिया ओर बारसाख के
दोनों तरफ हाथ जोड़े हुए आदक की एक एक खड़ी
मूर्ति बनी है ।
गृह मंदिर के प्रवेश द्वार के आतिरिक्त उत्तर व दकिण
पदिशाओं के दरवाजों की मंगल मूर्ति के ऊपर भगवान्
की एक ग्रैठी और दो खड़ी-ऐसी तीन २ मूत्तियाँ खुदी हैं ।
इस मंद्रि की छुल सूक्तियाँ इस प्रकार हैं।--
( १) मूलनायक थ्री आदीश्वर भगवान् की पंचतीर्थी
के परिकर वाली धातु की बड़ी प्रतिसा |
(२) पंचतीर्थी के परिकर वाली संगमरमर की
मूत्तियाँ ४
(३)ब्रितीयी के “*,. «५ #» मूर्चि १
(४ ) परिकर रहित भूत्तियोँ ८३
(४) धातु की बड़ी एकल मूर्तियों ४ ( २ मूलगंभारे
में और २ गृह मंडप में )
(६ ) परिकर में से जुदे पड़े इये छोटे काउस्सरिगये ७
| मद्साना निवासी सूत्रधार मेडण के पुश्च देवा नामक कुशद
कारीगर ने यदद मनोहर मूर्ति घनाई दे, को उसके कल्मा-कोशक्य का
खुंदर नमूना दे ।
(६ रैदर
(७) धातु की त्रितीर्थि १
(८) धातु की एकतीर्थियां ३
(& ) श्री पुंडरीक स्वामी की मूर्चि १ ( सविधिनाय
भगवान् के गंगारे में )
(१०) थी गोच्मस्कामी की मूचि १ ( गृढमंडप में )'
(११) थी आम्बिका देवी की मूत्ति १ ( ५ )
न्न्जजत+
पित्तलहर के बाहर--
' पित्तलहर (भीमाशाह के भंदिर ) के मुख्य प्रवेश
द्वार के बादर बां हे तरफ, पूजन करने थालों को नहाने के
लिये गरम व उंडे पानी की व्यवस्था वाला मकान है और
दाहिनी तरफ एक बड़े चबूतरे के कोने में चंपा के दरख़्त
के नीचे एक छोटी देहरी है। इसे लोग बीरजी की देहरी
कहते हैं। इसमें सणिभद्र देव की मूर्ति है।
इस देहरी के दोनों तरफ सुरहि ( सुरमी ) के कुल
चार पत्थर हैँ । एक सुरददि का लेख बिल्कुल पिस गया दे।
शेप तीन सुरदियों फे लेख कुछ कुछ पढ़ें जाते हैं। दो
सुरदियों पर ययाक्रम से वि० सं० १४८२ ज्येप्ठ सुदी £
|... री दल. ७५७७४५८ ७८४४४ आप जि
9 न:
६ शैप्३े )
लेख हैं। जो इन मंदिरों में गांव गराशादि भेद किये गये
थे, उस विषय के हैं आर एक सुरहि पर अगहन वदि ४
सोमवार बि० सं० १४८६ का अचुुदाधिपाति चौहान राज-
घर देबड़ा डुडा का लेख है। इस लेख का बहुत छुछ
हिस्सा घिस गया है। कुछ भाग पढ़ाई में आता है । जिससे
मालूम होता है कि--राजघर देवड़ा चुंडा, देवड़ा सांडा,
मंत्री नाथू ओर सामंतादि ने मिलकर राज्य के अम्युदय के
लिये विमलवसहि, लूणचसहि व पित्तलहर ये तीन
संदिरों और उनके दशन-यात्रा के लिये आने वाले यात्रियों
से जो कर लिया जाता था वह माफ किया, और इस तीर्थ
को कर ( टैक्स ) के बंधन से हमेशा के लिये मुक्त कर
खुल्ला कर दिया।
इस लेख के लेखक, तपगच्छाचाय्ये श्री सो मरुंदर-
सरि के शिष्य प॑० सत्यराज गणी हैं। इससे यह मालूम
होता है कि--भ्री सोमसुन्दर सरीम्वर जी महाराज अथवा
उनकी समुदाय के कोई प्रधान व्यक्ति के उपदेश से यह
काय्ये हुआ होगा। साधन-संपन्न विद्वानों को उस अवशेष
भाग के वर्णन को जानने के लिये प्रयत्न करना चाहिये ।
उसके पास के एक पत्थर में ऊपर के खंड में स्री के
चूड़े वाली एक भुजा खुदी है, जिसके ऊपरी भाग में ध्स्म-
( १८४ )
चंद्र बने हैं। नीचे के भाग में स्ली-पुरुष की दो खड़ी घूच्तियोँ
खुदी हैं। दोनों हाथ जोड़ कर खड़े हैं! अथवा जोड़े हाथों
मे कलश या फल हैं। उसके नीचे वि० सं० १४८४ का
संघवी अमझु का छोटा लेख है। यथा संभव यह हाथ
ईक्रेसी महासती का होगा।
इसके पास के कोने के एक पत्थर में गजारूढ़ मूर्ति
अनी हैं, वह शायद माणिभद्र वीर की पुरानी भूर्ति होगी।
इसके पास ग्दभ चिह्नित दान पत्र का एक पत्थर हैं।
धत्थर पर का लेख प्रिल्कूल घिस गया है।
अर ह. हन्नथ ४.
"३ के (३9७ ६॥ १७8 है >६ 3४ 22]9 )00७ 2£॥% ( पवाण5 ४१४७ ) ह]धिर-म्ऐेड३
डे 8 222॥7 ११॥७ <£॥
( १८५ )
ज#५४१७४२/७१५:६४१४६८७४:२४७४८३८०
हे खरतर वसहि ( चोमुखजी का मंदिर) है
228:४७४४७:४॥४३४७४४६४४६४:४७४६७:॥६४७४७:४७४७)
देलवाड़ा में चौथा मंदिर पाश्थनाथ भगवान् का है!
यह चतुर्मुख युक्त होने के कारय चौझुखजी के नाम से
सशहूर है। यह खरत्तर चसाहि के नाम से भी विख्यात है।
इसका कारण यही होगा कि--इस मंदिर के मूलनायकजी
बगेरह की बहुतसी प्रतिमायें खरतरगच्छ के श्राव्कों ने
बनवा कर खरतरगच्छ के आचार्य्यों द्वारा प्रतिष्ठित कराई
“हैं। शायद इस मंदिर के निर्माता भी खरतरगच्छालुयायी
आवक हों।
यह मंदिर किसने और कत्र बनवाया ? यह. इस मंदिर
के लेखों पर से निश्रयात्मक मालूम नहीं दोता। परन्तु
इस मंदिर के खरतर चसहि नाम से, सूलनायक्जी एवं
अन्य कई एक प्रतिमाओं के बनवाने चाले खरतरगच्छीय
आरावकों व अ्तिष्टापफ खरतरगच्छीय आचास्यों के होने से,
मंदिर के मृल-गंभार के बाहर की चारों तरफ की नकशी
में खुदी हुई आचायों की बेठकें, चेत्रपाल भैरव की नत्
आतचियें ओर इस मन्दिर में पार्थनाथ भगवान की मूर्चियों
( १८६ )
की विशेषता आदि सब बातों का निरीक्षण करने से यही
ज्ञात होता है कि--इस मंदिर को बनवाने वाला अवश्य
कोई खरतरगच्छाजुयायी ही भ्रावक होगा |
इस मंदिर के तीनों मंजिलों के तीनों चौश्ठखजी के
मूलनायकजी की भूर्तियों की बैठकों के दोनों तरफ़ व
पीछे बड़े २ लेख हैं, हिनका बहुत इछ हिस्सा चूने में
दब गया है । प्रकाश के अभाव व स्थान की विपमता के
कारण यद्द लेख पूरे पढे नहीं जाते हैं। थादि पूरे २ पढाई
में आयें तो इस मंदिर के निर्माता, मूर्तियों के वमवाने
वाले और प्रतिष्ठापक आदि के विपय में बहुत कुछ प्रकाश
डाला जा सकता है। उन सूत्तियों की वेठकों के सनन््मुख
( अगले ) भाग में जो थोड़े २ अच्षर लिसे हैं, उनसे
मालूम होता है कि- थोड़ी मूत्तियों के सिवाय, इस मंदिर
के तीनों मंजिलों के मूलनायकेजी आदि बहुतसी प्रतिमायें,
दरड्ा गात्राथ ओसवाल संघवी मंडलिक ने तथा उसके
कुद्ुनियों ने बि० में० १४१४ में तथा उसके आस पास
में बनवाई हैं। उनमें से बहुतसी मूर्सियों की प्रतिष्ठा खरतर-
गच्छाचाय्य श्री जिनचन्द्रसयूरिजी ने की ई।
थहां के दिगम्पर जैन मंदिर के वि० सं० १४६४ के
लेस में और भ्रीमाता के व मीसाशाह के मंदिर की ज्ञाग
( १८७,)
की व्यवस्था विपयक बवि० सं० १४६७ के लेखों में
भीमाशाह के मंदिर का नाम है। किन्तु इसका नाम नहीं
हैं तथा पित्तलदर मंदिर के बाहर की एक सुरहि के
सं० १४८६ के लेख में उस समय देलवाड़े में कुल तीन ही
जैन मंदिर होने का लिखा है | इन सब लेखों से मालूम
होता है कि--यह मंदिर उस समय विद्यमान नहीं था!
अतएव यह मंदिर वि० सं० १४६७ के बाद ही बना हो,
ऐसा प्रतीत होता है। अब इस मंदिर को किसी दूसरे ने”
बनवाया हो, और सत्र १८ चपे के अन्दर ही संघयी
संडलिक उसका जीर्णोद्धार करावे, तथा नई मूत्तियाँ
मूलनायकजी के स्थान में विराजमान करे, यह असंभवित
है। इससे यह अनुमान होता है कि--यह मंदिर अन्य
किसी ने नहीं, परन्तु संघवी संडलिक ने ही वि० से०
१४१४ में बनवाया होगा।
इतिहास प्रेमी लोग, भीमाशाह के मंदिर के प्रथम
प्रतिष्ठापक, प्रतिष्ठा का समय, एवं इस मंदिर के निमोतता
के विपय में खोज करके निश्चित निर्णय प्रकट करें, यह
आवश्यकीय है ।
इस मंदिर को, कई लोग “ सिलावटों का मंदिर ' कहते:
हैं। लोगों में ऐसी दंतकथा है कि--
( शैप्छ )
विमलचसद्दि व लूखवसहि मंदिरों की बची हुई
पत्थर आदि सामग्री से कारीगरों ने खुद की ओर से
( अवेतनिक ) यह मंदिर बनाया है |”
परन्तु यद्द बात मानने योग्य नहीं है। क्योंकि किसी
भी लेस या ग्रन्य का इसमें प्रमाण नहीं मिलता है । दूसरी
“बात यह है कि-प्रिमलयस॒द्दि और लूशयसहि के बनने के
समय में ही दोसो वर्ष का अतर है। अर्थात् तिमलवसादि
“मंदिर के नचे हुए पत्थर दोसो वर्ष तक पडे रहें हों और
उसझे बाद लूणवसहि की बची सामग्री इफट्टी करके
टसिलाबटों ने अपनी तरफ से यद्द मंदिर बनाया हो, यह
प्िलकुल असंमवित है | तथा यह मंद्रि लूयबसहि जितना
७०० वर्ष का पुराना भी मालूम नहीं होता। साथ दी
साथ, उपर्युक्ष दोनों मढिरों के पत्थरों से इसके पत्थर
बिलकुल भिन्न है। इत्यादि कारणों से यह मंदिर पिलावटों
का नहीं है, यह निश्चित होता है। सम्भव हैं कि--इस
मंदिर के सभा मंडप के दो तीन संभों पर सिलायटों के
नाम खुदे हुए होने से लोग इसको 'स्िलायटों या कारीगरों
का मंदिर' बताते हों ।
यह मंदिर सादा परन्तु विशाल हैं। ऊंची जगद् पर
चना होने से तया सब मन्दिरों से ऊँचा होने से गगनस्पर्शी
हे हद
विट्स््लस्सलितन्चि
च्द्धद
रू
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४५2५ १८7 00५८ 3-+«
(827 मल पर एगप
45
परतर-घसद्दि ( चतमस्ब प्रासार ),
पश्चिम दिएा के मूलनायक था पाधनाध सग्बान
६ शृ८६ )
मालूम होता है। इसी कारण से बहुत दूर से यह मन्दिर
दिखाई देता है। इस मंदिर की तीसरी मंजिल पर चढ़कर
चारों तरफ देखने से आबू की प्राकृतिक मनोहरता सुन्दर
मालूम होती है। तीनों मंजिलों में चौम्मखनी विराजमान
हैं। सब्र से नीची मेजिल में मूल गम्भारे के चारों तरफ
बड़े बड़े रंगमंडप हैं ओर उसी मुख्य गम्मारे के बाहर
चारों तरफ सुन्दर नकशी है। नफशी के बीच बीच में
कहीं कदीं भगवान् की मूर्तियों, काउस्सग्गिये, आचारय्यों
और आवक-आविकाओं की मूर्तियां बनी हैं। यक्षों और
देव-देवियों की मूर्तियों तो कसरत से हें। उसमें भेरबजी
की नम्म मूर्ति भी हैं। इस मंदिर में पा्चनाथ भगवान्
की प्रतिमाओं का बाहुलय दिखता ह्दे।
मूर्ति संख्या व विशेष विवरण--
भीचे की मंजिल में चारों तरफ मूलना० श्री पायनांथ
भगवान हैं। चारों मूर्सियें भन््य, बड़ी व नवफरणांयुक्त प्रिकर-
बाली है। उनमें (१) उचर दिशा में चिंतामणि पाश्वनाथ,
$ दिशा में मंगलाकर पारश्यनाथ। (३) दक्षिण दिशा
पार्खनाथ और (७) पश्चिम दिशा में मनोरथ
कल्पद्वम पाश्वैनाथ दें। ये चारों मूर्चियाँ सं० १४१४
( ६२६० )
हम संघपति मंडलिक ने बनवाकर उनकी खरतरगच्छीय
ओऔ जिनचन्द्रसूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई है । इनके अति-
रिक्त इस प्रथम मंजिल में परिकर रहित १७ भूचियां हैं।
यहां पर ही दो दिशा की तरफ के मूलनायक मगवाव्
के पास अति सुन्दर नकशीवाले संभों के साथ पत्थर के
दो तोरण-महरादें बनी हैं।। प्रत्येक तोरण में मगयात्
की खड़ी व बेठी ३९-४१ मूचियाँ खुदी हुई हैं।
शेप दो दिशाओं में भी ऐसे तोरण पहिले थे। शायद
खंडित हो जाने के कारण अलग कर दिये गये होंगे ।
झेसे ही नकशी वाले दो खंमे ओर एक तोरन के डुकड़े,
-खंडित पत्थरों के गोदाम में पढ़े हैं ।।
इस मंदिर के नीचे की मंजिल में, मूल गंभार के मुख्य
द्वार के पाम, चौकी के संभों के ऊपर के दासों में
अगयान् के उपदन कल्याणक का च्श्य खुदा हुआ है।
इसके बीच में मगयान् की माता पर्लंग पर सो रही ह।
पास में दो द्ासियां बैठी हैं। उसके आस पास दोनों तरफ
मिलकर १४ स्वप्न हैं। उनमें समुद्र ओर विमान के बीच
६ इसारी सूचना से इन दोनों खग्मों को यहां के कार्यवाइकों ने इसी
ऑंदिर के झूलनाथकर्जी के पास साढ़े करवा दिये हैं। इनके ऊपर का सोहन
ज्तया खनवाने के लिये मायुरू व धनी गृहस्थों छो प्यान देना चाहिये।
( १६१) पे
के एक खंड की नकशी में दो आदप्ियों के कंधे पर पालकी
च्ै
हुँ। पालकी में एक आदमी लंबा होकर बेठा है। वह
शायद राजा अथवा स्वप्त पाठक होगा।
दूसरी मंजिल में भी चामुखजी हैं, जिसमें (१) दक्तिण
ददेशा में मूलनायक श्री छुमतिन्गथ भगवान् की और
(२) पश्चिम दिशा में मूलनायक श्री पास्वेनाथ भगवान्
की भ्रतिमा विराजमान है। ये दोनों मूत्तियाँ खरतरगच्छीय
आविका मांजू की बनवाई हुई हैं! (३) उत्तर दिशा में
धन्ना श्रावक की बनवाई हुई मूलनायक थी ह्यादिनाथ
अगवान् की मूर्त्ति और (४) पूर्व दिशा में संघपति सेड-'
लिक की वनवाई हुई मूलनायक श्री पाम्वेनाथ भगवान्
को मूर्ति हं। इन चारों मूत्तियों की प्रतिष्ठा सं० १५१४
आपाढड़ कृष्णा १ शुक्रवार को हुई है।
इसी खंड ( मंजिल ) में परिकर रहित अन्य २२ जिन
बिंव हैं। इनमें से कह एक विंवों में मात्र बनवाने वाले
आवबका भ्राषिकाओं के नामों का उन्नेख है ।
यहां पर चौगुखजी के पास ही में अस्बिका देवी की
एक सुंदर बड़ी मूर्ति है। इस मूर्ति को इसी मंदिर में स्थापन
+ संघपति मेडलिक के छोंट भाई माला की पद्दी ।
( ६२ )
करने के लिये सं० मंडलिक ने वि० सं० १५१५ के
आपाठ वंदे १ शुक्रवार को बनवाकर खरतरगच्छीय
आचार्य्य श्रीजिनचन्द्रसरिजी से इसकी ग्रतिष्ठा कराई,
इस मतल्त्र का इस पर लेख है।
तीसरी- मंजिल में सं० मंडलिक की यनदाई हुई
पास्वनाथ भगवान् की ४ मूत्तियों हैं । इनकी भी अतिष्ठा
ऊपर की मूर्त्तियों के साथ ही बि० सं० १४१५४ के आपाड़
कृष्णा ग्रतिपदा शुक्रवार को हुई है। चौथी सूत्ति पर
“ट्विवीयभूमी भरी पार्बननाथः ” ऐसा लिखा हैं। इससे यह
सिद्ध छोता हैं ककि-खास करके यह सूर्चि दूसरी भंजिल के
लिये द्वी चनवाकर वहां स्थापित क्री होगी, परन्तु पीछे
से किसी कारण से तीसरी मंजिल में विराजमान की होगी।
तीसरी मंजिल में सिर्फ चार मूत्तियाँ ही ह।।
इस मंद्रि की कुछ मूत्तियँ। इस प्रकार हैः--
(१) नीचे के खंड में चोम्ृखनी की परिकर बाली
भव्य और बड़ी मूर्चियाँ ४
( २ ) परिकर रहित मूर्ियों ५७
( ३ ) अंब्रिकादेवी की सूर्चि £ ( दूसरे खंठ में )
६ यिचार्तो सूचियों पश्खि नवकण युक्त परिकर दाती थीं।
(
१६३ )
प्री
|]
देंलवाड़े के पांचों मंदिरों की. स्ुत्तियों का संख्या
फट [छः रथ
| ।॒ छः एि (0: ) ्
मूत्तियोँ बसैर: हि | है टू
(५3 रथ 2] बट कि । # कि
4 के परिकर ।
बाली १०८ मन धातु ही
की मूलनायक अआदि-
नाथ भण० की समूत्ति
२ | धातु की बड़ी एकल मू० न उन
3 |पंचतोर्थी के परिकर-
। | धाली म॒त्तियाँ ४४ २
४ | जितोर्थी के परिकरवाली
मूत्तियों ११... १ १ १
५ सादे परिकर वाली म्० | ६० ७२ |... | -- १३
६ | परिकर रदित मूर्त्तियों. (३६ ३० ८रे [४७१०६ २| ३१
७ | बड़े काउस्सग्गिये ६|.० | «|. र्
छ|चीचे के खंड में मूस-
,/चायकजी की परिकर-
'घाली बड़ी मूर्तियोँ ...
मबर्
_< | तीन चौबीसियों के पद्
2० | १७० जिन का पट्ट
११| एक चौदीली के पद्
१२ | जिन-माता चौदीसी फे
श्र
श्छ
श्र
श्ध्
4
श्ध
श्र
न्ब्श्
पद्ट पूरे. «« 38
जिन-माता चौदीली का
पह्चअपूर्ण -. नि
अश्वावबोध तथा खम-
लि-विद्वार तौर्थ-पट्ट --- | ---
धातु की छोटी चौबीसी
घातु की द्वोटी पंचतीर्थी
चातु की चोटी जितीर्थी
चातु फी छोटी एकतीर्थी
चातु की यहुत ही दोटी
पकल मूर्चियाँ....
अपिका देवी फी घातु
की भूर्सि -.- &न्०
चौरीली में से दृषरू हुई
ऐसी दोटी जिन-मूर्तियां
; नए ड़ संपया ।
ध॑ ४+ ४४ +७ कक
हू है| | ू हिहहह 6 मूर्तियों धगेरः
श्र से पृथक् हुए
काउस्सग्गिये
ड४ | आदीधश्वर भ० के चरण-
पाहुका फी जोड़ी .--
5२४ | पुंडरीक स्वामी पी मार्से
४२४ | गौतम स्वामी की सूर्ति
२६४॥ राजीमती की मूर्त्ति ... | ««
श्ु
२७ | समदसरण की रखना | ४ |. (|| (| ४े
२८ | मेरे पवेत की रचना-.- |... 2.२० ७ | है
२९ | आचायों की मूर्तियों .. | ३ | २ र्
३० | धावक-भाविकाओं फे
बड़े युगल ... ४॥० | ० बन छ
जे१ |थावकों की मूत्तियाँ ... | ४ । १० ... | «* श्छ
३२ |धाविकाओं फी मझूर्सियाँ | ४ | १५ .«« मं श्र
ज३ [देददरी ने० १० में दाथी
थ घोड़े पर बैठे हुए
श्रावर्कों की दो मूर्सियों
बाला पद्ट - न
मी
भदायौर स्था:
ब्रे४ (उसी देहरी में नौंना
आदि आठ श्रावकों की
सूर्चियों का पद्ध --- | १
३५ | नवचौकी के ताए में
तीन श्ाविकाओं की
मूर्ति का पद्ट -- -- | १
ऋ%६ यक्ष की मार्सियाँ. ...
७ | अग्विका देवी की
मूर्त्तियों ७» बच
३४। लक्ष्मी देवी की सात्ति 5
३६ |मैरवजी की मूत्ति ...। १.०... ..
:7:0॥000 परिकर से प्रथफ् हुई
ड्ब्द््को मूत्ति बन है
४१ मूलनायक शदेत चार
तीथी का परिफर
४२ | खाली सादे परिकर... |...
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मंदिर छू साथ मे की गई है
( श्ध्प)
हे ७३ ७ ओ $-के $ ऊेत ओफेत्सनि
९ ओरीया £
आर5*थ्य्स्व्न्स्थ्य्व्प्स्श्सख
देलवाड़ा के उत्तर-पूषे ( ईशानकोण ) में लगभगः
श॥ मील की दूरी पर ओरीया नामक गांव विद्यमान है।
अचलगढ़ की पकी सड़क पर देलवाड़ा से लगमंग तीन
मील पर सड़क के किनारे पर ही, अचलगढ़ के जैन मंदिरों
के कार्यालय की तरफ से एक पका मकान घना है। जिसमें
उक्त कार्यालय की ओर से दी गरम व ठंडे पानी की प्याउ
बैठवी है। यहां से भोरीया की सड़क पर तीन फर्लाग
जाने से सिरोद्दी स्टेट का डाक बंगला मिलता है, वहां तक-
पकी सड़क हैं। डाक बंगले से पगढंडी के रास्ते से तीन
फलाँग जाने से ओरीया गांव मिलता है। यद गांव
श्राचीन है। संस्कृत ग्रंथों में “ओरियासकपुर। 'ओरीसा
प्राण! और “ओरासा ग्रा! इन नामों से इस ग्रास का उद्नेख
आता है। यहां श्रीसंघ का बनवाया हुआ श्री महावीर
” स्वामी का बढ़ा व धाचीन मंदिर है। इस मंदिर की देख
रेख अचलगढ़ जैन मंदिरों के व्यवस्थापक लोग रखते हैं
यहां पर आबकों के घर, धर्मशाला और उपाथय झादि कुछ
( १६६ )
नहीं हैं। इस गांव के बाहर कोटेयर 4 ( कनसलेशर »
मद्दादेव का एक प्राचीन मंदिर है । ऊपर लिखे हुए मागे
से वापिस होकर अचलगढ़ फी सड़क से अचलगढ़ जा
सकते हैं। अथवा ओरीया से सीधे पगड्ंडी के रास्ते
से १॥ मील चलकर अचलगढ़ पहुंच सकते हैं | राजपूताना
होटल से ओरिया ४॥ मील दोता है।
श्री महावीर स्वामी का मंदिर
ओरीया का यह मंदिर श्री 'महावीर स्वामी का मंदिर
कहलाता है। पुरातत्त्यवेत्ता रा० ब० मद्दामहोपाध्याय पं०
गौरीशंकर हीराचंद ओभा ने अपने 'सिरोही राज्य का
इतिद्वास! नामक ग्रंथ के पृष्ठ ७७ में, इस कथन को पुष्ट करने
घाला निम्न लिखित उन्लेख किया है।--
“इस मंदिर में सूलनायकजी के स्थान पर महावीर
मगवान् की मूर्ति है। जिसके दोनों तरफ श्रीपाश्चनाथ व
शान्तिनाथ मगवान् की मूत्तियाँ हैं । ”
परन्तु इस समय इस मंदिर में भूलनायक भरी महावीर
स्वामी के स्थान में श्री आदीश्वर भगवान् की भात्ति विराजमान
3 इस मंदिर का वर्णेन 'हिन्दु तीे एवं दशशनीय स्थान! सामक
अकफरण के नर नंबर में देसो।
६ २०० )
डर, जिसके दाहिनी ओर औपाश्धनाथ मगवान् की व बाई
ओर थरीक्ान्विनाथ मगवान् की मूर्ति है। मूलनायक्रजी
की मूर्ति के फेरफार के सम्बन्ध में देलबाड़ा तथा अचलगढ़
के लोगों से पूछताछ की, लेकिन इुछ पता नहीं लगा।
मूलनायकनजी की मूर्चि का फेरफार हो जाने पर भी लोग
इसको "महावीर स्वामी का मंदिर ही कहते हैं । है
इस मंदिर में उपर्ुक्ष तीन सूरत्तियों के अलावा चौत्रीसी
के पट्ट में की अलग हुई ३ विलकृल छोटी मूर्चियाँ
और २४ जिन-माताओं का खंडित एक पड्ट है। इस मंदिर
में एक भी लेस नहीं है । इसलिये यह नहीं कहा जा सका
क्रि इस मंदिर को किसने और कब बननाया। १४ वीं
आदाब्दि के मध्यकाल में, आवू पर सिक्के विमलवसहि, लूस-
चमहि और अचलगढ़ में छुमारपाल महाराजा का बनवाया
हुआ श्रीमद्वात्रीर स्त्रामी का मंदिर, उन तीन मंदिरों का ही
उल्लेख थी जिन्प्भसूरि कृत 'तोये कल्प) अन्तगत अवुद
कल्प! में पाया जाता है | इस पर से मालूम होता है कि यह
अंदिर १४ वीं शतान्दि के बाद बना है । श्रीमान् सोम-
सन्दरसूरि रायित 'अप्ठदगिरि कल्प ( कि जो करीब
“पंद्इती शताब्दि के अन््ठ में बना है ) में लिया है कि-
ओरियासकपुर ( आरीपा ) में श्रीमंप की तरफ से
( २०१ )
च्नवाय हुए नये मंद्रि' में श्री शान्तिनाथ भगवान्
“विराजमान हैं | इस लेख “से यह स्पष्ट होता है कि-यह
-मंदिर १५ वीं-शताब्दि के अन्त में बना होगा । उस
स्समय मूलनायक के स्थान पर श्री शान्तिनाथ भगवान्
की स्थापना की होगी। लेकिन पश्चात् जीर्णोड्धार के
समय थ्री शान्विनाथ भगवान् के स्थान पर श्री महावीर
स्थामी की मूर्ति अतिप्ठित की होगी। इसी कारण, तब
“से यह मंदिर श्री महावीर स्वापी के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध
हुआ होगा। इस समय मूलनायक श्री आदिनाथ भगवान्
की, मूर्ति होने पर भी यह मंदिर “श्री महावीर स्वामी का
“मंदिर! इस नाम से ही मसिद्ध हैं ।
( २०२ )
धरा हा.
| नचर - अचलगढ़ ;
बननतअ
दैलवाड़ा से उत्तर-पूर्व ( ईशाम कोण ) में लगभग
श॥ मील पर और ओरीया से दक्तिण की तरफ करीब १॥-
मील की द्री पर ह्यचलगढ़ नामक गांव मौजूद है।
देलवबाड़ा से ध्सचलगढ़ तक पकी सड़क है। अरचलेगद”
की तलहडी तक बेल गाड़ियाँ व घरु छोटी मोटरें ( क्योंकि
इस सड़क पर किराये की मोटरॉ-लारियों को चलाने के
लिये मनाई है) आदि जा आ सकती हैं। ध्योरीया गांव
में जाने फी सड़क जहां से छुदी पढ़ती है और जिसके नाफे
पर पानी की प्याऊ है) यहां से झचलगढ़ की तलहट्टी
तक की पक्की सड़क और ऊपर जाने की सीढ़ियों अ्रयक्षगढ़
के जैन मंदिरों की व्यवस्थापक कमेटी ने कुछ वर्ष पदिसे
चहुत दी परिश्रम करके घनयाई हैं। तब से यात्रियों को
यहां जाने आने के लिये विशेष झनुकूलता हो गई है।
ध्यचलगढ़, एक ऊंची टेकरी पर बसा ह। यहां पद्विले
बस्ती विशेष थी, हस समय भी थोड़ी बहुत मस्ती है। इस
परत के ऊपरि माय में ध्मचकगढ़ नामक किला बना
डै। इसी कारण से यद गांव मी ध्यचज्षणदू कद्टा जाता
( २०३ )
है। तलइट्टी फे पास दादिने हाय की तरफ सड़क से थोड़ी
दूर एक छोटी टेकरी पर श्री शान्तिनाथ भगवान् का भव्य”
मंदिर है और बांये हाथ की तरफ ध्चलेम्वर मद्दादेव'
का प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर फे समीप में अन्य दोए
तीन मंदिर और मंदाकिनी कुंडां बगैरः हैं। अचलेश्वर
महंदिव के मंदिर की बाजु में, रास्ते की दाहिनी तरफ अच-
लेश्वर के महंत के रहने के मकान ( जो इस समय खाली
हैं ) और मंदिर के पीछे बावड़ी घ बगीचा है। आगे थोड़ी”
दूरी पर दाहिनी ओर की किले की दीवार में गणेशजी
की मूर्तति है। यहां पर इस समय पोल या दरवाजा नहीं
है, तथापि यह स्थान गणेशपोल के नाम से प्रसिद्ध है ।
गणेशपोल से थोड़ी द्री पर हलुमानपोल है। जिसके
दरवाजे के बाहर बांई ओर की देहरी में हुमानजी की मूर्ति
है। यहां से गढ़ पर चढने के लिये पत्थर व चूने से बनी
हुईं सीढियों का घाट शुरु होता है। इस पोल के पास घाँई
तरफ कपूरसागर नाम का पक्का वंधा हुआ छोटा तालाब
है। इसमें बारह महीने पानी रहता है । वाल के किनारे परू
जैन श्वे० कार्यालय का एक छोटा बाग है और उसके सामने
वन :2 22:07 4 26: 6: 47% ४ मटका 22:20 3:
मेदाकिनी कुंड व अचलेश्वर मद्वादेव भादे अन्यान्य स्थानों ८
के सिये 'दिन्दु तोये और दर्शनीय स्थान' नामक प्रकरण को देखो।
( २०४ )
'(दाहिने हाथ; की तरफ) श्री लक्ष्मीनारायणजी “का - एक
छोटा मंदिर है। यहां.से कुछ ऊपर चढने पर, चंपापोज
आंतीःहै, इसके दरवाजे'के बाहर एक तरफ महादेवजी की
: देहरी दे । फिर थोड़े आगे जाने पर दाहिनी ओर जैन श्वै०
कास्योतय, जैन धर्मशाला और ओर छुंयुनाथ भगवान्
“का मंदिर मिलता है। रास्ते के दोनों तरफ महाजन आदि
लोगों के कुछ मकान हैं। दहां से छुछ दूरी पर बांई
“तरफ दीवाल में भैरवनी की मूर्ति है। यह स्थान मैरव-
पोल के नाम से मशहूर है। फिर थोड़ी दूर आगे बाई
ओर बड़ी जैन धर्मशाला है। धर्मशाला,फे अंदर होकर
थोड़ा ऊपर चढने से श्री आदीश्वर भगवान् का छोटा
मंदिर मिलता है तथा वहां से जरा ओर ऊंचे चढ़ने 'से
शिखर की शिखा पर चामुखजी का बड़ा मंदिर आता है ।
इस स्थान को यहां के लोग 'नवंता जोध' कहते हैं।
बड़ी धर्मशाला के दरवाजे के पास से ऊपर जाने को
रास्ता है। वहां से थोड़ी दूर आगे एक गिरा हुआ ग्राचीन
दरवाजा है। यह ऊूंभा राणा के समय का छठा दरवाजा
कहा जाता है। यदां से थोडी दूर श्ागे 'सावन-भादों
जाम के दो छुंड हैं। इनमें हमेशा पानी रहता है। फिर |
अथोड़ा ऊंचे चढने पर पर्वत के शिसर के पास ध्यचल्षगढ़
( २०५ )
नामक श्राचीन टूटा किला मिलता है। किले के एक तरफ
से थोड़ा नीचे उतरने से पहाड़ को खोद कर बनाई हुई
दो मंजली गुफा मिलती है। इसको लोग सत्यवादी राजा
हरिश्वन्द्र की अथवा गोपीचंद की गुफा कहते है। इस
गशुफा के ऊपर एक पुराना मकान है । इसको लोग झुँमा-
राणा का महल कहते हैं। यहां से, सीधे रास्ते से नीचे
उतर कर) प्मचलगढ़ आ सकते है|
'श्रावण-भादों कुंड” के एक तरक के किनारे के
उपरी हिस्से में थोडी दूरी पर चास्ुडादेवी का एक छोटा
मंदिर दे ।
उपयुक्त कथनालुसार आमचलगढ़ में चार जैन मंदिर,
दो जैन धरमेशालाएँ, का्योलय का मकान व एक बगीचा
बंगेर। जेन खरे» का्योज्य के स्वाधीन है। यहां श्रावक का
सिफ एक ही घर है। कार्यालय का नाम शाह ध्यचलजशी
अमरशी (अचलगढ) है। जेन यात्रियों के लिये यहां सब
प्रकार की व्यवस्था है। यात्री चाहें तो यहां ज्यादा समय
भी रह सकते हैं। किराया कुछ नहीं देना पड़ता । कार्यालय
का नौकर हमेशा डाक लाता-ले जाता है। थोड़े समय से:
कार्योलय वालों ने भोजनालय खोल रक््खा है। जिससे
( २०६ )
आात्रियों को बहुत सुविधा हो गई है । एक झादमी के एक
-बक्र के भोजन का मूल्य चार आना है। यहाँ की आबोहवा
अच्छी है । प्रतिवर्ष माघ शुक्ला पंचमी को बड़ा भारी मेला
होता है। यहाँ का कार्यालय, रोहिड़ा थ्री संघ की कमेटी
“की देखरेख में है। ओरिया के शस्ते की प्याक। औओरिया
के जैन मंद्रि की संभाल, आबू रोड के रास्ते की जैन
“धर्मशाला ( आरणा तलहट्टी ) और चहाँ यात्रियों को
जो भाता-नाश्ता दिया जाता हैं, ये सब हअमचलगढ़ के
कार्यालय की तरफ से होते हैं ।
उपर्युक्त गढ़, मेचाड़ के महाराणा कुंमकर्ण ( कुमा)
-ने वि० सं० १४०६ में बनयाया था। महाराणा इस किले
में बहुत दफे रहते थे। ऊपर कथित चौम्ुखजी का दो
जिला मंदिर, हमचलगढ के ही रहने वाले संपवी सहसा
ने बनवाया है। जिस समय मेबाड़ाघीश कुंभाराणा थ
उनके सामंत, योद्धा लोग तथा संघवी सहसा जैसे अनेक
“घनाद्य यहां झमचलगढ़ में वास करते द्वोंगे, उस समय
धआचतलगढ़ की कीर्चि व उन्नति क्विवनी होगी? और यहां
चनाव्य और सुखी भ्रावकों की झ्रावादी भी कितनी होगी!
उसकी बाचक स्वयं कल्पना कर सकते हैं, इसलिये इस पस्तु
“पर विशेष वर्णन करने की आवश्यक नहीं है।
(१) चौझुखजी का सुरूष संद्रि--
यह मंदिर, राजाधिराज श्री जगमाल के शासनकाल
अं अचलगढ़ निवासी प्राग्वाट ( पौरवाल ) ज्ञातीय संघवी
सालिग के पुत्र संघवी सहसा ने बनवाया तथा उन्होंने
ओऔ ऋषभदेव भगवान् की धातुमयी बहुत बडी और
अव्य मूर्ति को इस मंदिर में उत्तर दिशा के सन्युख, मुख्य
मूलनायकजी के स्थान पर विराजमान करने के लिये
अनवाकर, इसकी भ्रतिष्ठा तपगच्छाचाय्ये श्री जपकल्याण-
रूरिजो से सं० १५६६ के फाल्गुन शुक्ला १० के दिन
'कराई। इस समय पर संघवी सहसा के काफा आसा ने
बड़ी धूम धाम से मद्दोत्सव किया। यह मूर्ति (और शायद
यह मंदिर भी ) मिख्री वाच्छा के पुत्र मिल्री देपा, इसके पूत्र _
'मिस्री अबुद, इसके पुत्र मिस्ती दरदास ने बनाई है। मूर्चि
'पर वि० सं० १५६६८ का उक्त आशय वाला लेख है।
५
( ०८ )
दूसरे-( पूर्व दिशा के ) द्वार में भूलनायके थी आदी-
खर भगवान् की:धातु की मनोहर ,मृचिं विराजमान है।*
यह मूर्ति; सेवाड़ के राजांधिराज कुंभकर्ण के राज्य में,
कंमलंमेरु गांव के, तपणच्छीय श्री संघ ने अपने
चनवाये हुए चोमुखजी के मंदिर के मुख्य द्वार को छोड़-
“कर अन्य द्वारों में विराजमान करने के लिये बनवाई और
हूंगरपुर नगर में, राजा सोमदास के राज्य काल में,
आओसवाल साह साल्हा के किये हुए आश्रयंकारो अ्रतिष्ठा
* महोत्सव में तपगच्छाचार्य श्री लक्ष्मोीसागरस्रिजी से
बि० सं० १५१८ के बेशाख बदि ४, के दिन इसकी ग्रतिष्ठा
कराई। यह मूर्ति डूँगरपुर निवासी मिस्नी लुं मा और लांपा
बगैरः ने धनाई है। इस पर उक्त सम्वत् का बड़ा लेख है
“ तीसरे (दक्षिण दिशा के) द्वार में श्री शान्तिनाथ
भगवान् मूलनायक हैं। यह शू्ति भी धातु की बड़ी एवं
रमणीय है। इसको कुंभलमेरु के चोमुखजी के मंदिर में
स्थापन करने के लिये वि० सं० १३१८ में उपयुक्त शाह
खाल्हा की माता भ्राविका कमोंदे ने बनवाई है। इस मूर्चे
१ इस मन्दिर के मुस्य द्वार में, आधू से खाई गई, धातु को पड़ी
और मनोहर थी आदी भध्वर भगवान् की खूछि सूकतायक्ी के स्थान पर
विराजमान को थी । न्
( २०६ ,)
पर भी उपयुक्त सं० १५१८ वेशास बदिं ४ का लेख है।
दूसरे व तीसरे द्वार के मूलनायकजी की तथा और भी कह
एक मूत्तियाँ पीछे से किसी कारण से कुंभलमेरू से यहाँ
लाकर विराजमान की गई है ऐसा मालूम होता है। , ,
चौथे (पश्चिम दिशा के ) द्वार में मूलनायक श्री आंदी-
खर भगवान् की धातुमयी रमणीय बड़ी भूर्तति है। यह
सूर्चि स॑ं० १५२६ में इंगरपुर के आवकों ने बनवाई है |.
इसी मतलब का उस पर लेख है।
ये चारों मूलनायकजी की मूर्तियों धातु की, बहुत
बढ़ी और मनोहर आकृतिवाली हैं। चारों मूर्तियों की
बैठकों (गद्दी ) पर पूर्वोक्त संबत् के बड़े और सुस्पष्ट लेख
खुदे हुए हैं।
प्रंथम द्वार के मूलनायकजी के दोनों ओर धातु के
बड़े ओर मनोहर दो काउस्सग्गिये हैं। इन पर बि० सं०
११३४ के लेख हैं। लेख पुराने होने से घिस गये हैं ।
स्थान की विपमता एवं प्रकाश का अभाव भी लेख पढ़ने
में बाघारूप है। अधिक परिश्रम से थोड़े वहुद पढ़ने में
आ मी सकते हैं।
दूसरे द्वार के मूलनायकजी के दोनों तरफ संगमरमर
के दो फाउस्सम्णिये ॥ प्रत्येक काउस्समिये में, शुरूद
( २१० )
काउस्पग्गिया और दोनों तरफ तथा' ऊपर की सूर्तिय
अमेलाकर कुल बारह जिन मूर्तियाँ, दो इन्द्र, एक * थरावत
थे एक आविका की सूर्त्तियाँ बनी हैं। दोनों श्री पार्थमाथ
अगयान् की सूर्ियों हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि-ये दोनों
मूर्तियों एक ही महालुभाव ने बनवाई।,हैं। इनमें बाई
सरफ के काउस्सग्यिये पर वि० सं० १३०२ का लेख है।
तीसरे द्वार के मूलनायकजी के बांई तरफ की थातुं-
संयी भूर्ति पर वि० सं० १५६६ का और दादिनी ओर
की संगमरमर की मूर्ति पर वि० सं० १४३७ का लेख है।
चौथे द्वार के मूलनायकजी के दोनों तरफ की थाहु
की दोनों मूर्सियों पर वि० सं० १५४६६ के लेख हें।
इस प्रकार नीचे के मूल गंभारे में मूलनायकजी की
पाह की मूर्चियों ७, पात के बढ़े क्राउत्सग्गिये २, धातु की
घड़ी एकल मूर्तियों ३, संगमरमर की सूर्चि १ और
संगमरमर के काउस्सग्गिये २ दें | मूलगंमारे के बाहर गृड़
अँडप के दोनों तरफ के गोसले-ताकों में भगवान् की कुल
३ मूर्लियोँ हैं। | आया
/ समा मंडप में दोनों तरफ एक एक देहरी हे। दादिनी
चरफ को देदरी के दीद में मूलनायक पश्नीपाश्षमाय भगयातर
(२११ )
हैं। उनकी दाहिनी तरफ शान्तिनाथ भंगवान् और वांई
तरफ नेमिनाथ भगवान् की मूर्तियों हैं| ये तीनों मूच्तियाँ
वि० सं० १६६८ में सिरोही निवासी पोरचाल' शाह
घणलदीर के पुत्रों (राउत, लखमण ओर फचन्द ) ने
बनवाई हैं। इस मतलब के इन तीनों मूर्सियों पर लेख हैं।
इस देहरी में कुल ३ मूर्चियाँ हैं।
वाई तरफ की देंहरी में मूलनायक श्री नेमिनाथ
भगवान् की धातु की सुन्दर मूर्ति है। इस घूर्ति पर के
लेख से प्रकट होता है कि--बि० सं० १४१८ में प्राग्वाट
(पौरवाल) ज्ञातीय दोसी इूंगर पुत्र दोसी गोइईंद (गोविंद)
से यह मूर्ति घनवाई है। यह सूत्ति भी कुंभलभेरू से यहां
पर लाई गई है। मूलनायकजी के दोनों तरफ एक एक भूर्ि
है। इन दोनों मूर्तियों पर बि० सं० १६६८ के लेख हैं।
इस देहरी में भी कुल ३ सूर्सियाँ हैं।
* इस मंदिर फी भगती में, दूसरी मंजिल पर जाने के
लिये एक रास्ता है। इस रास्ते के पास संगमरमर की
छत्नी है, जिसमें एक पादुका-पट्ट है। इसमें णकदी पत्थर
में नव जोड़ी चरण-पादुका बनी हैं। पट्ट के बिलकुल मध्य
भाग, में ( १.) जंचुस्वामि की पादुका है। इसके चार्रे
, तरफ़ (२) पविजपदेव सरिं) (.३ ) विजंपसिह सरि,
(रह)
(४) पं० सत्यविज्यगणि, (४) प॑० कपूरविजय-
गणि, (६ ) प॑० ज्षमाविजययगणि, ( ७) पं० जिन
विजयगाणि, (८) पं० 5त्तमविजयगणि, ( & ) पू०
पद्मविजयगरणि, के चरण हैं। यह पट्ट अचछगढ़ में
स्थापन करने के लिये बनवाया है। बनवाने वाले के नाम
का उल्लेख नहीं है। इस यह की अतिष्ठा वि० सैं० श्यय्-
के माघ श॒ुक्क ५ सोमवार को पं» रूपविजपगांणि ने की
है। पड्ट पर इस मतलब का लेख है। इस पड्ट के प्रतिष्ठक
ओर छट्नी बनाने के उपदेशक पं० थी रूपाविजयजी दोने-
से इस छत्री को लोग रूपाविजयजी की देहरो कहते हैं।
दूसरी मंजिल पर चौसुखजी हैं। जिसमें (१) पार्थनाथ
भगयान। (२) आदिनाथ भगवान् , (३) आदिनाथ भगवान्
ओर (४) आदिनाथ भगवान् ऐसे चार मूर्तियों हैं। चारों.
मूर्सियाँ घातुमयी हैं। पूर्व द्वार की मूर्चि पर लेख नहीं है ।
यह सूर्ति अति प्राचीन मालूम होती है। शेष तीनों घूचियों.
पर सं० १५६६ के लेख दें। इस खंड में कुल ४ दी
सूर्तियों हैं।
इस मंदिर में ऊपर नीचे होकर घाह की कुल १४
अआूर्चियों हैं। भिनका वजन १४०४ मन होने का लोगों
में कद्दा जाता है। किन्तु पाठकों को मालूम दो द्वी गया
( २१६३ )
है कि-ये सब मूर्तियोँ मित्र २ वर्षो में सिन्न २ व्यक्तियों
'के द्वारा बनी हैं।
यह मंदिर $ पहाड़ के एक ऊंचे शिखर पर बना है,
.इसकी दूसरी मंजिल से आवबू पर्वत की भाकृतिक रमणीयता+
आबू पर्वत की नीचे की भूमि, और दूर दूर के गांवों के
“दृश्य अत्यन्त मनोहर मालूम होते हैं ।
इस मंदिर की दोनों मंजिलों में कुल मूत्तियां इस
“अकार हैं;
धातु की मनोहर शूर्तियों १२, धातु के बड़े काउ-
स्सग्गिये २, संगमरमर के काउस्सग्गिये २ और संगमरमर
की मूर्तियां £-इस प्रकार कुल २४ मूर्त्तियोँ व एक पादुका
पट्ट है।
के यहां के लोगों में दन््त कथा है कि--मेबाड़ के महाराणा
कुमकरण, अचलरूगढ नामक किले के झपने महल के गवाक्त में बैठ कर
उपयुक्त चौमुखजी के मंदिर को दूसरी मंजिल सूलनायक भगवान् के दर्शन
कर सकें, इस प्रकार यह मंदिर बनवाया दाया हैं। परन्तु--यह दन्त कया
पनिर्मूल मालूम, होती है। क्योंकि--महाराणा कुंभक्रण का स्वगवास
खि० प्तें० ११२६ में हुआ है और यह मंदिर बि० सं० १२६६ में बना
“है। शायद यह दुन्त कथा स्पिरोही के उस समय के शासक सहाशय
जगमालते के संचंध में हो, क्योंक्रि---डस समय आयू परदेत पर उनका
नआधिपत्य था।
( ह१२७ )
" (३२) क्रादीख्खर मगवान का मंदिर
यह मंदिर चौमुखजी के मंदिर से थोड़ी दूर नीचे कीं
तरफ है। इसमें भूलनायक्जी की जगह पर आदीशर
भगवान् की मूर्ति है, जिसपर वि० सं० १७२१ का लेस
है। मूलनायकजी के दोनों तरफ एक एक मूर्चि है।
झ्रहमदाबाद निवासी श्रीभीमाल ज्ञाति के दोसी शान्ति-
दास सेठ ने यह घृलमायकजी की मूर्ति बनवाई हैं ! संभव
है यह मंदिर भी उन्हीं ने बनवाया हो, या उन्हीं की वनवाई
हुई यह सूर्चे कहीं से लाकर यहां स्थापित की गई हो ।
इस मंदिर की ममत्री में छोटी छोटी २४ देदरियाँ,
चरण-पादुका आदि की चार छत्रियां, तथा एक चक्रे-
श्वरी देवी की देहरी है । भमती की प्रत्येक देहरी में
-एक एक जिन मूर्ति है । इनमें की एक देहरी में पंचतीर्थी
के परिकर वाली श्री कुंधुनाथ मगवान् की म्रार्ति है,
जिस पर बिं० स॑० १३८० का छोटा लेख है ! चार छत्रियों
में चार जोड़ चरण-पादुका की हैं। इन पादुकाओं पर
अवाचीन छोटे छोटे लेस हैँ | श्ायः ये चारों पादुकायें
यातिओं की हैं और उसमें सरस्वती देवी 4 की एक छोटी
| सरस्वती देवी का देवस्थान बहुत वर्ष से अचलगढ़' पर होते
का ज्ञात होता दे। यह मूर्ति प्रथम उपयुक्त चक्रेश्वरी देवी की देइरी में
("२१४ )
सूर्तिं-्तथा पापाण का एक यंत्र है| एक देहरी में चक्रेथरी
देवी £ की एक सूर्ते है। एक कोठड़ी में काट की' बनीं
हुई भगवान् की सुन्दर किन्तु अप्रतिष्ठित चार मूत्तियोँ
हैं। इस मंद्रि पर कलश तथा ध्वजा-दंड नहीं हैं। श्रीमान्
सेठ शान्तिदास के उत्तराधिकारियों को अथवा श्रीसंघ
को ध्वजादंड के लिये अवश्य ध्यान देना चाहिये।
अथचा अन्य किसी खास स्थान में होनी चाहिए। भौर उसका उस समय
में विशेष महात्य प्रचलित होना चाहिए | क्यों कि-महदाराणा छुभकरवरा
जैसे भी उसके रमने चेठ कर घ।मिक पच्ायतें करते थे। 3से कि-- आशय
की यात्रा के लिये झाते हुए किसी भी जैन यात्री से झुंडका भ्रथवा वोलावा
( चोकी ) नहीं लेने के विषय में भेवाड़ के महाराणा युंभकर शा
( कुभाराणा ) का वि० ४० १४०६ का रेख, जो के ऋब तक देलबाड़े में
खूणवर्साईँ मंदिर के बाहर के कीर्त्तस्टभ के पास है,चद्द लेख ऋचलगढ़
के ऊपर सरस्वती देखी के सामने बैठ कर निर्येय करके लिखा गया है ॥.
+ इस देरी में चक्रेश्वरी देदी की सूत्ति द्वोन का कट्दा जाता है
सेकिन सचमुच में वह मूर्ति चकघरी देदी की नहीं द्व। वर्याकि--चार
हाथ दाली इस मूतत्ति के एक हाथ में खट्ग, दूसरे दवाथ में किशल, तासरे
ड्वाय में बीजोरा ( फछ ) और घोथे हाथ में ग्लास के जैसा छुछ है और
व्याप्त का बाइन है। लव कि- अफ्रेश्वरी देवी के दाहिने चार हाथ में
बरदान, बाण, र# झ पाश और वांये चार हाथो में धजुप्य, ८पम्र, रफ़
और झछुश होते हैं ओर गरद का दाइन होना चाहिये, किन्तु इस में पैसा
नहीं है। इससे शात होता है ढि--यह मूर्ति ढिसी अन्य देधो टी होनी
ब्यडियें, ५ खेकित, यहा, पर सो, ८ अफेपरी शी, के जप्क से पूठी, छपी, है; ५
( २१६ )
इस मंदिर में कुल जिन मूर्त्तियाँ २७, पादुका जोड़ी ४;
सरस्वती देवी की मूर्चि १, चक्रेश्वरी देवी की मूर्ति १ और
थापाण का यंत्र! है।
(३ ) श्री कुंधुनाथ भगवान् का मंदिर
कायालय के मकान के पास देरासर जैसा यह मंदिर
चना है। इस मंदिर को किसने और कब बनवाया ? यह
मालूम नहीं हुआ । इस मंदिर में वि० सं० १४२७ के
लेखबाली श्रीकुंधुनाथ भगवान् की धातु की मनोहर मूर्चि
अूलनायकजी के स्थान पर विराजमान है। मूलनायकंजी
के दोनों तरफ घातु के काउस्सग्गिये २, संगमरमर की
पूर्ति १, धातु की बड़ी एकल मूत्तियोँ २ चोमुएजी
स्वरूप धातु की संयुक्त चार मूर्चियां वाला समवसरण १,
और धातु की छेड़ी मूर्तियाँ ( एकतीर्थी, तितीर्थी, पंच-
सीर्थी तथा चोबीसी मिलाकर ) १६४ हैं। इन छोटी मूर्चियों
* में कहे एक सूर्तियाँ आते श्राचीन है। चूमने से ये छोटी
भूर्चियां स्थिर करदी गई हैं 7। इस प्रकार इस मंदिर
7 _ बडा घादु को ये घोटी मूर्तियों आपेक है। इसलिए अन्य दिसो. ये यहां चातु को ये घोटी मूर्तियां आपिश हैं। इसलिये अन्य किसी
व्जगद्द नये मेदिरों में जहा मूर्तियों को आावरयसूता दो वहाँ दी जाने च्यद्िये
(२१७ )
“ देरासर ) में, ( समवसरण की संयुक्त चारों मूत्तियों को
नजुदी जुदी गिनने से ) कुल १७४ मूर्तियाँ हैं।
इस मंदिर में मूलनायकजी की बांई तरफ धातु की
'पैचतीर्थियों की पंक्कि के मध्य में प्मासन वाली धातु की
'शुक एकल मूर्ति है। इस मूत्ति के दाहिने कंधे पर झंहपतत्ति
आर शरीर पर बख्र का चिन्ह है। इस समय ओघा
(रजोहरन ) नहीं है, परन्तु गरदन के पीछे बना हुआ
गा, पीछे से ट्ूटकर निकल गया हागा, ऐसा अजन्लमान
हो सकता है। पह मूर्ति; देलचाड़ में मीमाशप के
मंदिर के अन्तगेत श्री सुविधिनाथजी के मंदिर में श्री पुंड-
रीक स्वामि की सूर्त्ति है, उसके सच्श प्रतीत होती है।
शायद यह मूर्ति पुंडरीक स्वामी या अन्य किसी गणघर
की होगी। सूत्ति पर लेख नहीं है ।
कायोलय के मकान में गद्दी की छन्नी के पास पीतल
के तीन सुन्दर घोड़े हैं। इन घोड़ों पर तलवार, ढाल
ओर भालादि शत्रों से सुसज्ञित सवार चैठे हैं। बीच के
सवार के सिर पर छत्र है। अन्य दो घोड़ों के सवारों के
मस्तक पर भी छत के चिन्ह हैं। परन्तु पीछे से छत्र
सांकि-उपयोग पूवेक चूजन हो सके। इसलिये इस यात पर परयंधको को
खास ध्यान देना चाहिये
( शरद )
मिकल गये हैं। प्रत्येक घोड़े का सवार सहित वजन
२॥ मन है। अत्येक घोड़े के चनवाने में १०० महसुंदीं
ख़च् हुए हैं। ये घोड़े. इँगरपुर में वनवाये गये हैं।
बीच का छनत्नवाला घोड़ा, कल्की ( कलंकी ) अवतार
के पुत्र धमेराज दस राजा का है और वह, सेघाड़ देश
में कुंभजमेर नामक महादुगे में महाराणा कुभकरण के
राज्य भें, चौम्ुखली को पूजने वाले शाह पन्ना के पुत्र शाह
शादूंल ने वि० से० १५६६ के मा्गशीर्ष श॒क्का १४ के
दिन बनवाया हैं। इस मतलब का उस पर लेख हे £।
इस लेख से यह घोड़ा कुटमलमेझ महादुर्ग के चौम्नख
श्री झादिमाथजी के मंदिर में रखने के लिये बनवाया दो
ओर वहाँ से अन्य मूर्चियों के साथ यहीं लाथा गया दो,
ऐसा अनुमान होता हैं।
3 महसंदी, उस समय का 5उ्नित चांदी का सिद्धा ।
6 इस ज्ेख में ४ भोपमेद्पाददेश हुंभजमेरमद्ादुर्ग भारादात्री
कुंमकरण विजपराज्ये ” इस प्रदार लिखा दें । परन्तु यह अंसयद मालुम
ड्वोता हैं। क्योकि महाराना युंसकरण का स्वगेवास १४२२ में हो चुढा
शथा। सयापि-इंमाराजा ने मेयाद को खूब उद्बत र झाषयाद धनाया था,
इस काररा से उनके घुश्न-पोप्ादि के राज्य काछ में भी सहसाद्या ' कुम-
' करण विजमराउपे ! पेसा कहने लिसने डी प्रधा छोमों में प्रदाक्षित हो
और इस छिये पेसा खिला गया हो, सो यट्ट संमादित दे
( २१६ )
/ इसके दोनों तरफ के घोड़े सिरोद्दी राज्य के किसीः
दो ज्ञत्रिय राजाओं (ठाकुरों) के हैं। दोनों घोड़ों के-
लेखों से मालूम होता है कि-ये घोड़े खुद के बनवायेः
हुए मंदिरों में रखने के लिये उपयुक्त खुद ने ही वि० सं०-
१४६६ में बनवाये थे। लोग इन तीनों घोड़ों को छुंभा-
राणा के कहते हैं। परन्तु यह ठीक नहीं हैं सत्य हकीकत.
उपर्युक्त कथनाजुसार है ।
श्री शान्तिनाथजी का मंदिर
यह मंदिर आचलगढ़ की तलहट्टी में सड़क से थोड़ी
दूर एक छोटी टेकरी पर बना हुआ है। लोग इसको.
महाराजा कुमारपाल का मंदिर कहते हैं। श्री जिन-
भ्रभसूरि “तीथेकल्प' अन्तर्गत श्री 'अबुदकल्प ' में और
ओ सोसऊझुंदरसरि श्री 'अुंदगिरिकल्प ! में लिखते हैं
'कि--/ आयू पवेत पर शुजरात के सोलंकी महाराजा
कुसारपाज़ का बनवाया हुआ महावीर स्वामी का सुशो-
7 + थे सीना घोरे, कार्योत्षय से बद्ो जन धर्मशाला को झोर के 3 ये तीनो घोड़े. कार्यो्षय से बढ़ी जन धर्मशाला की ओर के
रास्ते पर बाई सरफ को देद्दरी में रक्खे रहते थे, जो देरी भाय इन
घोड़ों के किये ही यनवाई यई थी । परन्तु वहां पर टीक २ सैंसाल नहीं
डोती थी, इस किये ये घोड़े कई घर्षो से कार्योद्यय मे रक्खे हैं। देहरी
अभी खाज़ी पड़ी है ।
( २२० )
>मित मंदिर है।” इस पर से और मंदिर क्री बनावटा से
भी मालूम होता है क्रि-महाराजा कुरारपाल का ह्यावू
' "पर बनवाया हुआ मंदिर यही होना चाहिए। इस मंदिर
-में पहले मूलनायक श्री महावीर स्वामी होंगे, परन्तु पथात्
जीयेद्धार के समय श्री शान्तिनाथ भगवान् की स्थापना
की होगी। यद्यपि इस कथन की पूष्टि में यहाँ एक भी
-लेख नहीं है, तथापि यह निश्रय होता है क्ि-यह मंदिर
कुमारापल का बनवाया हुआ है ।
इस मंदिर में शान्तिनाथ भगवान् की पाॉरिकखाली
“सुन्दर विशाल मूर्ति मूलनायकज्ी के स्थान पर विराजमान
'है। मूलगम्मारे में पारेकर रहित एक दूसरी मूर्ति है ।
रंगमंडप में काउस्सग्ग ध्यानस्थित सुन्दर सड़ी दो बड़ी
मूर्चियाँ + हैं। प्रत्येक में बीच में मूलनायकजी के तौर पर
काउस्मगिगिया और थ्रास पास में २३-२१ छोटी बिन
मूर्तियाँ वनी हैं । अर्थात् दोनों में एक एक चौथीमी की .
रचना हई। इस प्रकार इस मंदिर में मगवाव की मूत्तियाँ २
+ झुना है कि-तैन शिदप शास्त में राजा, मेंग्री और सेठ-अरावक
के यनवाये हुए जैन मंदिर में लिइमाल, गनमार और प्रश्ममाल्ष भादि
पमेन्न सिद्च चिद्ध डोने का लिखा दे ।
( २२१ )
और काउस्सग्गिये २, मिलाकर कुल मूर्तियों ४ हैं। इनमें
एक काउस्सग्गिये पर वि० सं० १३०२ का लेख है।
मूलनायकजी के पास गम्भारे में सुन्दर नकशी बाल
दो खंभों के ऊपर नकशीदार पत्थर-की महराब बाला:
एक तोरण हैं। इन दोनों स्तंभों में भगवान् कौ १०-
मूरत्तियाँ चनी हुई हैं । है
गर्भागार ( मूलगम्भारा ) के दरवाजे के बारशाख की
दोनों तरफ फी खुदाई में श्रावक हाथ में पृष्पमाला, .
कलशादि पूजा की सामग्री लेकर खड़े हैं ।
गूढमंडप के सुझ्य भ्रवेश-दार की मंगल मूर्ति के.
ऊपर भगवान् की अन्य तीन मूर्त्तियोँ बनी हैं। दरवाजे
के आसपास की नक््शी-काम में दोनों ओर कुल चार
काउस्सग्गिये और अन्य देव-देवियों की मूर्चियाँ बनी हैं|
मंदिर की बाहिरी (भमती की तरफ की ) दीवार में
छुर्सी के नीचे चारों तरफ गजमाल और सिंहमाल की *
पंक्षियों के ऊपर की लाइन में नाना प्रकार की कारीगरी :
है। जिपमें स्थान २ पर जिन मूर्त्तियाँ, काउस्साग्गिया
आचार्यों तथा साधुओं की मूर्तियाँ, पांच पांडव, मन्न.
कुश्ती, लड़ाई, सवारी, नाटक आदि कई एक मनोहर:
इश्य चित्रित हैं|
( २२२ )
मूल गम्भारे के पीछे के सारे माग में अत्यन्त रमणीय
“शिल्प कला के नमूने खुदे हुए हैं, जिनमें काउस्सग्गिये
और देवष-देवियों को घूर्चियों भी हैं ।
अचलेशवर भहादेव के मंद्रि के कम्पाउए्ड के घुख्य
दरवाजे के सामने महादेव का एक छोटा मंदिर है। उसके
दरवाजे पर मंगल मूर्ति के स्थान में तौर्थकर मगवान् की
आूर्चि खुदी हुई है । इससे, यह मंदिर पदिले जैन मैदिर हो
अयवा इस दरवाजे के पत्थर किसी जेन मंदिर से लाकर
न्यट्ां पर लगाये गये हों, ऐसा मालूम होता है ।
हि,
हे 3222
५
( २२३ )
अचलगढ़ और ओरिया के जन-मन्दिरों फी
- मूत्तियों फी संख्या
है रच 80088 हैं | 5 8 8
मूर्ति आदि 5 | रथ हि
; 28 5 | 5 | #
चौमुखजी के मंदिर के
भीच के खंड फे मूल-
नायकजी फी धातुमयी हर
विशाल मूर््तियाँ है ४
धातु फे बड़े फाउस-
ग्गिये लहर रे ४
धघातु फी एकल बड़ी
मूलियाँ घ्द £ १५८
“४ संगमरमर के काउ-
सुसग्गिये ... २ र् छ
४ संगमरमर की परिकर डे
रित मूर्तियाँ ६२६ १५।क १७ दे। प०
“| परिकर बाली ु
'| थक ओी शान्तिनाथ रे
भगवान् की मूर्ति ...। ««- १. न हुए
७ पेचदीर्थी के परिकर 5
+ | चाली मूर्सि १ ११
मति आदि
54
है
ड्टि
श्र
न
भातु के - चौमुखज्ी
युक्त समवसरण ---
* घातु की छोटी
तीर्यी, वितीर्थी, एक-
सीर्थी घ चौ बीसियां...
१० चौचीसी के पद्द में से
अलग हुई छोटी।-
सूर्त्तियां लेन हब
११ जिन-माता चौवीसी का
खंड्धित पद्द *+*
न जचू स्थामि व आचार्यों
की नद पादुका जोड़ी
'| का पद्द «*
१३| चरण जोड़ी
१४| सरस्वती देवी की म्रार्त्ते
२५| चकऋश्वरी देवी की मूर्ति
१६ पापाण यंत्र का
१७ कार्यालय फे मकान में
पिचल फे सवार युक्त
घोड़े ४८२०6. ४ ४८८
कर
अत ह३ (० ६ (+
( २२५ )
ही हब 8838:8:28 3-8 2670 ::%:8:6&6:6:8:5:8:% 6
कट
| हिन्दू तीर्थ तथा दर्शनीय स्थान #
32:4० 47 कक कक: 4 8-74: 3:7205%7 % # 205 + 0]
( अचलगढ़ )
(१) आ्ञावण-भाद्रपद् (सावन-भादों) हमचल-
गए के उपर की बड़ी जैन धर्मशाला के मुख्य दरवाजे
के पास से किले की तरफ कुछ ऊँचाई पर जाने से दो
जलाशय आते हैं। इनको लोग “श्रावण--भाद्गपर्दा
कहते हैं। बिना अयत्न ये पहाड़ में स्वाभाविक बने हुए
नजर आते हैं। किनरे का छुछ हिस्सा बांधा हुआ दृष्टि-
गोचर द्वोता है, बाकी का सब हिस्सा प्राकृतिक मालूम
होता है। इन दोनों में बारह मास जल रहता है ।
(२ ) चाछुंडा देवी-भ्रावण-भाद्रपद के एक ओर
के किनारे के ऊपरी हिस्से में। किनारे से कुछ हट कर
'चाछुंडा दंची का एक छोटा मन्दिर दे।
( दे ) ह्मचलगढ़ छुर्ग---भावस-भाद्रपद् से कुछ
ऊँचाई पर जाने से पहाड़ के एक शिखर के पास झचलगढ़
नामक एक टूटा फूटा किला है। यह किला मेयाड़
के महाराणा कुमकरण ( झुंमा ) ने बि० सं० १४०६ में
श्र
( शए६ )
बनवाया था। भद्दाराया कुंभकरण कमी कभी अपने
यरिवार के साथ इस दुगे में रहते ये। कद्दा जाता है कि-
सदाराणा कुभकरण के समय में इस दुगे के मुख्य दरवाजे
से लेकरअचलेश्वर भद्दादेव फे मन्दिर तक में सात दरवाजे
€ पोल ) ये।
(४ ) हरिअन्द्र सुफा-उस किले के पास से कुछ
नीचाई पर जाने से पहाड़ में से खोदकर बनाई हुई एक
शुफा आती है! यह गुफा दो म॑जिल की है। नीचे की
मंजिल में दो तीन खण्ड बनाये हैं। कोई इस शुफा को
सत्यवादी राजा हरिथ्िन्द्र की गुफा फहते हैं; तो फोई
इसको गोपीचन्दजी की गुफा कहते हैं ! इस गुफा में
दो धुरियाँ बनी हुई हैं । इससे साल होता है कि मथम
इसमें हिन्दू साधू-सनन््त रहते होंगे। इस गुफा के ऊपरी
हिस्से में एक पुराना मकान है, लोग इसे कुंमा राणा का
महल कहते हैं।
घ्यचलेम्घर सहादेव का मन्द्रि-- 7 छाचखरढ़
से नीचे तलहड्टी में ध्मचलेम्वर भहादेय का घिलकुल सादा
प यगराती साहि्य परिषद् से सम्प ध्रीमान् दु्गोशकर फेयस-
बम शाखी 'गुतरातां मासिक के प्ृ० ३२ झं० २ में प्रकाशित झऋपके
अायू-अदुद्धिरि तामक खेस में सि्तवे दें छि-/( सचज्गयठ के पास
( २२७ )
'किन्तु प्राचीन मन्दिर हैं। यह मन्दिर एक विशाल कम्पा-
उण्ड में है। उसके आस पास में अन्य छोटे छोटे मन्दिण,
मन्दाकिनी कुएड और बावड़ी आदि हैं। हिन्दू प्रजा
ध्यचलेभ्वर महादेव को घ्याबू के आधिष्टायक देव कहती
है। पहिले आयू के परमार राजाओं के तथा जब से आबू
पर चौहाण वंशीय राजाओं का आधिपत्य हुआ तथ से उन
राजाओं के भी ध्यचलेश्वर महादेव कुलदेव माने जाते हैं।
अचलेरबर महादेव का यह मूल मन्दिर बहुत प्राचीन
है और कई बार इसका जीण्ोड्भार | भी हुआ है।
इसमें शिवलिंग नहीं किन्तु शिवजी के पेर का अगूंठा
पूजा जाता है। मूल गंभारे के मध्य भाग में शिवजी के
चैर का अगंंठा अथवा अगशंठे का चिह्न हे। सामने दीवार
अचलेश्वर भद्दादेव का बढ़ा देवाल्य है। ऐेसा भनुमान किया जाता है कि
दिले के
--पहिले यद्द जैन मन्द्रि था” ।
+ चन्द्राबती के चौह्माण महाराव लुभा ने वि० से० १३७७ में
अथवा इसके करीब भ्री अचलेश्वर मद्दादेव के मन्दिर के मंडप का
जीणोद्धार करवाया और मन्दिर में अपनी रानी की मूर्ति स्थापन की ॥
इसके साथ देदुंझी गांव (जो कि आददू के ऊपर दे), अचलेश्वर के मन्दिर
को अपेण किया । ऊपयुक्त मद्ाराव लुमा के पुत्र सद्ाराव तेजलिंद के पुत्र
अद्वाराव कान्दड़देव की पत्थर की समोरम सूर्त्ति अचललेश्वरजी से समा-
अण्दप में है। उसके ऊपर वि० सं० १४०० का लेख है।
( रुशु८ )
के'बीच में पावैतीजी की तथा दोनों बाजू में एक ऋषि व
दो राजाओं की अथवा किसी दो ग्रहस्थ सेवकों की
भूर्चियों हैं।
इस मन्दिर के गूढ़ मए्डय ( मूल गंभारे के बाहर के
मंडप ) में दाहिने हाथ की ओर आरसका अस्टोतरशत
शिवलिंग का एक पट्ट है। उसमें छोटे छोटे १०८ शिवलिंग
बनाये हैं। इनके सिवाय गृह मण्डप में अन्य देव-देवियों
की मृत्तियाँ आदि हैं। मन्दिर के भीतर और बाहर की
चौकी में शिवभक्क राजा तथा गहस्थों की बहुतसी मूर्चेयाँ
हैं। उनमें से बहुतसी मूत्तियों पर १३ वींसे श८ वीं
शवान्दि तक के लेख हैं।
मन्दिर के बाहर के हिस्से में दाहिने हाथ तरफ की
दीवार भें महामात्य चस्ठुपा न्-तेजपाल का एफ पड़ा शिला-
शेख वि० सं० १२६४ के कुछ पदिले का लगा हुआ है।
गदह लेख, खुली जग में होने से इसके ऊपर हमेशा वषों
ऋतु में पानी गिरने से बहुत विगढ़ गया है, इुछ हिस्सा
पिस भी गया है तथापि उसमें से आबू के परमार राजाओं
का, शुजरात के सोलंकी राजाओं का और उनके मन्त्री
यस्तुपाल-तेजपाल के वंश का विस्तृत बेन पढ़ सकते हैं।
बाकी का हिस्सा पिस जाने से महामन्त्री वस्तुपाल-तेज-
( २२६ )
नपाल ने इस मन्दिर में क्या बनवाया, यह पता नहीं लगा
सकते। तथापि इस मन्दिर का जीर्णोद्धार या ऐसा फोई
अन्य महत्व का काये अवश्य किया है।। इस लेस के
आरंभ में अचलेश्वर महादेव को नमस्कार किया है। इसलिये
अह लेख इसी मन्दिर के लिये ही बनाया है ऐसा निश्रय
होता है।
इस मन्दिर के पास ही के मठ में एक बड़ी शिला के
ऊपर मेवाड़ के महारावल समरसिंह का वि० सं० १३४३
का लेख है। इस लेस से मालूम होता है कि-महारावल
समरसिंह ने यहाँ के मठाधिपति भावशंकर ( जो कि बड़ा
तपस्वी था) की आज्ञा से इस मठ का जीणोंद्धार करवाया
सथा अचलेश्वर महादेव के मन्दिर के ऊपर सुबर्ण का
ध्यजद्ण्ड चढ़ाया, ओर यहों निवास करने वाले तपरिवर्यों
के भोजन के लिये व्यवस्था की। तीसरा लेस चोदाण
महाराव लुभा का, वि० सं० १३७७ का, मन्दिर के बाहर
एक ताख में लगा हुआ है। उसमें चौहाणों की पंशावली
| सद्दामात्य चस्तुपाल तथा तजपाल ने, इढ श्रावक होने पर भी,
बहुत से शिवालय तथा मस्जिंदें नई बनवाई थी था उनकी मरम्मत करवाई
थी। उसके प्रमाणस्वरूप इस दृष्टान्त के सिवाय अन्य भी बहुत भ्रमाय्य
उमेलते हैं। ये उनकी तथा जैनधर्म की उदारता को अच्छी तरह से
जहित ऋाते. हें. ५
( र२३० )
ठया महाराव लुभाजी ने आज का ग्रदेश तथा चंद्रावती
का प्रदेश अपने स्वाधीन किया उसका उन्नलेख है। मन्दिर
के पीछे की वापिका (बावड़ी) में महाराव लेजसिंह के:
समय का वि० सं० १३८७ के माप शुक्ला ठ॒तीया का
लेख है। मन्दिर के साममे ही पिचल का बना हुआ एक
बड़ा नंदि ( पोठिया ) है। उसकी गद्दी पर बि० सं० १४६०
के चैत्र श॒क्का ८ का लेख है। नंदि के पास में ही असिद्ध
चारण कवि चुरासा आदढा की पित्तल की-ख़ुद की दी
बनवाई हुई सूर्चि है; उसके ऊपर वि० से० १६८६ के
चबैशाख शुक्ला ५ का लेस है। नंदि की देहरी के बाहरी
हिस्से में लोदे का एक बड़ा तव्रिशुल है। उसके ऊपर वि०
सं० १४६८ के फ्ाल्युन शुक्रा १५ का लेख ६। इस
त्रिशल को राणा लाखा, ठाकुर मांड्य तथा कुँतबर भादा
ने घाणेराव गाँव में बनवा कर अचलेखरजी को अर्पण
किया है। ऐसा बड़ा त्रिशल ओर कहीं देखने में नहीं आया।'
.. अचलेश्वर महादेव के मन्दिर के कम्पाउप्ड में अन्य
कितनेक छोटे २ मन्दिर दें, जिनमें विष्णु आदि भिन्न २
देव-देवियों की सूर्चियों दें । मंदांकिनी कुंड की ओर कोने
में महाराणा कुम्भकरण का बनवाया हुआ कुंभरवामी
का मन्दिर है। भचलेधर के मन्दिर फी बाज में म॑दा-
( ३३१ )
ककिनी नाम का एक बड़ा कुएड है।। जिसकी लम्बाई
&०० फीट तथा चौड़ाई २४० फीट है। ऐसा विशाक्त
कुण्ड दूसरी जगह शायद ही किसी के देखने में आया
होगा। इस कुण्ड को लोग मंदाकिनी अथोत् गंगा नदी
भी कहते हैं। यह कुएड हाल में बहुत ही जीण होगया है।
इसके किनारे के ऊपर परमार राजा धारावषे के धलुप
के सहित मकराणा पत्थर की बनी हुई सुंदर मू्ति३ है।
इसके श्ग्र भाग में काले पत्थर के, पूरे कद के तीन बड़े २
पाडे ( मेंसे ) एक ही लाइन में खड़े हैं। उनके शरीर के
+ चित्तौड़ के कीत्तिस्तेम की प्रशस्ति में मद्दाराणा कुसा ने आबू
के ऊपर कुम्मस्वामी फा मन्दिर भौर उसके नजदीक एक कुण्ड
बनवाया है, ऐसा किखा दे ! कुंभसवामी के मन्दिर फे पाप यह संदाकिनी
नाम का ही कुणड दे, इससे सम्भव है कि महाराणा कुम्मा ने इसका
अआी्योदार करवाया दोगा। (पिरोद्दी राज्य का इतिद्वास ४० ७४ )
$ यह मूर्ति कब निमोण की गई यह निश्चित नहीं हो सकता | इस
मूर्ति के धनुष पर वि० से० १५३३ के फाएंगुन कृष्णा ६ का एक जेख
है। किन्तु मूर्ति उस समय से भी ज्यादा छुरानी सालूम होती है, इसलिये
सम्भव दे कि-धनुप चाला पत्थर का हिस्सा दूट गया होगा और फिर
उस भाग फो किसी ने मया वनवाया होगा। यद्द सूर्त्ति करीव £ फीट
ऊंची है और देलवाड़ा के मन्दिर में जो चस्तुपाल आदि की मूर्तियाँ हैं
नके सद्दश है। इससे सम्भव है कि--वडइ उस समय के करीद बत्ति
डोगी । ( ' सिड्रोष्टी राज्य का इतिहास ? पु० ७४)
( १३२ )
मध्य साग में एक २ सुराख है। उसका मतलब यद है
कि-धारावर्ष राजा ऐसा पराक्रमी था कि-एक साथ उड्दे
हुए तीन भैंसों को एंक ही तीर (बाण) से बेध देता था।
४ कितनेक लोग कहते हैं कि-ये तीमों भैसे नहीं हैं, किन्तु
दैत्य हैं, मगर यह कहना ठीक नहीं है। इस मन्दाकिनी
ऋुणड के किनारे के नमदीक सिरोही के महाराव सान-
सिंह के स्मरणार्थ बनाया हुआ भ्री सारणेम्धरजी महा-
झूच का एक मन्दिर है। ( महाराव सानसिंह ध्मात्र् पर
एक परमार राजपूत के हाथ से कत्ल किये गये थे और-
उनको इस मन्दिर वाले स्थान पर अम्नि दाह दिया गया
था ) इस शिव मन्दिर को उसकी माता घारवाई ने वि० सँ०
१६३४ में बनवाया था। उसमें अपनी पांचों राणियों के
सहित मद्दाराव मानसिंहजी की मूर्ति शिवजी की आराधना
करती हुई खड़ी है। ये पांचों राणियाँ उसके साथ सती
हुई होंगी ऐसा मालूम होता है; |
(६ ) भतृहरि सुफा--मंदाकिनी कुण्ड के एक
किनारे से कुछ दूरी पर एक गुफा है । लोग उसे भठृहरि
| अचलेश्वरमी महादेव सथा उनके कम्पाउण्ड के अन्य मन्दिरों को
पमिज्नाकर सब में से सोस खेख श्राप्त हुए है। उनमें सव से प्राचीन वि०
खेन ११८६ को केस है। भझन्य क्षेस डसके पाछे के हैं। ( देखो-प्रादीन
जैन छेख संप्रदा, प्रवद्योकन--४० १४० )
« हैंड )
की गुफा कहते . हैं। यह शुफा पके मकान के रूप “में
चनाई गई है। थोड़े ही वर्ष पूरे क्रिसी सन्त ने इसमें कुछे
नये मकानात थ मंदिर आदि बनवाना शुरू किया था#
“जिनका कुछ २ हिस्सा बन गया, कुछ हिस्सा वाकी रह
शया है।
(७ ) गेघती कृगड--मंदाकिनी कुएड के पीछे
रेबती कुएड नामक एक कुण्ड है। उसमें हमेशा जल
"रहता है।,
(८) भरे ध्याश्रम--भठ्हरि की शुफा से करीब
शक मील की दूरी पर भ्रस॒-झ्याश्रम है। चहां महादेवजी
“का मन्दिर, गौमुख ( गोमती ) कुण्ड, ब्रह्माजी की सूर्ति
आर मठ आदि हैं। मठ में महन्त और साधु सन्त रहते हैं।
ओरिया
(६) कोटेश्वर (कनखलेश्वर) शिवालय-ओरिया
मांव के बाहर कोटेश्वर ( कनखलेश्वर ) महादेव का ग्राचीन
मंदिर है। यह हिन्दुओं का कनख्बल नामक तीथे हैं!
यहाँ के वि० सं० १९६५ वेशाख सुदी १४ के लेख से
मालूम होता है कि-छुवोसा ऋषि के शिष्य केदार ऋषि
स्नातक सा्यु न सं० १२५७ हे इस भेदिर “का जीर्णोद्धार
( २३४ )
कराया था। उस समय गुजरात के सोलंकी महाराजा
द्वितीय भीमदेव का सामंत परमार घारावर्ष आबू का
राजा या। इस मंदिर के आसपास देव-देवियों के तीन
घार पुराने खंडित मंदिर हैं ।
(१०) सीमगर॒ुफा--कनखलेश्वर शिवालय से लग--
मग २५ कदम की दूरी पर एक गुफा हैं। लोग इसको
भीमग॒फा कहते हैं।
(११) सुरुशिखर--ओरिया से बायव्य कोय की
वरफ लगभग २॥ मील की दूरी पर गुरुशिखर नामक
आयु का सर्वोच्च शिखर है। ओरिया से करीब आधे मील
पर जावाई नामक छोटा गांव है, जिसमें राजएतों के:
अन्दाज़ २० यघर हैं। यहाँ से गुरुशिखर करीब दो मील
रहता है। जावाई से चढ़ाव शुरू होता है। यद्द रास्ता
अत्यन्त विकट और चढ़ाई वाला है। बहुत दूर ऊपर
चढ़ने के धाद एक छोटा शिवालय, कमंडल कुंड ऑर-ः
गौशाला शाती है। गोशाला के नीचे छोटासा बगीचा'
है। यहाँ से थोड़ी दूर आगे एक ऊँची चट्टान पर एकः
छोटी देहरी में गुरु दत्ताज्ेय ( मिनको लोग विष्णु का
अवतार कहते दें ) के चरण हैं । गुरु दत्तात्रेय के दर्शनाय/
अतिबपे महुत से यात्री आते हैं। यहाँ एक बड़ा धंट है।-
0 -२०-० ाार
आधष्
७.
4 ( २३५ ) ५
जिसकी आवाज बहुत दूर तक सुनाई देती है। थोड़े वर्ष
पहिले से ही यह घंट यह लटकाया गया है। परन्तु यहाँ
पर इसके पाहिले एक पुराना घंट या, जिस पर सं० १४६८
का लेख है। पुराने घंट के स्थान में किसी कारण से
नया घंट लगाया है। ऐसा सुना जाता है कि-पुराना
घंट यहाँ के महंतजी के पास है ।
शुरु दत्तात्रेय के मदर से वायव्य कोण में गुरु दत्तात्रेय'
की माता की एक रमणीय टेकरी है ।
गुरु शिखर पर धर्मशाला के तोर पर दो कोठड़ियाँ हैं,
इनमें यात्री ठहर सकते हैं | तथा रात्रि निवास भी कर
सकते हैं। यहाँ पर छोटी छोटी गुफाएँ हैं। इन गुफाओं:
में साधु-संत रहते हैं। यात्रियों को बरतन, सीधा-सामानः
तथा बिस्तर आदि यहां के महंत से मिल सकते हैं ओर”
इनही महंत के साथ यात्रियों के लिये एक नहे धर्मशाला
बनवाने की योजनए हो रही है। इस ऊंचे स्थान से बहुतः
दूर दूर के स्थान दिखाई देते हैं और देखने से बड़ा आनंद्ः
प्राप्त होता है। नीचाई में बसा हुसा बहुत दूर का सिरीहो
शहर भी यहाँ से दिखाई देता है। पूषे दिशा में अली
पंत श्रेणी के दूसरी टेकरी पर की अंबा माता का!
मंदिर भी दिखता हैं। आकृतिक सुन्दरवा अत्यन्तः
( २३६ )
“रमणीय हैं! गुरुशिखर, राजपूताना होटल से लगभग
७ मील और देलवाड़े से ६ मील दूर है। गुरुशिखें/,
- समुद्र की सतह ( लेबल ) से ४६४० फीट ऊँचा है |
देलवाड़ा
(१२) ट्रेचर ताल ( ड्रेवर तालाव )--देलवाड़े पे
झचलगद की सड़क पर दो तीम फलांग दूर जाने से एक
जुदा रास्ता फटवा है। जो इस ताल को जाता है। यहां
से १ मील की दूरी पर यह तालान बना इआ हैं। लोगों
के चलने के लिये सकडी सुन्दर सड़क पनी हैं। रिकिसाएईँ
तालाब तक जा सकती है । गबरनर जनरल-राजपृताना
के उस समय के एमणट के नाम से इस तालाव का भाम
द्रेबर रक्सा गया है। यह तालाब छोटा परन्तु पका
ओर गहरा दै। पानी वहुत मरा रहता है। यूरोपियन
व्यहोँ नहाने ओर हवा खाने को आते हैँ | सिरोही दरघार
ने, आयू के लोगों को आसानी से पानी मिले, इसलिये
बेंतीस हजार रुपये सर्च करके इसको बंधवाया था, परन्तु
पीछे से इस उद्देश्य को छोड़ दिया गया भर बाद में यद्द
स्थान यूरोपियनों की अव॒इूलता के लिये निश्चित किया गया
! मु रमयम मैसा यादइन, जिसको धादमी खेँचते हैं। | +
ला हा -देवस्तॉल,
दे
आवपू ८८
89, 2. एए९5०, 8 करर
देट्याडा-थ्रामाता ( कैआरा कफ या )
( २३७ )
हो, ऐसा मालूम होता है। चारों तरफ भझाड़ी जेंगल घना
होने से यह स्थान रमणीय मालूम होता है यह तालाव देल--
वाड़े से करीय सवा मील की दूरी पर है।
(१३-१४) कन्या कुमारी और रसिया वालम---
द्ेलबाड़े में विभलवसहि मंदिर के पीछे अर्थात् देलवाड़ा'
गांव से बाहर पिछले हिस्से में हिन्दुओं के जीणे दशा
वाले दो चार मंदिर है। इनमें एक श्रीमाता का भी जीणे
मंदिर है। इसमें श्रीमाता की भूत्ति है, इसे लोग कुमारी
कन्या (कन्या कुमारी) की सूर्सि कहते हैं +। यहां वि०
4 दुन्तकथा इस प्रकार है--रखसेया बाल्म मनन््त्रवादी पुरुष था।
घह आबु की राजकस्या से शादी करना चाहता था परन्तु कन्या के माता-
पिता इस बात पर राजी नहीं थे। अन्त में राजा ने उसे कद्ा--“संघ्या
समय से लेकर प्रात काल मुगगों बोले तब तक में--अर्थात् एक दी राक्रि
मे आावु पर चढ़ने उतरने के लिये बारह रास्ते बनादे तो में अपनी कन्या
का लम्म तेरे साथ करमूँ। रसिया वाज्लम ने यद्द बात मंजूर करली।
और मन्त्र शक्ति से अपना काये प्रारम्भ क्षिया। रानी किसी भी प्रकार
इसके साथ अपनी पुत्री की शादी नहीं करना चाइती थी। उसने सोचा
कि-यदि काम पूरा होगया तो लड़की की शादी इसके साथ करनी पढ़ेगी ।
घेसा विचार कर उसने समय दोने के पदले ही मुर्ग की आवाज की ।
रतिया धालम ने निराश होकर कार्य को छोड़ दिया, जो कि काम लगमग
चूरा होने आया था । पीछे से जब उसको इस छुल का द्वाल मालूम हुआ,
धो उसने अपने शाप से माता-पुत्री दोनों को परयर छे रूप में परिवर्तित
( रे३८ )
सस० १४७६ का एक लेख है। भ्रीमाता के भंदिर के बाहर
“बिलकुल सामने एक टूटे मंदिर के गुम्बज के नीचे पुरुष
“की एक खड़ी मूत्ति है । इस शूर्ति को लोग रिया वालस
की मृत्ति कहते हैं। इसके हाथ में पात्र है। कई लोगों का
-अनुमान है कि-रासिया वालम यह ऋषि वाल्मिक है। इस
“मन्दिर के पास शेप शायी पिष्णु, महादेव व गणपतिजी
के छोटे २ और जी मन्दिर हैं ।
(१५-१६-१७) नल शुफा, पॉडव गुफा और
“सौनी बाया की गुफा--श्रीमाता के स्थान से लगभग दो
“फल्लौग की दूरी पर एक भुफा है, उसको लोग नलराजा_
-की गुफा कहते हैं, और उससे थोड़ी दूर एक दूसरी श॒फा
है, चद्र पांडव गुफा कहलाती है । इस गुफा से थोड़ी दूर
“एक और गुफा है । इसमें कुछ समय पहले एक मौनी
-बाबा रहता था। इसलिये इसको लोग मौनी बावा की
शुफा कहते हैं ।
(१८) सन््तसरोचर--श्रीमावा से थोड़ी दूरी पर
जैन श्रेताम्बर कारखाने का एक घगीचा है यहाँ से अधर-
कर दिया। माता की सार्तत खोद डाली गईं । उस पर पत्थर का ढेर खाया
है। यद देर भव भी है। कोग छुद्दी की मूर्ति को कुमारी क्या भधवा
श्रीमाता कहते हैं । रातिया घाजम भी पीछे से दिप साकार वही मर गया।
-ज्ोय कहते हैं कि उसड़ी सूर्चि के हाथ में जो प्रात है, पट्द विषपात्र है ।
( २३६ )
नदेवी की तरफ जाते हुए, योड़ी दूर पर एक] सरोवर है,
जिसको लोग संत सरोवर कहते हैं ।
(१६) अधरदेवी--देलवाड़े से आयू कैम्प के रास्ते
'पर लगभग आधे मील की द्री पर अधरदेवी की टेकरी
“है। देलवाड़े से कच्चे रास्ते पर संत-सरोवर के पास से
जाने पर ओर पक्की सड़क से वीकानेर महाराज की कोठी
-के फाठक के पास से पक्की सड़क छोड़कर कच्चे रास्ते से
“थोड़ी दूर चलने पर अधरदेवी की टेकरी मिलती है ।
यहां से ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ियों की जगह पर पत्थर
“रखे हैं। कही-फही पकी सीढ़ियां भी हैं। आयबू कैम्प की
'तरफ से चढ़ने के लिये जुदा मार्ग है। नखी तालाब और
“राजपूताना क्लब की तरफ से आने वाले लोग इस रास्ते
से आ सकते हैं | लींबड़ी दरबार की कोठी के पास सड़क
से थोड़ी दूर दूध बाबड़ी है। वहां से अधरदेवी की टेकरी
'पर जाने फे लिये यह रास्ता शुरु होता है। यहां से ऊपर
जाने के लिये पक्की सीढियां बनी हैं । लगमग ४४० सीढियां
चढ़ने के बाद अधर देवी का स्थान आता है।
ठेकरी के बीच में एक छोटी गुफा बनी हुई है।
इसमें श्री अमम्षिका देवी की सूर्सि है। लोग इसको
अजडेदा देवो अथवा ध्मघर देवी कहते हैं। इस गुफा
( २४० ) मर
में जाने की खिड़की सकड़ी है | लोगों की मान्यता है कि.
यह अम्बिका देवी आयू पर्वत की आधिष्ठायिका देवी है। .
यह स्थान अठि प्राचीन माना जाता है 4 टेकरी पर एक-
खाली छोटी देहरी घना रखी के इसलिये कि लोग दूर
से इसको देख सकें। बारतव में अम्पिका देवी की मूर्ति तो
गुफा में ही हैं! बहुत नजदीक जाने पर ही यह शुफ्ा
देख सकते हैं। इस गुफा के बाहर महादेव का एक छोटा
मंदिर है। यह स्थान, दूर दूर के श्राकृतिक दृश्य देखने
बालों को बहुत आनन्द देता हैं। यहां पर एक छोटी धर्म
शाला और एक छोटी शुफ्रा है। धर्मशाला में एक्ाघ
ऋड़म्ब के रहने के योग्य स्थान हे । यहां प्रतिवर्ष चैत सुदि
१५ और आशिन सुदि १४ इस प्रकार साल में दो मेले
लगते है ।
( २० ) पापकटेख्वर सहादेव--अधर देवी की
सुफा से करीय आधा मील ऊपर जाने से जंगल में
; | इस गुफा की प्रादीनतर के प्रमाण में कोई लेख नहीं दै। शायद
अग्विका देवी की सुर्सि पर खेस हो। परन्तु पंडे लोग देखने नहीं देते।
इसक्षिये यद्द नहीं भालूम हो सकता कि यह सूर्त्त कब यंनी ? संभव है
पिप्नल मंत्री या घस्तुपाल त्तेजपाल ने यह मूर्ति बनवाई हो क्योंकि
डनके मंदिरों की अन्य मूर्तियों कें साथ यद्द मूर्ति बहुत कुछ मिछरी.
कं रु का 5
आद्धती हैे।। '
अध्णाड फल ह# 4
3. 0 है की 20 5 पत आक
श्र री
ता के हट ? कर पा एनबॉर हब (0
( २४१ )
चापकटेश्वर महादेव 'का स्थान आता है। यहां आम के:
चृक्ष के नीचे महादेव का लिंग है। पास में जल से भरा
हुआ छोटा कुण्ड और एक गुफा है। रास्ता विकट है।
यह स्थान बहुत रमणीक और अच्छा है लोगों की ऐसी
मान्यता है कि इन महादेव के दशेन से मनुष्य के पापों
का.नाश हो जाता है। इसालेये ये पापकटेश्वर महादेव
के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
,,. आबू केम्प-आबू सेनेटोरियम
*' (२१) दूधवावड़ी--लींवड़ी दरबार की कोटी के
पास, जहां से अधर देवी की टेकरी पर जाने का चढाव शुरू
दोता है, एक छोटा कूआ है | इसका पानी पतली छाछ जैसा
सफेद और दूध जैसा स्वादिष्ट है; इसलिये इसको लोग
दूधिया कुआ अथवा दूधवावदी कहते हैं। यहां साधुओं:
के.रदने के लिये दो दीन कोटड़ियां बनी हैं। उनमें साधु
सन्त रहा फरते हैं।
! (२२) नखी तजाव--देकवाड़े से पश्चिम दिशा में
एक मील की दूरी पर नखी तल्ाव है। हिन्दुओं की मान्यता
है कि यद देवताओं या ऋषियों के नखों से खोदा हुआ होने
से नखी तलाब के नाम से प्रस्तिद्ध है। हिन्दू लोग इसको-
ई 5४र )
बतित्र तीथे स्वरूप मानते हैं। म्युनिसिपैलिदी और सेनि-
आरियम कमेटी की ओर से, इस तालाब के मंदिर व बाजार
क्रो तरफ के किनारे पर से शिकार करने का वे मछली
मरने का निषेध किया गया है ! वर्तन 'मांजने व कपड़े
कोने की भी मनादी है | यह तालाब लगभग आधा मील
सेबा और पाव मौल चौड़ा है। इसके चारों ओर पक्री
सड़क व उचर, दक्षिण और पर्ष दिशा में पहाड़ की ठेकरियां
हैं। यह तालाब पश्चिम दिशा में २०-२० फ्रीट गहरा है ।
पूरे दिशा में उथद्धः हैं | किनारे का वहुतसा भाग पका
: चना है। कई स्थानों में पके घाट भी बने हैं / राजपूताना
जब की ओर से सर्वे साधारण के लिये छोटी छोटी नावें
च, डॉगियें रक्सी गई हैं। लोग किराया देकर इनमें, बैठ
कर सर फर सकते हैं। इस तालाब के पूचे किनारे पर
जोधपुर मुदह्राजा का महल आर नेऋत्य फोण में महाराजा
जयपुर का सवोच दर्शनीय मदल है। श्री रघुनाथजी का मंदिर
ओर दुलेघरजी का मंदिर आदि इसी तालाव के क्लिनारे।पर
हैं। लोग कदते हैं कि इस तालाय की बंधाई शुरु हुई, इसके
पढिले एसके किनारे-पर ,एक जेन मंदिर ,भी था.। .. ,
-४(२३) रघुनाथजी का मंद्रि>त्खी तालाब: फ्रे
नेऋंत्य रो फे फिनोरे पर,थी रछुनाथ जी का मं दि! हैं।*
(२४३ )
हों एक महन्त और कई साधु संत रहते हैं। महन्तजी की
तरफ से साधु संतों को भोजन दिया जाता है। वेष्णव
लोगों के ठहरने के लिये धर्मशाला भी है। ग्रीप्म ऋतु में
चहुत दिनों तक रहने वाले यात्रियों फो किराये पर मकान
दिये जाने की व्यवस्था है। यात्रालुओं के भोजन के लिये
ढावा (बीसी) भी है । हिन्दु यात्रालुओं फे लिये सब प्रकार
की व्यवस्था है। रामोपासक श्री वैप्णवों का यह भुख्य
स्थान है। + सिरोहो राज्य की स्थापना के आसपास
(१४ वीं १४ वीं शताब्द में ) इस स्थान को ध्यानीजी
को घूनी कहते थे। सिरोही राज्य के दकफ़्तर में अमी मी
इस स्थान का नाम ध्यानीजी की धूनी ही लिखा है।
राम कुंड, राम करोखा, चंपाशुफा, हस्तिगुझा और
+भगवदाचार्य प्रहचारी फ्त रामानन्द दिग्विज्दाय के १४वें
सर के ४२-०६-४७ शाह में कक्षिखा ई ढि-स्व्रामी रामानन्दजी धविद्वान,
झोग, निनका समय ई० सन् १३०० से १४४६ के कीच का निश्रित
करत है) भ्रमण करत हुए आयधू पदुंत पर भापु॥ वहां भाजिदसद
नामक सपरयो तप्स्या करते थे ।* उनके पास श्री'रघुनाथन्नी के पूजाती
मूर्ति थी ३ इस स्थान पर रामॉनिन्दुज़ी ने नया मंदिर यववाकर उस सूर्सि
की स्थापना रो) मइतजों झा कथन दे रे यहाँ धभी तक उसो सूर्त्त की
बूजा होते ह।' चौर इसों कारण मे इस स्थान झ रघुनायजा फा
मन्दिर छडते ६ । 0 गाना हि ० 2४३ न
( २छछ )
गौरस्तिणी मात्ता (अगाई माता) इन स्थानों के आसपास
की जमीन भीरघुनाथजी के मंदिर के ताल्लुक मेँ है! इस
स्थान पर गवर्नमेए्ट का हक नहीं है!
'.ढ. 7(२४) दुलेग्वरजी का मंदिर--भी रघुनाथजी का
भंदिर और मद्दाराजा जयपुर के महल के बीच में श्री दुलिग्बर
महादेव का मंदिर है। इसके आस पास आश्रम बगरः हैं!
(२४) चपा झुफा--रघुनाथनी के मंदिर के पास
पे पहाड़ की टेकरी पर थोड़ा चढ़ने के बाद दो तीन गुफाएँ
मिलती हैं । इन गुफाओं के पास चेपा का इंच होने
क्वारण लोग इसको चंपा श॒ुफरा कहते हैं। सुफा के नीचे
के हिस्से में नखी तालाब है! जिससे यह स्थान मनोहर
मालूम होता है।
(२६) राम मकरोखा--चैपा गुफा से थोड़ी दूर आगे
राम भरोखा है। यहां पर भी एक दो शुफाएं भरोसे के
आकार थाली हैं। इसलिये लोग इस स्थान को रास-
मरोखा कदते हैं। रामभरोखे के ऊपरी दिस््से में दोड रॉक
(7०00 ॥॥००७) ( यानी मेंढक के आकार की चड्ठान ) है।
... (२७) हस्ति गुफा--राम भरोखे से थोड़ी दूर पर
हरित गुफा नामक रमणीय स्थान है। इसके नीचे के
६ २४४ )
हिस्से में नखी ताल है। इस गुफा के ऊपर को पत्थर बहुत
विशाल है, और इसके ऊपरी हिस्से की आकृति हाथी
जैसी दिखती है। संभव है कि इसी कारण से इस गुफा
का नाम हस्ति गुफा पड़ा हो।
(२८) राम कुण्ड--हस्ति गुफा से थोड़ी दूरी पर
राम कुण्ड नामक स्थान है। यहां पर श्री रामचन्द्रजी
का मंदिर है। इसमें राम लक्मण सीता और अन्य देव
देवियों की छोटी २ मूत्तियाँ हैं। इसके पास एक पुराना
ऊुँआ है। यह जमीन पहाड़ी है, तो भी इस कुए में बारदों
महीने पानी रहता है, इसको लोग राम कुंड कहते हैं।
थास में दो तीन छोटी छोटी गुफायें हैं। वंपा गुफा,
राममरोखा, हस्तिश॒फ़ा और रामकुंड पर अकसर साधु-
सेत रहते हैं। रामकुंड से आबू कैम्प के बाजार फी तरफ
नीच उतरते जयपुर महाराज की कोठी मिलती है। इसके
आद सिरोही राज्य के दीवान का बंगला और इसके सामने
मींबज ( सिरोही ) के ठाकुर का मकान है।
(२६) योरद्धिणो माता--हस्ति गुफा से थोड़ी दरी
घर गोरक्षिणी माता का स्पान है। यहाँ पर गांवों के
शअजदरें; का फल्छुन के भेला लगता है )
( रष४ट६ ))
. -(३०) झोड रॉक (7०५१ 7००5)--नखी ताल से
नैऋत्य कोण में पहाड़ की टेकरी पर मेंढक के आकारवाली
यह चट्टान है, इसलिये लोग इसको दोड रॉक कहते हैं ।
(३१) आयचू सेनिदोरियम (ध्यायू कैम्प)-देखवाड़े
से-दक्तिण,में लगभग एक मील की दूरी पर आदू सेनि-
टोरियम वसा है। इसको आवबू कैम्ए कहते हैं। सिरोही
के महाराब श्रीमाद् शिवसिंहजी ने ब्रि० सं० १६०३२ में
गवर्नमेण्ट को आश्ू पर्वव पर सेनिटोरियम बनामे के लिये
जगह दी। थोड़ समय के बाद आंचू , राजपृताना के
एजयद हू दी यवनेर जनरल का युख्य निवास स्थान
झुकरेर हुआ। तब से यह स्थान श्रतिदिन उन्नति पर
आता गया। वास्तव में सारतवर्ध के सरकारी लश्कर
के रोगी सनिकों के लिये यह स्थान बनाया गया है ।
अब भी यह के केम्प में बीमार सनिक रहवे ई।
अआवू फैम्प से आनूरोड स्टेशन वक़ १७॥ मील
की पकी सड़क बनी हुई है, इससे ऊपर आने जाने में
सरलता होगई ई । धीरे धीरे अंग्र यहाँ रेसिडेन्सी, प्रत्मेक
विभाग के सरकारी ऑफिसरों के बंगले, प्रत्येक विमाग के
ऑफिस, गिरजाधर, तार ऑफिस, पोस्ट ऑफिस, ' क्लब,
पोलो आदि खेलों के स्थान, स्कूल, ओपघालय, अंग्रेनी
( २४७ )
सैनिकों का सेनिटोरियम, राजपूताना के राजा-महाराजांओं
की कोठियोँ, वकीलों और धनाढ्थों के बंगले, होटल,
बाजार और पक्की सड़कें आदि मित्र-मेत्र सुखदायक
साधनों के अस्तित्व से आयू केम्प की शोभा में अपूर्य शद्ठि
हुई है। ग्रीष्प ऋतु के लिये यह स्थान स्वगे तुल्य माना
जाता है। उन दिनों में यहाँ आबादी अच्छी बढ़ जातो
है। कई राजा महाराजा, यूरोपियन्स, ऑफिस और बड़े
बढ़े भ्रीमन्न्त सोग यहाँ की शीतल और सुगन्धीमय बायु
का सेवन कर आनन्द ग्राप्त करते हैं । या की आक्तिकः
शोभा अत्यन्त रमसीय है। नखीतरल ने छोटा होने पर
भी यहाँ की शोभा में और बद्धि की है ।.
आबू केम्प में हमेशा निवास. करने याले जेनों की
संख्या अधिक नहीं हैं। सिर्फ बाजार में मारवाड़ी जैनों
की ४-६ दुकानें हैं। कोटावाले दीवान बहादुर श्रीमान्
सेठ केशरीसिंदजी राय बहादुर का खजाना है, जिसमें
छुनीम बगेरह,रहते हैं। पत्तमान मुनीम और खजाश्षी
जैन हैं। गरमी के दिनों में कई श्रावक यहाँ पर रदने के
लिये आते हैं.। .... महलेल ०
।>नझआबू पर शरद ऋतु में ठंड की ओसत ४५ से ६४
टिए्री और सर्भ के दिलों में सर्घी की ओउसद ८० से ६०
|
( २४८ )
ित्री तक रहती है। वर्ण ऋतु में वर्षाद की भोसत ६०
ईंप होती है। "
भापू पम्प में जो फोठियों, बंगले प भन्य इमारत हैं;
उनमें पुण्य पे हैं-..
६-मद्वाराजा जँपुर फा मद! ६-म०रा०भरतपुर फा महल
२-ग० रा० ओपएुर का | (०- , पलपुर का ,,
फ-पियटोरिया हाउस ((- + सेप्री का ,,
रा-फऐनोट हाउस (२-० # सीकर का ,,
ग-छोफ हाउत्त (र- , जैपलमेरका,,
प-भोपपुर हाउस (४-राजपूताना के एजएट
ए-म० शा० पीफानेर फ्ो 2 दी' गयनेर जनरसत
महल का महल
४- ,॥ पु (५-मुप्रिन्टेण्टेष्ट एजन्सी
४० ॥ मिरोदी हा फा महल
धराना महत्त | १६-एज्न्सी भोफिग
६ क% पिरोही को १७-रेगटैन्मी
॥ नया महल | १८-मैकेशरिएट
७- # मिरोरी के | १६- गयने मेएट प्रेस
दी० का महल टे+-वामपृताना एक्ससी
४ # सींपड़ी का ,, दोघिटत
( २४६ )
“२१-एडम . भेमोरियल | ३७-करुणदास हाउस
होस्पिटल शेप-इनत्नाहीम हाउस. -
“२२-देजररी. बिल्डिंग | ३६-लेक ब्यू कोटेज ( के.
(लक्मीदास गणेशदास) एस. कावसजी )
“२३-घ्ंगला ( लक्ष्मीदास | ४०-ओल्ड . पेरिटेवल
गणेशदास ) डिस्पेन्सरी (मालिक
२४-आबू हाई स्कूल घनजी भाई पारसी )
२५-लेरिन्स स्कूल ४१-प्रत्येक विभाग के सर-
२६-पोस््ट ऑफिस कारी ऑफिसरों के बंगले
२७-तार ऑफिस ४२-सरकारी अत्येक विभाग
२८-क्लबघर (राजपूताना क्रम)|._ के आफिसेस
२६- पोलो ग्राउए्ड ४३-इनके सिवाय और भी
३०-गिरजाघर (चचेदेवल )| .. कई एक राजा-महा-
३१-डाक बंगला राजाओं के तथा प्रजा-
३२-राजपूताना होटल कीय लोगों के बंगले,
३३-विश्राम शुर्वन एवं राजपृताना के
३४-एदलजी द्वाउस प्रत्येक स्टेट के घकीलों
“३४-मोदी द्वाउस के लिये बने हुए मकान
-३६-दारशा द्वाउस चगरद घगरद।
(२४० )
(३२) बेलीज वॉक ( चेलीज का रास्ता )-पहें
आस्ता नखी तालाब के नेऋत्य-कोण से सेकर जयपुर
महाराजा की कोडी के पास से पहाड़ के किनारे २ तीन -
मील तक चला गया है ! इसको वेलीज वॉक कहते हैं।
इंस रास्ते से ठेकरियों के नीचे के खुल्ले मेदानों का च्श्य
अत्यन्त मनोहर मालूम होता दे।
+, ६
; (३३) विश्राम भवन--एडम मेमोरियल होस्पिट
टल के पास यह स्थान है। इसमें उच्च वर्ण के हिन्दुओं»
के उतरने तथा मोजन की व्यवस्था है! चर्चन, गदा,
रजाई आदि मिल सकते हैं।
।' (३४) लोरिन्स स्कूल--हेनरी लेरिन्स ने सव् १८५४७
में झग्लिश सोल्जरों के लड़कों और अनाथ लड़कों को
पढ़ाने के लिये यद्द स्कूल स्थापित किया है। यहां पर ८४
विद्यार्थी रह सकते हैं। वार्षिक खच ३० तीस हजार रुपये
का है। आधा खर्च गवर्नेमेण्ट देती है। / द्विस््ता प्राइवेट
कंंणएड से और शेप ; द्विस्सा फीस तथा ध॒मोदे की रकरमों
के न््याज से मिलता है । यह स्कूल शहर के मध्य भाग
में है। इसके एक तरफ शददर ओर गिरयापर देँ व दूसरी
/ वरफ पोस्ट-ऑफिस और संक्रेटरेएड का बंगला दै।
(२४५१ )
(३४) गिरजाघर ( 5०7० )-- पोस्ट ऑफिस भौर/
लेरिन्स स्कूल के पास 'क्रिथियन लोगों का एक बड़ा
गिरिजाघर हे। ]
(३६) राजपूताना होटल्ष--पोस्टऑकिस से थोड़ी
दूरी पर राजपूताना होटल की बड़ी इमारत बनी दै। इस
होटल में राजा, महाराजा, यूरोपियन्स एवं हिन्दुखआानीः
लोग भी ठहर सकते हैं।
क/६
॥
* (३७) राजपूताना घजब--राजपूताना होटल के
पास यूरोपियन्स और इस क्लब के सच में सहायता करने
बाले देशी राजाओं के वास्ते खेलों के साधनों वाली एक
क्लब हैं। इसमें एक छोटी लायब्रेरी और टेनिस कोर्ट
आदि भी हं।
(३८) नन् रॉक ( ऐैएए 8०0. )--राजपूताना क्लब
के देनिसकोर्ट के पास यह दर्शनीय रॉक (चझान) है। इस”
चट्टान का आकार प्रार्थना करती हुई साध्वी जैसा है।
इस कारण से लोग इसको नन् रॉक (फेण्स फत्क )-
कहते हैं। ,..., ,
- (३६) ओ?ज़ ( चट्टानें )-यें चट्टामें राजपूताना:
होय्ल से दो भील की दूरी पर हैं।“चहां जाने .फे ,लिफेः
( र#२ )
स्शजपूताना क्रम के पीछे से रास्ता है। रास्ते में ज्यादा
चढ़ाब आता है। लेकिन ऊपर की 2ंडी हश से सब भ्रम
उतर जाता है राजपृताना होटल से क्रेः्जु के रास्ते में
स्नव् रॉक आज़ाती है।
(४०) पोलो ग्राउंड--राजपूताना होटल से लंग-
अग हे मील दूर। मोटर स्टेशन के पास मुख्य रास्ते के
-चांह तरफ पोलो ग्राउंड नाम का बड़ा मैदान है। इस
-आडंड के एक किनारे पर घुड़दौड़ आदि खेलों को देखने
-को आने वाले राजा महाराजाओं और ऑफिसरों के बैठने
-के लिये एक बड़ा मकान है जिसको पोलो पेषीलियन
कहते हैं ।
(४१-२२-०३) मसजिद, हैंदगाह ये कपर--
-शोलो-ग्राउंड और मोटर स्टेशन के पास मुसलमानों की
-एक मसजिद हैं। आवूरोड की सड़क के लगमग मील
मं० १ के पास ईदगाह है और नखरी तालाब से थोड़ी
“दूर देलवाड़ा के रास्ते की तरफ एक कथर है।
(४४) समसेद पॉइन्द (सूर्यास्त देखने का
स्थान )--पोलो-ग्राउंड पे दघ्षिय-पर्व दिशा में पी
पसंड़के से पौन मील दूर याने से पहाड़ की टेकेरी का
६ रेश३े )
फिनारा आता है |. इस स्थान को ' लोग सनसेट पॉहइन्ड:
कहते हैं। यह स्थान पहाड़ के बिलकुल पश्चिम भाग में
है। यहां से सयोस्त समय के विविध रंग देखने से नत्रा का
प्रिय मालूम होते हैं। उसे दोने पर भी सम के समिने-
देखने से आंखें बंद नहीं होती हैं। यह स्थान राजपूताना
होटल से १॥ मील दूर है।
(४०५) पात्तमपुर पॉइन्ट ( पालनपुर देखने का
स्थान )--सिरोही की कोठी के दक्षिण दिशा में एक:
पण्दंडी गई है। इस रास्ते से थोड़ी दूर जाने पर एक:
छोटी टेकरी मिलती हैं। इस टेकरी पर से पालनपुर,
जो कि आयूरोड से ३२ मील दूर है, आफाश खच्छः
हो तबक दिखाई देता है। दुस्र्ब्रीन की सहायता 'सेः
ज्यादा स्पष्ट दिखाई दंता हँ। यह थान राजपूताना होटल
से ३ मील दूर है!
(द्वेलवाड़ा तथा आचू कैम्प से आबूरोड )
देलवाड़ा से आबू केम्प की सड़क से एक फलोड्रल
जाने पर बाएं हाथ की ओर से दो माइल की एक नहे
सड़क अलग होती है.। .चह आवबूरोड की सड़क को रै
माइल्न, २ फर्लाड़ ( ढुंढाई चौकी ) के पास मिलती है।*
(२४४ )
“मांगे में सडक के दोनों बाज थोड़ी २ दूरी पर बंगले।
'लागा का ऋपाड़यां, इच्त, नाले घ भाड़ियां नवर आती है|
(४६) इुँढाई चौफी--आयू-कैस्प से आवूरोड को
“जाने बाली सड़क के माइल नं० १, फर्लाज्न २ के पास
झुंढाई नामक गवरनेमेएटी चोंकी आती है। यहां चुंगी
( कस्टम ) तथा गाड़ियों का टोल-टैक्स लिया जाता है।
देलवाड़े से निकली हुई नई सड़क यहां मिलती है।
४७) आवबू हाइस्कूज-डुंठाई चौकी के निकट
ड्वोकर करीब तीन फलोग की एक सड़क आयू हाई सकल
को गई है । वहां पर सुन्दर समवल भूमि में आबू हाई स्कूल
की इधारपं बनी हैं। सन् १८८७ में बोम्बे, बढ़ोदा एण्ड
-सेन्दूल शन्डिया रेलवे, कम्पनी ने दो लाख रुपये के खचे से
“रेलवे कर्मचारियों के लड़कों के लिये यह इमारतें चनवाई
थीं। यह स्थान शहर के दक्षिण भाग में सगभग दो मील
दूर एकान्त में होने से शान्ति और आनन्द-दांयक दै।
इस द्वाई स्कूल की व्यवस्था गवनमेण्ट ऑफीसरों की एक
कमेटी फरती है।“सर्च का कुछ दिस्सा गषमेण्ट, प्य कुछ
हिस्से बी: दी. एण्ड' सी; भाई, रेल्चे; केपमी देसी: हे
आर बाका पहुससा फड डारा पूराहता हा / * «उस
( २४४ )
(४८) जैन घमेशाजा (आरणा तलेटी)-आवूरोड
के मा० म० ४-४ के नजदीक में आरणा ग्राम के पास
एक जैन धमेशाला है। यह ह्मारणा तलहदी” के नाम
से भासेद्ध है। यहां यात्रियों की सहलियत फे लिये एक
घर मंदिर (देरासर) भी रबखा है, जिसमें धातु की एक
चौबीसी है। यात्रियों के लिये रसोई ब ओढ़ने ब्रिछाने का
सामान यहां मिल सकता है। पीने के लिये गरम-जल की
भी व्यवस्था रहती है। जन यात्रियों को भाता मास्ता मी
“दिया जाता है। अभ्यागदों को भूने चने दिये जाते हैं॥
साधु साध्यी या जैन यात्री वगे यहां रात्रि निवास भी कर
सकते हैं। गरमी के दिनों में विभ्रांति के लायक यह स्थल
है। इस धर्मशाला की व्यवस्था अचलगढ जन श्ेताम्बर
कारखाना के हस्तक है। चारों तर्फ की मनोरम्य प्रकाति
तथा इृष्टी की शक्ति भी कुश्ठित हो जाय ऐसी सीखे
(पथ) प्रक्तक को मग्ध बनाती हैं। यहां से पगंदंडी से
थोडा नीचे उतरने पर मा० ने० ४-६ के पास सड़क
मिलती है ।
हक जे, ५ कु
(४६) सत घूम (सप्त घूस)--मा० नं० ६ से एक
शेसी चढ़ाई शरु होती है जिस पर चढने के लिये सड़क को
सात सात दफा घुमप लेता पड़ा है और इसी चजद। से
( २४६ )
उप्तका नाम सतधूम कद्दा जाता है। यह चंढ़ाई, बाहन में
लाते हुए और थोक से लदे हुए जानवरों को तया मोटर
आदि याहनों को भी व्रास दायक होती है। ऐसे तो यह
पूरी सड़क पर्रंत के किनारे द्िनारे पर चक्र लगाती हुई
जाती है, परन्तु इस स्थान में तों उसने ननदीक नजदीक
में ऊपरा ऊपरी सात चक्कर किये हैं। नीचे की सडक का
,अबासी ऊपर के झुसाफिर को देख सकता है और ऊपर की
सड़क से नौचे की सड़क दृष्टि गोचर होती हैं। इस कारण
से वथा कझादी और वनराजी का साम्राज्य होने से दृश्य
रम्यग को प्राप्त होता हैं। यह सतधूम की चढाई मा० नं० ७
के नजदीक समाप्त होती है। वदां सदक के किनारे पर
शक आदमी खड़ा रह सके, ऐसी लकड़ी की एक फोठरी है
जो कि बहुत नीचाई से वारंबार दृष्टि पथ में आया
करती हैं ।
(४०-५१) छीपा पेरी चौको भौर डाक बंगला-
मर० ने० &-२ के पास एक बढ़ा नाला आता है बिपको
लं।पा घेरी नाज़ा फदते हैं| यहां बढ़ के गचों की सपन
घन छाया होने से भ्वासी विश्रान्ति लेते दें तथा बैल-
गाड़ियां व अन्य बाहन भी यहां ठदरते हैं। यह स्पान
गढाद के जैसा है। इसके नजदीक इुछ उंचे हिस्से पर
( २५७ )
पीर को स्थान है, उसकी मानता होती नजर आतों हैं॥ः
मा० न० 8-४ के पास छीपा बेरी चौकी नामक गवने-
मेण्टी चौकी है। यहां सिरोही स्टेट की ओर से यात्रियों के-
पास से कर (मुंडका) टिकट मांगते हैं। यहां चौकी
के नजदीक एक छोटासा बंगला है। जो कि ?. ए. /)
के स्वाधीन है। युरोपीयन यात्रियों की विश्रां लि
यहां व्यवस्था रक़्छी जाती है।
(४२) बाघ नाज्ञा-मा० नं० ११-३ के नजदीक
एक नाला आता है, जिसका बाघ नाता कहते हैं |
इच्षादि की घटाओं से प्रकृति सुशोभित नजर आती है ।
(५३) सहादेव नाला--मा० नं० १३ के नजदीक
एक जल का प्रपात है जो कि दिन रात हमेशा बहता
रहता है, उसको लोग महादेव नाला कहते हैं। स्थान
रम्य है।
(५४) शांति आश्रम ( जैन सार्वजनिक घर्म-
शातवा )--मा० ने० १३-३२ के पास, (जहां से पर्वत
का चढ़ाव शुरू होता है) ऊपर जाते हुए, बांए दाथ 'की
ओर पष्णवों की छोटी धर्मशाला और पानी की प्याऊँ
(परष ) है। यह धर्मशाला तथा पानी की प्याऊ आबू
चाले संठ छाजुलाल हीौरालाल ने से० १६५४६ में बनवाष्ट
ह्ड २
( शश्८ )
थी। उसके पीछे के हिस्से में बिलकुल नजदीक ही कुछ
ऊंचाई वाली एक ही बड़ी विशाल शिला पर योगानिष्ट
अी शान्ति विजयजी महाराज के उपदेश से श्री बेन
ओताम्पर संघ की तरफ से 'शान्ति-आश्र्म नामका स्थान
चनवाया जारहा है । जिसमें दो मंजिल के मकान के आकार
मे ध्यान करने योग्य बढ़ी गुफा तयार हो गई है। पास
में शिवर्गंन वाले सेठ धन्नालाल कृपाजी की तरफ से
यात्रियों के लिये, धर्मशाला के दौर पर चार कमरे वैयार
रकिये गये हैं। वरएडा और कम्पाउण्ड की दीवार परगेरह
का काम जारी है। जैन साधु, साध्वी और यात्री लोग
विश्राम और रात्रि निवास भी कर सकते हैं । धर्मशाला में
बरतन गदेले और पीने को गरम जल की व्यवस्था की गई
है। एक नौकर रात दिन धर्मशाला में रहता है। यात्रियों
को भाता ( नाश्ता ) देने की व्यवस्था के लिये कोशिश
डो रदी है। शाह धन्ना्मल हृपाजी के परफ़ से यहां
शरीबों को चने दिये जाते हैँ । आधी और भी यहां पर
लैन मन्दिर, तीन छोटी २ गुफाएं, जल फा कुएड, बगीचा,
अर्भशाला के पास रसोई घर, भौर भजन साथ, संतों, फकीरों
ज़था हिन्दू, पारसी, मुसलमान बगेरदह ग्रहस्थों को विभाम
के योग्य मिन्न २ मकान बनवाने के लिये यहां का कार्य-
परम योगी मुनिरज थ्री शातिविजयज्ञी महाराज-प्रान-
( २५६ )
चाहक मणडल विचार कर रहा है। जैसे २ सहायता मिलती
रहेगी, काम शुरु होता जायगा ।
यहां से नजदीक ही, मा० नं० १३-१ के पास गवनेमेण्ट
की चौकी है। वहां चार पांच मकान हैं, जिनमें ५-७
आदमी हमेशा रहते हैं, जिससे शान्ति आश्रम में रात्रि
निवास करने में किसी प्रकार का भय नहीं है। आश्रम
के चौ तरफ प्राकृतिक जंगल आर पहाड़ियां होने से स्थान
झाति मनोहर बन गया है। यह बहुत संभवित है कि “यथा
माम तथा गरुणः” की कहावत चरिताये होगी ।
(४५-५६) ज्याला देवी को गुफा और जैन
मंदिर के खयडहेर--शांति आश्रम के नजदीक पश्चिम
दिशा में, दूसरे एक पत्थर के ऊपर ज्वाला देवी की विशाल
शुफा है, जिसमें करीब डेढ फुट ऊंची, चार हाथ और सुअर
के बाहन युक्त ज्वाला देवी की एक मूर्ति है। इसका
द्वाहिना द्वाथ खणिडित है इस देवी को लोग ज्वाला देवी
के नाम से पुकारते हैं। हिन्दुओं के रिवाज के मुताबिक
लोग इसे तेल पिन्दुर से पूजते हैं और अघर देवा
की बदन मानते हैं| लोगों का ऐसा मन्तव्य है कि--
आवालए देवी की गुफा ठीक अधर देवी की गुफा तक लम्दी
( २६० |)
गई-है, और ज्याला देवी मावा अधर देवी की गुफा से
इसी गुफा के रास्ते से ही यहां आई थी |
इस गुफा के पास एक चोक है !-चौक में जैन मन्दिर
के दरवाजे के पत्थर पड़े हैँ। उनमें दरवाजे के दो उतरग
$। उन दोनों के मध्य मात्र में मंगल मूर्चि के तोर पर
श्री तीथंकर भगवान् की एक एक मूर्ति खुदी हुई हैं।
एक उंबरा और दो शाख्रों के डुकड़े पड़े हैं। इस गुफा केः
दक्षिण दिशा में कुछ नीचे उतरते हुए पास ही दो खण्ड
हैं जिनमें ईडों के ढेर पड़े हैं। लोग इन दोनों को मन्दिर्रों
के खण्डदेर बताते हैं।
इनको देखने से निश्चित रूप से यह माना जा सकता
है कि ये दोनों खण्डदेर जन मन्दिरों के होगे। उत् दोनों)
या उनमें से एक मन्दिर श्री चद्र॒प्रभ भगवान् का होगा।
गत शताब्दि में, सिरोही और ऊंघपठर राज्यों के बीच,
ध्यान के आस पास भारी लड़ाई हुईं थी। उस समय में
उंचरनी बगैरद गाँवों के जैन मंदिरों का नाश हुआ था।
उसी समय इन दोनों मन्दिरों और मूर्तियों का नाश इआः
होगा। भ्री चंद्रप म मगवाव की अधिष्ठायिकरा थी ज्वाला*
देदी की अवशिष्ट इम सूर्चि को पीछे से लोगों ने उन
खण्डियरों में से ला काके इस गुफा में स्थापन की होगी +
( २६१ )
साथ ही साथ उन मन्दिरों के दरवाजे के पत्थरों को भी
चहां से लाकर के शुफा के इस चोक में रखे होंगे।
ज्वाजादेवी की मूर्चि के पास अन्य देवियों की भी
दो, तीन छोटी २ मूर्तियाँ हैं। इस गुफा के आस पास
आसरी दो गुफाएँ हैं, जिनमें एक साधु रहता है।
(५७) टॉवर ऑफ सॉय्लिन्स, ( पारसीओं का
दोखमा--मा० ने० १४ के करीब सड़क से कुछ दूरी
अर मोटा भाई भीकाजी नामक पारसी ग्रहस्थ ने इसको
अनवाया है ऐसा पारसियों का दॉवर ऑफ सॉयलेन्स
नामक स्थान आता है।
(४८) भद्ठा (झाकरा )--मा० नं० १५४-२ के
नजदीक भटदा (आऊफकरा ) नामझ गांव है। गांव के
नजदीक में दी सड़क के पास सेठ जमनादाखची की
बनवाई हुई वेष्णवों की छोटीसी धमंशाला है । साधु सन्त
चह॑ विभ्रान्ति ले सकते हैं तथा रात्रि-नियास भी हो
सुकता है। धर्मशाला के सन्युख ही जमनादासजी सेठ का
'क्का मकान तथा बगीचा भी है ।
(४६-६०) सान्पुर ऊन मंदिर व डाक बेंगला---
आ5 -दे० २६ के नजदीक सानपुर नामक गांव बसा
( २६२ )
हुआ है। इस गांव के पास ही में माइल के पत्थर
( 2४0)० 8800७) से एक या डेढ फर्लोइ की दूरी पर रखी-
किशन के मार्ग पर एक आचीन जैन मन्दिर है। यह
मन्दिर प्रथम वहुत ही जीणे होगया था। इस कारण से
सिरोही निवासी श्रीयुत् जवानमब्जी सिंघी ने बहुत
परिश्रम करके श्रींसंघ की आर्थिक सहायता से करीब
४० बे पूर्व इसका जीणोद्धार करवाया था। किन्तु
जीर्णोद्धार के बाद आज दिन वक उसकी प्रतिष्ठा नहीं
हुईं। इस भन्दिर में श्रीऋषभदेव भगवान् की एक
खण्डित मू्ति है। उस पर सं० १५८४ का लेस है।
यह मन्दिर मूल गंभारा, गूढ मण्डप, अग्रमाग में एक चौकी”
तया भमती ( परिक्रमा ) के कोट से युक्क शिखरबंदी
बना है। मन्दिर के दरवाजे के बाहर, मंदिर के दक्क की
योड़ीसी जमीन दे। उसके मध्य में एक छोटीसी धरमशाला
थी, किन्तु वच्तेमान में केवल मग्न दिवालें ही अवशेष हैं।
इसके उपरान्त मन्दिर के अधिकार में एक अरद ( कूझा )
झपरेड़ा, बाग तथा कृषि के योग्य चार बीघा जमीन भी दै।
कूए में पानी कम दोजाने से बाग शुप्क होगया दे। इस
मन्दिर की व्यवस्था रोहिड़ा के भ्रीस॑घ के अधिकार में दें।
रोहिड़ा श्री संघ को इस विपय पर लक देना चाहिये
* र६३ )
संथा मन्दिर की अतिष्ठा ओर धर्मशाला की मरम्मत जल्दी
करवाना चाहिये ! इस मन्दिर से कुछ ही दूरी पर सिरोही
स्टेट का एक डाक बैँगला है। मानपुर से पेदल पगड्डंडी
से नदी को पार करके जाने पर 'खराड़ी' एक माइल रहती है ।
(६१) ह॒पो केश (रग्वी किशन)-- मा० ने० १३-२
( शान्ति-आश्रम ) के पास से प्त के मार्ग से करीय डढ
माइल जाने पर ह॒पीकेश का सन्दिर आता हैं। किन्तु
इस मार से जाने पर पहाड़ को लांघना पड़ता है, मार्ग
विकट है। इसालिये शान्ति-आश्रम से बैसगाड़ी के मांगे
से करीब डेढ मील चल कर पश्चात् पहाड़ के फिनारे
किनारे दाहिने हाथ को पगदण्डी से करीब एक माईल
जाने पर भद्गकाली का मन्दिर आता है। यहां से आबवू
पहाड़ की ओर करीब आधा माईल जाने पर आबू पहाड़
की तलहडी में हृधीकेश नाम से प्रसिद्ध एक प्राचीन
विष्णु मन्दिर है। यह मन्दिर, तीनों बाजू पहाड़ से आवे-
पंत होने से तथा सघन भाड़ी में होने से त्िलकुल नजदीकः
जाने पर ही दृष्टि गोचर होता है। यह स्थल, रखीकिशनः
अथवा रिपेकशन के नाम से सी पहिचाना जाता हे
- इसके विषय में ऐसी प्राताद्दे है फ्रि--श्रीकृष्णजी
अधुरा से द्वारका की ओर जाते हुए यहां आराम करने के
( 5छ४ )
लिये ठहरे थे तथा इस मन्दिर को प्रथम झमराचती मगरी के
राजा अंपबरोश ने बनवाया था। यह मन्दिर काले मजबूत
पत्थरों का बना हुआ हैं! मन्दिर की एक चाजू में मठ और
धर्मशाला है । दूमरी बाजू हुएड ऋरठ (कप) वथा गौशाला
है। यहां मंहत नाधूरामदा सजी रहते हैं! प्रवाते आराम
से यहां रात्रि-निवरास कर सकता है। बतेन ओढनमे बिछाने
का सामान तया सीधा आदि मंहतजी से मिल सकता है।
इस मन्दिर के कम्पाउएड के बादर बाजू में ही एक छोटासा
शिवात्ञय तथा कुण्ड है। उक्त दोनों मन्दिरों के पीछे
की एक एवत श्रेणी (मरी) पर दृष्टि को आक़र्पित करने
चॉली एक सुन्दर बैठक है। लोग कहते हैं कि 'अम्यरीश
राजा इस बेंठक पर बैठ के तपश्चर्या करता या ।” हपीकेश
स्थल के चारों तरफ पुराने मकानातों के सयणडहेर यत्र सत्र
'मजर आते हैं । इनको लोग अमरावती के खझ्देर कहते
हैं। मन्दिर चारों ओर से परत श्रेणियों तथा काड़ी जंगल
आदि से वेटटित होने से यहां का च्श्य मनोहर मालूम
छोता है !
( ६२ ) भद्रकाली का मन्दिर तथा जैन मन्दिर
का ग्वयटहेर--रखीकिशन के उसम्री मागे से आधथ मील
बीछे रद जाने पर दाहिने दाथ की शोर नाले के फ्रिनारे
( २६५ )
के ऊपर श्री मद्रकाली देवी का एक मन्दिर है! यह मन्दिर
चहुत ही जीणे शीश हो गया था, इसलिये सिरोही के
सूतपूर्व महाराव प्रीमान फेसरीसिंहजी माहत घादादूरजी
“ने सत्ताभीस हजार रुपये खचे कर प्रिलकुल प्रारम्भ से नया
बनवा कर उसकी प्रतिष्ठा सं० १६७६ में कराई है। श्रीभद्र-
काली माता के मन्दिर के सामने नाले से बांए हाथ की
ओर एक जन मन्दिर था| यह ब्रिलकुल भूमिशायी हो
“गया है। अवशेष के चिह्न स्वरूप डुटी फुटी दीवालें आज
भी खड़ी हैं!
( ६३ ) उबरनीई--भद्रकाली माता के मन्दिर से
ऋचे रास्ते से आधा मील जाने पर उमरनी नामक एक
आ्राचीने गांव आता है। आबू के शिला लेखों के आधार से
तथा प्राचीन तीर्थमाला आदि से ज्ञात होता है कि-प्रथम
यह गांव बहुत बड़ा था। भ्ावक् के घर तथा जैन सम्दिर
अच्छी संख्या में थे। बत्तेमान में यह बिल्कुल छोटासा
गांव है और उसमें एक भी जैन मन्दिर या श्रावक का घर
| ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे के नकशे में इस गाँव का नाम उमरनो
सिरोही राज्य के इतिहास में ऊमरल। वि० सं० १२८० के लूणवर्धाई
क शिक्षा लेख में उचरनों ओर धाचोन तार्थेप्ताला संप्रह में ऊररणो हि
पलिख है।
( २६६ )
नहीं है। गाँव के बाहर चारों ओर खण्डहर तथा पुराने
पत्थरों के ढेर मिट्टी से दब्ने पड़े हैं! इतिद्वास ग्रेमिवर्ग थम”
पूर्वक खोज करें तो उनमें से जैन मन्दिरों के खण्डहर तया
प्राचीन शिला लेख आदि प्राप्त कर सकें, ऐसा सम्मव है।
यहां के निवाप्तियों का मन्तव्य है फि-/ प्रथम रखीकिशन'
से लेकर् उमरनी गाँव के आगे तक पआ्मरायती नामक
नगरी बसी हुईं थी और इसीलिए इस गाँव का नाम
“उमरनी ? हुआ हैं)” यहाँ से कच्चे मार्ग से एक भीलः
जाने पर सानपुर आता दे।
(६४) बनाम-राजवाड़ा घुल--मा० नं० १६-९२
के पास बमास नदी के ऊपर राजवाड़ा पुल नामक एक
बढ़ा पुल वना हुआ है। यह पुल वि० सं० १६४३ से ४४
तक में राजपूताना के रईस-राजा, महाराजा और जागीर-
दारों की सहायता से बनवाया गया ह। जब्र यह पुल नहीं
था तब बैलगाड़ी, मोटर आदि घाहनों को इस मार्ग से
जाना बड़ा कठिन होता था ।
(६५) खराड़ी ( ध्मादूरोड )--२ मानएुर से कची
सड़क से एक मील जाने पर तथा पक्की सड़क से डेढ़ मील
जाने पर खराडी नामक गाँव आता ई। घध्यावूरोड
+ देखों पृष्ठ ८.
( २६७ )
स्टेशन के पास ही तथा घनास नदी के तठ पर ही यह
गाँव बता हुआ हे । सिरोही राज्य में सर से ज्यादा
आधादी चाला यददी कस्त्रा है। राजपृताना मालवा रेलवे
के आबू विभाग का यह सुख्य स्पान है। ६० वर्ष पूर्व
यह एक छोटासा गाँग था किन्तु रेलवे स्टेशन हो जाने से”
तथा आयू पर जाने की पकी सड़क यहाँ से निकलने के
कारण इस गाँव की आ्रावादी बहुत बढ़गई है। सिरोही
के नाम्दार मद्दाराव ने यहाँ एक सुन्दर कोठी तथा एक
बाग बनवाया है। गाँव में पप्रजीमर्गंज निवासी राम
पहादुर भ्रीमान् बाबू ब॒द्धिसिहजी दुधेड़िया की बनवाई
हुई एक विशाल जैन श्रे० धमेशाला है। इसमें एक जैन
देरासर है। यहाँ पर यात्रियों के लिये सब भ्रकार की
व्यवस्था है। इस धमेशाला की व्यवस्था ध्महमदायाद
निवासी लाजभाई दलपतभाई वाले रखते हैं। इसके:
सन्पुख ही दिगम्पर जेन धमेशाज्ा और मंदिर तथा पीछे.
के हिस्से में हिन्दुओं की बड़ी धमंशाला आदि हैं। मोटरों
और गाड़ियों से आयू पर जाने वाले यात्रियों के लिये
केबल यहाँ (खराड़ी ) से ही रास्ता है। कुंभारोधाजी'
तथा अंबाजी को भी यहीं से जाना होता है ।
(्; रद्द )
(देलवाड़ा तथा थाबू केम्प [सिनीटोरियम!] से
अगणादरा )
(६६) आचूगेट ( अणादरा पॉइंट )--देलवाड़ा
से नामरार लींचड दरबार की कोठी, कपर तथा नखी-
बालाब के पाप्त से पकी सड़क द्वारा दो माईल जाने पर
“तथा आयू केम्प से नखी तालाब के पास देकर करीब एक
भाईल चलने पर यद स्थान आता हैं। यहाँ पानी की
नध्याऊ ( परव ) लगती है। यहां से अयादरा को जाने के
लिये नीचे उतरने का मार्ग शुरु होता है। उसके झारंम में
ही मार्ग के दोनों ओर खामाविक एक २ ऊँचा पत्थर खड़ा
होने से दरबजे के समान दृश्य मालूम होता है और
“इसीलिये इस स्वान को लोग झावू-गेट अथवा आपा-
दरा-गेट कहते हैं। कोई ध्यणादरा पॉहन्ट के नाम से
औ पद्विचानते हूं !
(६७) सगपत्ति का सान्दिर- आबूगेट के नजदीक
“दाँयें द्वाथ की ओर कुछ ऊँची जमीन पर गयप्रति का
एक छोटा मन्दिर दे। गणेश चतुर्थी ( भाद्पद शुक्ला 9 )
-को आय के रहने दाले दर्शनार्थ वहां जाते हैं।.. , ४
( २६६ )
(६८) क्ेग पॉहस्द ( झुरुस॒ुफा )--उपर्युक्त गणपर्ति”
के मन्दिर से कुछ दूर, ऊपर जाने से एक गुफा थाती है;
जो फ्रेगपॉहन्ट या शुरुग्॒फा के नाम से प्रसिद्ध है। नाम-
दार लींबड़ी दरबार के बेंगले के पास से भी भुरुगुफा
को एक रास्ता जाता है।
ग़ुरुगफा--यह सुफा लैंबडी दरवार की नई कोठी
लगभग मील भर से छुछ कम दूरी पर हैँ। महान्
योगीराज गुरुदेव श्री धर्मविजयजी महाराज का स्वगवास
मांडोली में हुआ था, उस समय अग्नि संस्कार हुआ तबः
घ्वजा नहीं जली तथा उस स्थान पर जो खखे चार
लकड़े गाड़े गये, ये चार नीम में परिणत हो गये थे,-
जो अबतक खड़े हैं। अग्नि संस्कार के लिये अग्नि दी
नहीं गई थी किन्तु अँगूठे में से अग्नि प्रज्वलित हुई थी ।*
इस गुरुगुफा से मांडोली में आग्लि संस्कार का स्थान साफ-
दिखता है, इस कारण इसे गुरुगुफा कद्दते हैं। अंग्रेज लोग
इसको क्रेग पॉइन्ट कहते हैं।
(६६) प्याऊ ( पर )--आवूगेट से अणादरा की
ओर करीब आधा उतार उतरने पर सघन भाड़ी-ज॑गल के
मध्य में एक नाला आता है। उसके पास एक छप्पर में
(२१७० )
द्देलबाड़ा जैस श्वेताम्बर कारखाने की तफ से पानी की
“प्याऊ रहती है। यहां की एकान्त शान्ति, शीतलजल।
-सुगंध पूरे वायु तथा इच्ों में से निकलती हुई कोकिल
आदि पत्नियों की मीठी आवाजें तथा यत्र तत्र कुदते हुए
च्वानरों का दोला बगेरः २ अबासी के दिल को आनंदित
“बनाते हैं।
(७५-७१) अणादरा तलहदी और डाक वें गला-
“'आवूगेट से करीब तीन मील का उतार तय करने पर आबू
की तलहईी आती है। यहां से ध्यणादरा गांव नजदीक
में होने से इसको ध्यणादरा तलहदी कहते हैं । यहां राज
-की चौकी बैठती है। देखबाड़ा जैन श्वेताम्बर कारखाना की
तफे से पानी की प्याऊ, भीलों को ५-७ भॉपड़ियाँ तथा
-कूआ आदि हैं, और जैन श्वेताग्बर धमेशाला के लिये मका-
नाव भी चनवाये जा रहे हैं । यहां से अयादरा की तह
कचे भाग से आधा प्ील जाने पर सिरोही स्टेट का एक
डाक बैंगला आता ई।
(७२) धझणाद्रा---अणादरा तलहड्टी से पश्चिम की
तर्फ कच्चे मार्ग से करीब्र दो माइल जाने पर अणादता
ये देखो पृष्ठ ३०७ ।
(२७१ )
नामक प्राचीन गांव आता है | आचीन शिलालेखों में तथा
अन्यों में इस गांव को नाम हणाद्रा अथवा हडादरा
न्आदि नजर आते हैं और इनमें दिये हुए घर्णनों से मालूम
होता है कि-प्रथम यहां भावकों के घर तथा जन सन्दिर
अच्छी तादाद में होंगे। वत्तेमान में यहां श्री आदीश्वर
अश्च का प्राचीन और विशाल एक ही मन्दिर है जिसका
दाल में ही जीरणोंद्धार हुआ है। मन्दिर के पास में दो
उपाश्रय तथा अहमदाबाद निवासी सेठ हृठीभाई की
अनवाई हुई एक धर्मशाला है। श्रावकों के घर ३४ हैं।
सार्वजनिक धर्मशाला, सर्यनारायण का मन्दिर ओर पोस्ट-
ऑफिस बगैरः हैं। यहां प्रथम अच्छी आबादी थी किन्तु
आपषूरोड स्टेशन तथा चहां से आबू को जाने फ्री पक्की
सदक होजाने से यहां की आग्रादी कम होगई है।
आधयू के ढाल ओर नीचे के भाग के स्थान
(७३-७४) गौछुख और वशिषछठाश्रम --पशिष्टा-
अम।, देलवाड़े से पंच मील और कैम्प से चार मील दूर
है। आबू कैम्प से आबुरोड की सड़क के मील नं० £
के पास ईदगाह है। वहाँ से इस सड़क को छोड़कर
गौझुखनी के रास्ते पर लगमग दो मील जाने के बाः
( २७२ )
इजमानजी का मंदिर आता है। देलवाड़े से जानेबराले
लोग आबू. फ्रेम्प में होकर उपरुक्त रास्ते से भा सकते हैं |
अथदा देलवाड़े से सीधे आवुरोड जाने के लिये दो मील
लम्बी नई सड़क बनी है। इस सड़क पर दो मील चलने
के बाद आबू कैम्प की (ओर की) सड़क से एक दो फर्लोग
जाने पर वही इंदगाह आती है। यहां से इस सड़क को-
छोड़कर गौसुख के रास्ते से लगभग दो मौक्ष चछने के-
वाद इल्ुमानजी का मंदिर आता है। वहाँ से लगमगः
एक मील दूर गौप्ुख है ।
हनुमान मंदिर से थोड़ा चलने के घाद ७०० सीढ़ियों
नीचे उतरने की हैं। हसुमान मंदिर के (बाद के) रास्ते के
चारों वरफ आम, करोंदा, केवकी। मोगरा आदि इत्चों व
लताओं की सपन भाड़ियों की छाया व सुगंधिव शीतल
वायु चढ़ने उतरने वालों के श्रम को दूर करती हैं। सात
सौ सीढ़ियाँ उतरने के धाद एक पका छुंड मिलता है। इस
कुंड के किनारे पर पत्यर के बने हुए भाय के घुस में से
मारदों महीने पानी आता रहता है। इसी कारण से यहा
स्थान गौछुख अथवा सौऊुणखी गेंगा के नाम से प्रसिद्ध
है। इस झुंड क्ेपास कोटेश्वर महादेव की दो छोटी देदरियाँ
हैं। गौशुस से जरा नीचे 'वशिष्ठाश्रम नाम का असिद्ध
( २७३ )
स्थान है ( यहाँ वशिष्ठ ऋषि का प्राचीन$ मंदिर है )। इस
मंदिर के, बीच में चशिष्ठ ऋषिजी की मूर्ति है। इनकी
एक ओर रामचन्द्रजी की व दूसरी ओर लक्ष्मणजी की
मूर्चि है तथा यहाँ पर चशिछ्ठजी की पत्नी अरुन्धती और
कपिलसुनि की भी मूर्तियों हैं।
इस मंदिर के मूल गम्भारे के बाहर दाहिने हिस्से में
चशिए्ठज़ी की नन्दिनी कामधेजु (गाय) की बाहछिये युक्त
संगमरपर की मूर्ति है। मन्दिर के सामने पिचल की एक
खड़ी मूर्ति है। कई लोग इसको इन्द्र और कई आबू के
परमार राजा धारावप्प की मूर्ति बतलाते हैं। इस
मन्दिर में वशिष्ठ ऋषि का प्रसिद्ध अग्निकुण्ड है।
राजपूत लोग मानते हैं कि-/ परमार, पडिहार, सौलंकी
3 पशिष्ठजी, राम-लक्षमण के गुरु थे, जो आयू पर्वत पर तपस्या
करते थे। विशेष के लिये इसी पुस्तक का प्रष्ट ७-३. देखो
$ वशिष्ठज़ी का यद्द मन्दिर चन्द्रावती के चौद्माण महाराव ल्ुंभाजी
के पुत्र महाराव सेजसिंह के पुत्र कान्दड्देव के समय में, लगभग
वि० से० १३६४ में बदा था। महाराव कान्दडदेव ने इस मन्दिर को
चीरवचाड़ा नामक गांव अपँण किया था। मद्दाराद फान्हड्देव के पिता
सद्ाराव तेजसिंद्ध ने भी बशिष्टाश्रम के लिये ऋाबद्ध ( मां ),
ज्यातूली और तेजलपुर ( तेलघुर )-ये तीन गांव भेट किये थे ।
कान्दडुदेव के पुष्न सामन््तासेद ने भी इस मन्दिर में लुइुली....
छापुली ५ स्ापोल ) और किरणिया ये तोन गांव भेंट किये थे ।
रुप
( २७४ )
और चौदाण वंशों के मूल पुरुप इस इंड में से पैदा हुए
हैं +॥! वशिप्ठजी के मन्दिर के पास बराह 'वतार, शेप-
आशागी ( शेपनाग पर सोये हुए ) नारायण; छम्ये, विप्सु,
लष्मी आदि देव-देवियाँ तथा भक्त भनुध्यों की मू्तियाँ
हैं। इनमें की कड एक भूत्तियों पर वि० सं० १३०० के
असपास के संक्षिप्त लेप हैं । मंदिर के दरवाजे के पास
दीपर में दो लेख हैं । इनमें का एक वि० सं० ११६४
चैशाख शुक्ला ० का। चद्गावती के चोहाण महाराव
सेजसिंह के पुत्र कान्टडुदेव फे समय का है और दूसरा
पति० मँ० १४०३ का, महाराणा कुभा का है। ये दोनों
जेब छप चुके हैं। दरवाजे के पास के एक तास में एक
आर लेख है, उस पर से मालूम होता हे क्वि-वि० स०
५८७४ में सिराहो दरंथार मे उन मंदिरों फा जीयोद्वार
वे धर्मेशाला कराई और संदावत्त देना शुरू किया ।
भंदिर के पास आथम है। उसमें साधु सन रहते हैं।
यहाँ के महन्त, मुसाफिरों को रसोई के लिये बर्तन एवं
सीधा सामान वगैरह जो साधन चाहिये, देते हैं। पदों
चहुत लोग गोठ करने के लिये आते हैँ । भाश्रम के पास
के द्रात्त की बेलों के मंडप, चारों तरफ के काड़ी, जंगल
६ दक्षो एए ४ ।
(ज्ज्४ )
आऔर पहाड़ के दरें आदि प्राकृतिक दृश्य आनन्ददायक हैं ।
यहाँ प्रति बपे आपाद शुक्ला १४ का भेला भरता है।
राजपताना होटल से गौप्ुख लगभग चार मील दूर है ।
( ७४ ) जमदग्नि आआश्रम--बशिष्ठा श्रम से लगभग
दो-तीन फर्लोग नीचे जमदर्नि ध्माश्रम है | रास्ता विकट
है। यहाँ पर खास देखने लायक कुछ नहीं है।
(७६ ) गौतमाश्रम--वशिष्ठाश्रम से लगभग तीन
मील पश्चिम में जाने के बाद कई पक्की सीढियां उतरने
से गौतस ऋषि का आश्रम आता है। यहां गौतम ऋषि
का छोटा मन्दिर है। इसमें विप्णु की मूर्चि के पास मौतम
और उसकी स्त्री आहिल्या की मूत्तियां हैं। मंदिर के वाहर
एक लेख है, जिस में लिखा है कि--“ ये सीढ़ियां महाराव
उदयसिह के राज्यकाल में वि० सं० १६१३ वेशाख सुदि
3 को चंपायाई व पावेती याई ने चनवाई ।
( ७७ ) साधवाश्रम--वशिष्ठाथरम से नीचे करीब
८ मील पर साधवाश्नम होना बतलाया जाता है। यहां
से आजूरोड ( झराड़ी ) लगभग दो मील शेप रहता है।
चशिषप्ठा थम से गौतमाथम और माघवाश्रम जाने के रास्ते
बहुत बिकट हैं| वशिष्ठाथम से माधवाथम और ऐसे ही
( २७६ )
आबू पहाड़ के दूर दूर के ढाल उतरने के लिये चौकीदार
को साथ लिये बिना किसी को साहस नहीं करना चाहिये।
( ७८ ) वास्थानजी--आबू के उत्तरी ढाल में शेर
गांव 4 की तरफ बहुत नीचे उत्तरनें के बाद वारधानजी
नाम का अत्यन्त रमणीय स्थान है। यहां १८ फ्रीट लंगी।
१२ फीट चौड़ी और ६ फीट ऊंची गुफा में विप्णुजी की
मूर्ति है! इस मूर्ति के पास शिवालिंग, पयंदी और गय-
पति की सूत्तियां हैं । गुफा के बाहर गशेश घराह अवतार,
भैरव, ब्रह्म आदि की पूर्चियाँ हैं। यह स्थान बहुत प्रमिद्ध
है। प्रति वे हजारों आदमी दशन करने को श्याते हैं।
आयू से वास्थानजी जाने का रास्ता बहुत बिकट है। यहां
जाने का सुगम मार्ग आयू के नीचे इंसरा $ गांव के
पास से दे । ईसरा से लगभग दो मील दूर आयू पहाड़ है ।
बहां से आयू का कुछ चढाव चढने के बाद वास्थानजी
नाम का स्थान आता है।
3 आाद कैस्प से उत्तर पूरे (इंशाय कोण) में लगभग १०-१३ मीस्ध
दूर शेर नांम का गांव है ।
$ ' ट््नॉमेट्िकल' सर्दे के मकशे में इसका सांस इंसरि दिखा दे।
और 'प्तिरोद्दी राग्य के इतिडास! भें इंसरा लिखा है। यह गांव शेर से
ब्तरें में आपू पट्दाद की सलहटी से २ मील, सिरोद्दी से दिया में
११ मील यनास्त स्टेशन से पाश्रिम में ११ मल, और पिंदवाड़ा स्टेशन
से १७ भीछ होता है ।
( २७७ )
( ७६ ) फोड़ोधज ( कानरीधज )--अणादरा से
ग्लगभग २॥ मील और अणादरा तलेटी से करीब सवा-
मील दूर, आबू के नीचे की एक टेकरी पर फोड़ीघज
नाम का एक प्रसिद्ध सर्स्य मन्दिर है। इसमें श्याम पत्थर की
सझ्पे की एक मूर्ति है। यह मूत्ति मंदिर जितनी प्राचीन
नहीं है। इस मन्दिर के सभा मण्डप के पास एक दूसरा
-छोटा उर्ट्य मंदिर है। उसमें सर्य की मूर्ति है । इस मंदिर
के द्वार के पास संगमरमर की अत्ति श्राचीन एक छ्ये
मूर्ति है। मालूम होता है कि-थह शूर्त्ति इस मन्दिर के
समकालीन बनी हुई मूल मूर्ति हो और वह जी हो जाने
से अलग कर मंदिर में नई मूर्ति स्थापन की गई हो ।
इस मंदिर फे सभा मण्डप के भीच में एक स्तंभ पर
कमल की आऊृति वाला सुंदर और फिरता हुआ सर्य्य का'
चक्र रक्खा हुआ है। सभा मण्डप के स्तेभों पर वि० से०
१२०४ के दो लेख हैं ओर भी कई एक छोटे २ मंदिर हैं
जिनमें देवियों और छव्पे आदि की मूत्तियाँ हैं। सभा
मण्डप के कुछ नीचे एक खंडित शिव मंदिर है। इसमें
शिवलिज्ञ के पास शस्ये, शेप शायी नारायण, विष्णु,
हरगोरी आदि की मूत्तियाँ हैं। इस टेकरी के नीचे दूर दूर
“तक मकानों के चिह्न हैं ओर जगदह जगह पर देव देवियों
( रछध )
की मूर्चियोँ पड़ी है। यहाँ से आधे मील की दूरी पर
लाखाव (लाखावती) नामक प्राचीन नगरी के निशान
हैं। यहाँ पर बड़ी-बड़ी ईटें और पुरानी मूर्तियों उपलब्ध
होती हें। कोटिध्यज के पास आवण शुदि पूर्णिमा के दिन
मेला लगता है ।
(८० ) देवांगणजी-- क्रोड़ीधन से लगभग एक *
मील पर आयू के नीचे सघन वन और बांस की भार्डियों
से घिरे हुए एक नाले के पास कुछ ऊँचाई पर देवांगणजी
का प्राचीन छोटा मन्दिर है। मन्दिर में जाने की सीढियाँ
टूट जाने से वहों आने में कठिनता होती है। इस मन्दिर में
एक बड़ी विष्णु घूर्ति हैं। जो मन्द्रि के जितनी प्राचीन
नहीं है। मन्दिर के चोक में भीतों के पास कुछ मूत्तियाँ
हैं, जिनमें दो मरसिंहाबतार की, कई एक देवियों की व
एक कमलासन पर वेठे हुए दिप्णु (बृद्धावतार ) की
सुन्दर मूर्ति है। इस मूर्ति के दोनों हाथ जन मूर्तियों की
तरद प्मासन पर रक्से हुए हैं, और ऊपर के दो द्वाथों
में कमल व शंख हैं।
इस सन्दिर के सामने नाले की दूसरी तरफ थोड़ी
ऊँचाई पर शिवजी की त्रिमूर्चि का मन्दिर था। यद्यपि
( २७६ )
यह मन्दिर टूट गया है, परन्तु शिवजी की विमूर्ति अभी:
तक वहाँ मौजूद हैं। +
, _ इस प्रकरण के करीब २ छप्ताग देः समय “गुजरात” मासिक के
पुस्तक १२, भरक्ञ २ में प्रकाशित श्रीमाद् डुगोशंफर केवल्तराम शाजी
का “झआायु-अर्युदगिरि/-नासक ऐख मेरी निगाह में आया। इस झन्तिम
अकरण में हिन्दू धर्म के बड़े २ तीथों का सविस्तार वर्णन तो दे हो दिया
है, लेकिन उसमें नहीं दिये हुए कुछ छोटे २ तीर्थी चोर मन्दिरों के मास
उपयुक्त लेख में देसने झाये। उनका उल्लेख यहां पर किया जाता दे ।
( १-२ ) आऊरोड से ( सद़क के रास््ते से ) आबू जाते हुप् बहुत
चढ़ाव चढ़ने के याद सूस््ये कुरड और कर्णश्वर महादेव पाते हैं ।
( ३-६ ) कन्या कुमारी और रासेया बालम के मन्दिर से कुछू
दूरी पर पग्गुती रथ, अम्ितीर्थ पिंडारक तीर्थ और यशेश्थर मद्दादेव
के दर्शन द्वोते हैं ।
(७ ) ओरीया गाव में श्री मद्ावीर स्वामी के जिनालय के पास
चक्रेश्वर महादूव का मान्दर दे । 'भापादी एकादशी को यहीं मेला
ड्ाता ६ ।
( मं ) ओरिय। से कुछ दूर जावाई गांव के पास नागतीर्थ है,
यहां नाग पन्नमी को मेला द्वोता दै ।
( ६-१० ) ओरिया से गुरु दुत्ताश्नेय के स्थान को जाते हुए केदारे-
अर मद्दादेव का स्थान भौर केदार कुण्ड भाता है ।
(११) नखी तालाब के पास फपालेश्वर महादेव का स्थान है 9
( २८० )
कम
$ डफ्संहार :;
आलू पर्वत का यात्रा किस तरह करनी चाहिये-
आगू पर्वत के विलकुल नीचे की चारों तरफ की टेकरियों
से लेकर के ठेठ ऊँचे से ऊँच शिखरों पर विद्यमान् णैन,
वेष्णय, शव वगैरह २ धर्मों के तीथ व मन्दिर; क्रिशियन,
पारती और मुसलमानों के धर्म-स्थान तथा कृत्रिम और
आक्ृतिक प्राचीन दर्शनीय स्थान, जो मेरे देखने व जानने
में आए उनका मैंमे अपनी अन्प शक्ति के अनुप्तार इसमें
चर्णन किया है । परन्तु इनके आतिरिक्त भी आबू पर अन्य
छोटे बड़े धर्म-स्थान, मन्दिर, दशनीय पदा थे, भाचीन मकान,
श॒फायें, कुणड, नदी, नाले, चइ़नें आदि अनेक वस्तुएँ
हैं। जिन लोगों को ये सब वस्तुएँ देखने की व आनने की
इच्छा हो, उनको चाहिए कि थे वहां पर जाकर स्वयं देखें ।
अन्त में वाचकों से एक बात कह देना चाहता हूँ कि
आजकल रेल, मोटर आदि साधनों के कारण यात्रा करना
चहुत ही भ्रांसान हो गया है | इल्कि यों कहना चाहिये
एके यात्रा का कोई मूल्य ही नहीं रद्य | शायद ही कोई
लोग विचार करते होंगे कि-यात्रा है किस वस्तु का नाम
डसी का यह परिणाम हुआ है कि--“यात्रा, थष्टि के
( र८१ )
“विपय की पुष्टि करने का घन्धा माना जाता है। अयीद्
देश-विदेशों में भ्रमण करना, नये नये गांव, शहर व देशों
को देखना, उन देशों के अज्ञायचघर ( >ड०णा )॥
चिड़ियाघर, कोट-कचदरियां आदि सुन्दर मकान मनोहर
ताल, नदी के घाट बाग-बगीचे, नाटक सिनेमा आदि
देखना, देश विदेश के लोग व उनकी भाषा देख-सुनकर
आनन्द मानना, विचारक दृष्टे से इन सब्र वस्तुओं में से
भी तात्तिक सार नहीं निकाल कर मात्र ऊपरी नजर से ये
“सब देखना और प्रमझ्ोपात मुख्य २ तीथे-स्थान, मन्दिर
आदि फे भी दशन कर लेना” ।
यही यात्रा का अर्थ हो गया है और इसी कारण से
यात्री लोग घर से निकलकर तॉगा, मोटरादि बाहनों के
ड्वारा स्टेशन पर पहुँचते हैं। यहाँ से रेल में सवार दोते हैं।
फिर स्टेशन पर उतर कर ताँगा, मोटर से तीथे-स्थान या
धर्म-शाला में पहुँचकर मुकाम करते दें | यदि पहाड़ पर
चढ़ने की ,नौबत होती हैं तो डोली, पीनस थादि में बैठ
फ़र् मन्दिर तक पहुँच जाते हैं। वहां घएटा आध घण्टा
दुशन पूजन में खचे करके नीचे आकर भोजन आदि में
आधा दिन निकाल देते हैं! शेष आधे दिन में शहर, बाजार
ओर छुछ दर्शनीय स्थान देखने थ माल बगैरह खरीदने
( श८२ )
में बिता देते हैं। अगर तीर्थ-स्थान छोटे से गांव में हो
तो लोग शेप सम्रय सोने में अथवा पिकया में + अथवा
ताश आदि से खेलने में निकाल देते हैं ।
वीर्थ-स्थान में यात्री शायद ही विचारते होंगे क्ि-
* घर और व्यापार-रोजगार को छोड़ कर सेकड़ों रुपये
खर्च करके यहों तीर्थ यात्रा करने को आये हैं तो तीर्य
यात्रा, सेवा, पूजा, द्शनादि धार्मिक कार्यों में हमने कितना
काल घ्यतीत किया ! और कुतुदल तथा ऐश-शआराम में
कितना समय व्यतीत किया १”” यदि इस तरह से थोड़ा
बहुत भी विचार किया जाय तो जरूर मालूम हो कि-सच-
सच हमने कुछ नहीं किया। वास्तव में यादे ती्थ यात्रा
का सच्चा फल ओर सचा आनन्द लेना हो तो, धन्धा-
रोजगार और घर आदि की चिन्ता को छोड़ कर पर से
तीर्थ यात्रा करनी चाहिये ।
मार्ग भें अथवा तीर्थ-स्थान में क्लेश, लड़ाड, कगड़ा,
इंसी ठट्ठा, असत्य वचन, परनिन्दा ओर सप्त व्यसन आदि $
| (१) देशनविदेश के मल दुरे राजाभो छी, (२) क्लिया को, (३) स्ाथ
पदायों की चोर (४) दुरा, शहर द गांवों को निरर्थक कपान्वातों या
चच्ो, विकथा कट्ठजाती दे
६ (१३) सांस सपण, (२) अद्यपान, ३) शिकार करना (४) वेश्या
गमन, (७५) परश्ली गमन, (६) चोरों भौर (७) जूधा--पये सात स्पसनः
कहइयाते दें ।
( रेषरे )
दुशेणों का त्याग करना चाहिए। ती्य-स्थान में जाकर
तीये के निमित्त से कम से कम एक उपवास करके, बिक-
थाओं को ठाल कर। क्रोध) मान, साया, लोभ, राम) ठेप,
मोह आदि दूपणों को दूर कर अपूर्य शान्ति के साथ
तीथे के दशन पूज़ादि में प्रवृत होना चाहिये।
यथा शक्ति स्नात्र पूजा, अष्ट भ्रकारी पूजा आदि बड़ी
पूजायें, तथा अड्ग रचना, रात्रि जागरण आदि महोत्सव
पूर्वक भगवान् के गुर्णों को स्मरण करके शुद्ध भावना के
साथ धम-ध्यान में तत्पर रहना चाहिये। प्रातः और संध्या
समय में प्रतिक्मण ( संध्या-वन्दनादि ) करना, अभक्ष्य
तथा सचित ( जीवमुक्त ) भोजन का यथाशाक्ति त्याग करना
जीणोड्ार आदि कार्यों में सहायता करना, यदि मन्दिरों में
आशातना होती हो तो उसको शान्ति पूवेक दूर करना,
स्वधर्मी बन्धुओं की भक्ति करना, साधमी-चात्सल्य करना,
शाक्ति अनुसार पांच प्रकार के दान (अभयदान, सुपात्रदान
अलुकम्पादान उचितदान ओर कीर्तिंदान) देना, तीय-स्थान
में रही हुई शिक्षण संस्थाओं की मदद करना समय मिले
तब २ धार्मिक पुस्तकें पढ़ना आदि, सच्चे यात्री के कत्तेज्य हैं
पर इस प्रकार से जो वास्तबिक फल सम्यक्त्व आप्ति,
स्वगोदि के सुख, कर्मों की निजेर और यावत् मोल सुद को:
४ ( २८४ )
"आप्त कर सकता है। इसलिये प्रत्येक यात्रि को उपयुक्त
नकथनाजुसतार कार्य करने के लिये उद्यमबंत होना चाहिये ।
कालेज, स्कूल और स्काउट के विद्यार्थी और अन्य
श्रेज्षक आदि, जो दशनीय स्थानों को देखने के लिये जाते
“हैं, उनका परयेट्ण तब ही सफल हो सकता है जब कि- वे
अपने अमण के समय शोध व खोल-खोज के साय ऐति-
डासिक ज्ञान प्राप्त करें | ताक्चिक दृष्टि पूंचक विचार करके
अलॉकिक तत्व इस्तगव करें। जीव और पुद्मल की प्राक्ष-
प्तिक अनंत शाक्रियों का विचार करें। शास्तिपूर्ण स्थानों
में जाकर ओषादि कपायों तथा द्वास्यादिक हुगुणों का
“त्याग करके कुछ न कुछ समय शुभ विचारों में व्यतीत करें ।
अपने में रहे हुए द्यों को छोड़ कर सदगुणों की प्राप्ति
-के लिये कोशिश करें ओर समाज व देश की सेवा करके
अपने का कृताथ करें। अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त
करके उपायों को अमल में लावें। प्रत्येक मनुष्य को
चाहिये कि ग्राकृतिक इश्यादि देखने में क्िश हुआ द्रव्य
ज्यौर समय का व्यय प्फल हो, ऐसा प्रयरन करें ।
५
५.
हरादहाकउपउतकर
22000
न्ट जि आओ 4:
डे
( र८छ७ )
परिशेष्ठ १
जैन पारिभाषिक तथा अन्यान्य शब्दों के अर्थ
धद्वाई महोत्सव--आठ दिन का महोत्सव ।
अनशन--भोजनादि का त्याग ।
धअप्छुधिंम खामना--गशुरू को सुखशान्ति पूछना
सथा अपराधों की माफी के साथ वंदन करना ।
अवधेत्तनिष--पुक्त ।
झश्वमाज--अश्वों की पंक्ति ।
धष्टांग नमस्कार--आटठों अंगों को भूमि पर सपशे
कर नमस्कार ( दंडबत ) करना।
ध्राशतना--अविनय, अवज्ञा |
अंगरचना--जिन मूर्ति का शुगार
उत्कृष्ट फालीन--उत्कृष्ट समय जब कि १७० तीथ-
ऋर प्रभु विधमान होते हैं ।
एक तीर्थी--जिन ग्रश्ञु की मूर्चि एक ही दो किन्तु
चारों और परिकर हो बह मूर्ति ।
एकलतोर्धथी--पारिकर रहित जिन मूर्चि
ओघा--रजो हरण' रज को साफ करने के लिये
सथा छच्म जीबों की रचा के लिये (फालियों) उन की दशियों
६ रेघ८ )
का एक गुच्छा जिसको जैन साधु हमेशा अपने पास
रखते हैं ।
फल्पाणक--श्री तीथंकर के जन्मादे मांगलिक
असंग।.
कखसरत--बहुत ।
काउसग्ग--ध्यान करने के लिये कार्यों को स्थिर
कर देना (कायोत्सग्ग ) |
काउसरिगपश्मा--ध्यान में खड़ी जिन मूर्चि ।
कारखाना--कार्य्यासय ।
कालकचलित--मृत्युवश |
केवल ज्ञान--भूव, मगिष्य और वत्तेमान का संपूर्ण
ज्ञान ।
खत्तक--गोंस, आला ।
गजमाल--हाधियों की पंक्कि।
गण घर--तीथपकर प्रश्न॒ का मुझय शिष्य )
गंभारा--वह स्थान जिसमें मूलनायक ( मुझ्य
भगवान ) विराजमान किये जावे हैं।
गरासादि--जागीर आदि।
शंभोगार--एभारा ।
गढ़ सशडप--ग्रेमारे के पास का मण्डप ।
(: रघ६ )
चातु्सो स--वपी ऋतु के चार महिने ।
चैत्यदंदन--स्तवन, स्तुति आदि से गुणगात करने
के साथ जिन प्रश्॒ को चन्दन करना ।
चौमुखजी--मन्दिर में था समवसरण पर मूल-
नायकजी के स्थान पर चारों दिशाओं में एक एक जिन म्रश्ु
की सूर्तिं होती है ।
चौबीसी--एक पत्थर या धातु पत्र में जिन ग्रश्ु की
२४ प्रतिमाएँ |
छ/ चौकी--गूढ़ मण्डप के बाहर का छः चौकी
वाला मण्डप ।
छद्धमस्थ--सर्वज्ञत्व के पहिले की अवस्था ।
जगती--देखो 'ममतो' ।
जाति स्परण ज्ञान-पू्य भय का स्मरण हो ऐसा ज्ञान है
जिन कल्पी--जैन साघु के उस्कृष आचार के पालक)
जिन युर्म--प्रशु मूर्ति कर युगल ( दो मूर्तियों )।
जीणोॉडार--मरम्मत, सुधार काम !
इूंक--पवेत का शिसर जिसके ऊपर देवालय हो ।
दोल टैक्स--सड़क का कर |
ठवणी--लकड़ी की चौपाई जिस पर गुरु की
स्थापना रखी जादी है ।
श्ह
(२६० )
त्तरपणी--जैन साधु का काष्ट का जल पात्र ।
तीनतीथी--जिसमें तीथकर पध्ध की प्रतिमा के दोनों
आर दो खड़ी श्रतिमायें हों ओर परिकर हो ।
लोरण--महराव ।
स्षिक--तीन व्यक्ति |
दीक्ता--संन्यास |
देवक्नलिका-- देहरी !
येहरी--छोटासा मन्दिर |
द्वार सयडप-- दरवाजे के ऊपर का मणडप ।
धर्म-चऋ--जिन प्रतिमा के परिक्र की गद्दी के
अध्य में जो खुदा हुआ रहता हैं तथा तीथेकर प्रश्न के
विहार में आगे रहने धाला चिह्द विशेप ।
नवकार--नमस्कार |
नव चौको--गृूढ़ मएडप के बाहर का नव चौकियों
चाला मण्डप |
निषाणया--इस भव के भेरे अप्तुक धर्म कार्य के
अमाय से मे अमुक प्रकार का सुस्ादि मिले ऐसा विचार ।
निवाचन--पसंदगी ।
निर्षोण--मोच-झफ़ि ।
(२६१ )
पद्च तीर्थी--तीन तीर्थी के परिकर में जिन प्रक्ु
'की खड़ी दो मूर्तियों के ऊपर बेठी हुईं दो जिन अतिमायें ।
पंच मौष्टिक लोच-पांच सुप्ठि से शिर के सब
आल निकाल लेना ।
पशथ्चांग नससक्ार--दो हए्थ, दो! घुटने और मस्तक
को भूमि पर लगा कर नमस्कार करना ।
पद्ट--जिस पत्थर या धातु पत्र में एक से ज्यादा
अूर्त्तियों हों वह ।
पबासन--जिसके ऊपर जिन प्रशु की मूत्तियों बिरा-
जमान की जाती हैं।
परिकर--मूर्स के चारों ओर का नकशी वाला द्विस्सा ।
पौषध--चार पहर अथवा आठ पहर तक का साधुत्रत।
परषषेदा-समा ।
प्रतिवारुदेव--वासुदेव का शत्चु ।
प्तिछठा--मन्दिर में भूत्तियों की धार्मिक क्रिया के
साथ स्थापना !
प्राग्वाट--पोरवाल ज्ञाति ।
चल्षानक--जिन मन्दिर के द्वार के ऊपर का मंडप |
बिंब--मूर्चि ।
अमती--मंदिर की भ्रदक्षिणा, परिक्रमा, जगती।
(६ २६२ )
भाता--नास्ता ।
भासणडल--तेज का समूह (दर्स्य॑प्ुख्धी ) ।
महस्ूदी--प्ुसलमानी जमाने का एक ग्रकार कह
चांदी का सिका
मातहंत--धाघीन, तापेदार ।
सुंहपक्ति--बोलते समय जीबों की रघार्थ मुख) केः
आगे रखने के लिये छोटे बस्र का ठुकड़ा
सूल गे भारा--देखो-गंभारा ।
सूलनायक्ष-- मंद्रि की मुख्य अश्ु-प्रतिमा ।
थक्त--व्यंतर देव की एक जाति ।
चति--साधु । बाहम आदि का उपयोग करने वाले
तया द्वव्य को पास रफने बाले। जेन साधुओं के मेद
विशेष में 'यति”' शब्द् रूढ हो गया है |
यंत्र-मंत्र विशेष जिप्में खुदा या लिा हो !
रंग सणए्डप--सभा मणडप |
रजोहरण--ओपा शब्द देखो |
शीक्षा-गाड़ी जो के मजदर सींचते हैं ।
' लंछन--जिन प्रतिमाओं के चिद्द विशेष ।
छलाग या छागा--कर ।
( २६३ )
लुंचन--हाथ से बालों को उखाड़ना जो 'कि जेन
साधु करते हैं ।
चसहि--बसति, देव मंदिर |
वासक्षेप--सुगंधी चूणे ( श्ुक्की )
घाछुदेव--भरत क्षेत्र के तीन खण्डों को भोगनेवाला )
विहरसान जिन--चत्तेमान काल के तीयंकर जो कि
हाल महाविदेद चेत्र में हैं ।
विहार--परिभश्रमण ।
शकुमनिका--चील ।
शाम्वत्त-- नित्य, अमर |
संघ--साधु, साध्वी, भ्रावदकः और श्राविकाओं का
समूह |
सेंघवी--संघपति ।
सप्तक्तेत्र--धम के सात स्थान, ( मूर्ति, मंदिर, ज्ञान
साधु, साध्वी, थ्रावक, भ्राविका ) |
समासंडप--मंदिर का बड़ा मंडप ।
समवसरण--संपूर्ण अनुछूलता वाली, देवों से रचित
तीर्थंकर प्रभु की विशाल-दिव्य व्याख्यान शाला |
सामायिक--राग-देप रहित होके दो घड़ी ( ४८
पमेनिट ) तक समभाव में रहना ।
६ २६७ )
साधर्मीवात्सल्य--समान ( अपना ) घमे पालव
करने वालों की माक्ति करना |
साधारण खाता-जिस खाते का द्रव्य सभी पर्मे
कार्य में लगे उसको साधारण खाता कहते हैं।
साष्टांग नमसकार-- अश्टांग नमस्कार ' देखो |
सिजावद--पत्थर को घड़ने वाला ।
सिंहमाल-- सिंहों की प्रेक्ति ।
झछुरहि- दान यत्रादि के खुदे हुए लेख का पत्थर
जिसके ऊपर बलिया सहित गो और शर्ब-चंद्र खुदे हुए.
होते हैं ।
सूरि--आचार्य्य धर्म गुरुओं के नायक ।
स्थविर कल्पी-घार्मिक ब्यवहार मार्ग को अलु-
रा करने वाले जैन साधु ।
स्थापनाचार्य--आचार्य्य महाराज-गुरु फा स्थापन
जिस घस्तु विशेष में किया जाता है ।
स्वाश्न महोत्सव--इनन््द्रादि से क्रिया हुआ तीर्थंकर
अद्छ का जन्मामिपेकोत्सव ।
८“ ७75५
(२६५ )
परिशेष्ठ २
सांकेतिक चिन्हों का परिचय
[ ] ऐसे कौस में मूलनायक भगवान् का जो नाम
लिखा है वह पब्ासन के लेख के आधार से लिखा गया है।
( ) ऐसे कौंस में मूलनायक भगवान् का जो नाम
लिखा गया है वह दरवाजे के लेख के आधार से लिखा गया है |
तथा
कौंस के सिवाय जहाँ मूलनायकजी का नाम लिखा
गया है वह बत्तेमान में विराजित घूलमायकजी का नाम है)
जहाँ मूलनायकजी का नाम नहीं लिखा है बहाँसम-
मना चाहिये कि वह निश्चित नहीं हो सका हैं ।
$# विमल वसहि की जिस देहरी की धारसाख पर
सुन्दर नकशी है चह्दां देहरी के चर्णन के प्रारम्भ में उपरोक्त
चिद्द दिये गये हैं। जहों, उक्त चिह् न हों उस देहरी कीः
बारसाख में सामान्य नकशी समझना चाहिये |
लूणवसदि में भायः प्रत्येक देहरी की चारसास पर
पबलझुल सामान्य नकशी दे ।
+ भव्य मूर्तियों तथा अत्यन्त मनोहर मकेशी वाली
चीजें जो के फोड़ खींचने के योग्य मुझे मजर आई उस
चीज के पास उपरोक्त चिष् दिया गया है ।
( २६६ )
पारोशएू--३
सोलह विद्यादेवियों के वर्ण, वाहन, चिन्ह थादि
ने.| नाम [चरण [बादन £| कोचोज | चीलें _ | माम | वर्ण | वाहन | दान उै। आय | दर बाज हि पहने दाथ | बविद्यय का
क् रोहियो | सफेद | गौ | ४माला, शंख बाण धज॒ष्य
#| प्रक्षप्ति » | सयूर | ४ शस्ति,वरदाव [वीजोरा, शस्ति
३ बन्नशुपला। » | प्म |४ दे कमल, इो[खंला
४| बज़ांकुशी | पीत | गज | ४| बरदान, चज बीज्ोरा, अकुश
3 अपलतियका। » | गयड़े खक्र, चक
| पुरुषदसा | » | मैंस बीजोरा, ढाल
७| फाली कृष्ण | पद्म | ४ माला, गदा [विज्ञ, अमयदान
<| महाकाली। » | पुरुष | ४ माछा, बच्ष अभयदान,धैंदा
श| गोरी पीत | गोधा | ४| वरदान, मूशल |माला, फमछ
१०| गाँधारी | मीज़ | कमल | ४ ». ५ भमयदाव, अंकुश
३१ सर्वाखर-
अर सफेद | घराह | ४|शख््र, शस्र शिख्रः शस्त्र
१४ मानवी रूष्ण | कमल | ४|धरदान, पाश [मादा सिंहासन
१३ चैरोट्या | ५ | सर्प | ४ खिड्ग, सर्प दाल) सर्प ;
२० अछुप्ता | पीत | अख | ४| ७५ धण [पाया सहूग
१४ मानसो | सफेद | दंस | ४|यरदान, पवजञ् माला, पत्र
१६ म। » | सिंद | ४ ७ सडग (कुंडिका,दाज
( २६७ )
परिशीष्ठ ४
आज्ञाएँ
१---चमड़े के बूंट की आज्ञा--
तारीख १०-१०-१६१३ |
4.
२--दशेकों के नियम और सचना
तारीख २-३-१६१६ ।
( शहद )
ब/्फ2ट 6079
0909 07 ॥06 श्ट्टांडएता8 00 #097,
०. 2697 6, ०/7978.
पक
एप्रख्त धन््रप्रझ््न&, 8800४7'4 85,
विम्रष तयत्र ठिप्रएए70जञफडए: 00प्एड्रप्रफण्नटए,
7. कयूबककां2 02.47...
94४९१ 3०००८ 809०, (॥6 ]0॥0 000000" 498,
2०१७ 87,
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एाए ० 2237, 05६९१ (९ 786, $0क/श॥5९७ 943, ए९हण्फ्वे+
फण्ड धग० भाध्यपंणड रण 00005 एप 8708५ 5 प्घ08 ॥6
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० पाती ग्राह ० 0एफ्रणा ० शंड्ञाणाड 00 0068 ई९शएो९७
शीक्प्ाँपे ल्श१०ए९ गशिेर ]श्वतश- 90०. 07 शै]0९8 0 शा
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साधा ए वापंम हए.ीच्छ 5णेलेर 0० जिक्र प्रश्याफ्रेदक
( २६६ )
चधाते व॥ ॥0 एब३' गरलिट|ड पीर प्रह्यठुए 7लटूबावीशह 00077
एाल्प्ौशात वा देंशंध ०० पिगातेत पृ ध्ाएच य ०गीक्ष फुधा:8-
रत पाता॥, हि है
४०ए४७ शिएपापि]9,
(80.) भ्. ७. ॥708,8, 0#746798, |, 8...
अस्धकांड#दार 07 40%.
आदबू के मजिस्ट्रेट का ऑफिस
नं० २४६१ जी. १६११..
सेवा में,
जनरल सेक्रेदरियान्,
श्री जैन श्रेताम्थर फान्फेन्स,
पायधूनी, मुम्बई ।
तारीख १० अक्टूबर १६१३ प्ुुकाम आबू:
मान
आबू परबेतीय देलवाड़ा मंदिरों के दशक लोगों के
बूट अथवा जूते पहनने के सम्बन्ध में तारीख ९ सितम्बर”
सन् १६१३ ३०, नं० २२३७ वाले पत्र व्यवहार के साथ
भेरे इस पत्र का सम्बन्ध है ।
अब मुझे खचना करनी है कि भारतीय सरकार काः
यह मत है कि मंदिर के व्यवस्थापकों की इच्छाहुसार*
( ३०० )
स्म॑दिर में प्रवेश करते समय दशेक लोगों को चाहिये कि
“चे चमड़े के यूट अथवा जूते वाहिर उत्तारें तयां मंदिर के
ज्यवस्थापकों को कद्द दिया जाये कि वे साधारण आव-
“श्यक्ञाजुसार कैनवास के जूते वहां तैयार रखें ॥,
भारतीय सरकार की यद्द रियायत देलवाड़ा के मंदिरों
के लिये ही है परन्तु भारतवर्ष के किसी भी दूसरे प्रदेश
के जैन तथा हिन्दु मंदिरों के लिये जूता पहमने के रिवाज
में किसी भी प्रकार से अ्रभाविक नहीं होगा ।
आपका विभ्वासु--
(द०) डबन्यु० जी० नील कैप्टन आ्ाई० ए०
आप का मजिस्ट्रेट,
जैन फास्फेन्स हेरेड्ड ( घु ने० & अप्ट १९, मवग्बर १६१३,
थु० २४८) से पअतुवादित ।
मषा6507 4 6ा३४07 ६0 079 9०६ 707708-
3.. गिद्गप्रढ अर्षओांगठ ० एंनध ताल कप एलियन
एॉं९ जा, गा बछ[ीव्यांणप 97 धार जत्सटणं0श्ते 907 (६० 92
>9ंजआंधण्त 90 ९ (कुछ ॥0 से छापे 09:-0ण[एए०७ )
छह पिश्यांशीशवे करती 8 फूड४७, ण्वॉवण्गंधाह धीर्त क्वीन
फवा०९ए,.. 4 ९४६ ए३६६९७ (0 ६ ट्रांए्टए प्रफ्र 0: राच्य९७
| (7३०१ )
2, जणा-टणााएरश्षागालवे तरिव्थड ब्रंपे हेवेंयल-
जह्पाह शा पलाग[ए० ध्यी। १0 80 पराततेश' पा९ वश हुए "एक
ग्र07-९०णा्ोध्श्ंगाह्ते णीरश-ण, ध० पी 0९:९श४एणाष्यण९७
ईक पार कृपा. मि6 धयी। ऐ९ प्रिषंधील्ते छत 8 ए्ू08७
हए९लजिएड १6 छाए (0 ए९ ॥तेग्रा।९वे,
3... एश05 वी ए७९ ब्वेग्रांघ्व॑ ६० 0७ ६श7फ९5
क७८ए९९ा३ पा ॥0073 0 ]2 700४ शावे 6 छ छा.
4... की पाप वी पल ध्थयाफ़रोर ग्रावए 0० लए
अंडा एप पाल 00779 ९४९९१४०१४:---
(5) 76 शामं॥९8 ० ॥0 ६९॥ए९४ शाते 8
#भ5९त फ़ोधा0णण5 ग्रष्ाल्वीबारे> गी किणा।
0 प्राशा। ॥ पा ढशाफएह 66 री ० प6
गाए उधावेड-
(0) ९ र्ाहतं0० ७ धार व्थी5 कृथांगह ॥07
धाए हणे।रलं९5 5 कली 0 पृण्ग्रपाधाह्ु९8.
+ रै... शींध्य005 छाए ए९70४९ शीलए 9008 07 ६068,
46 घरा90९ जोणीए छा वी एड ण वछापिश' एशणर शापशपंक 8
+#6 (शणए़९५ वा सल्वृप९४६९९ं [0 ते० ६० 099 "6 (एफ
छप्रताण्यपर९्५, 5४० ज्यों पाण्संतेड 0धारएत 0095 ९० ०:
शावते& ० ९4९०,
गे 6. ४० €णपरफीट8 67 पैनंगोडफरो ९8 ६०0 8९ प्वाप्शा
"शगांज गिी९ 076 छोड फएएी राणेठ5९ पा8 ॥/:,/ ) मै
बीपाकंड गए ईगड रैडापफोंदड इद्ं2६ए एए०गै लत,
( ३०२ )
7... छहप्ृलर थाते 8775 00 98 7९६ 07६ 2पे€,
3, 8॥] ९०गराप्ोमंताड 0० 96 बत05९55९९ (६० प्र
-4998079/8, $ 00.
(80) ॥.,50॥87.%,
05ए4५75, 3. 4..,
>दिक3060, 40%.
“देलवाढ़ा के मंदिरों में प्रवेश करने के नियम ।
“१-जिनको देलवाड़ा के मन्दिरों का निरीक्षण करने का
हो उनको अर्जी के फॉर्म जो कि राजपूताना होटल
अधवा डाक बंगले से मिल सकते हैं उन पर अरजी
मेज्नना चाहिए। दत्पश्चाद् उनको प्रवेश के लिये
एक पास ( [१४७55 ) दिया जायगा जो कि- प्रवेश
करने फे समय देना होगा ।
२--नन कमिशण्ड ऑफिसर और सिपाही जिस ऑफिसर
के नठत्व में जो ऑफिसर पार्टी के लिये जिम्मेदार
होगा, भन्दिर देखने को जा सकेंग। और उस
अफसर का संख्या सचक एक पास दिया जायगा ।
3३--निरीक्षण करने वाले मध्याष्ट के बारह से लेकर शाम
के ६ बजे तक दी प्रवेश कर सकेंगे ।
( ३०३ )
४--निम्म लिखित स्पलों को छोड़कर मन्दिर के अन्य
विमाग अच्छी तरह से देख सकेंगे।
(०) गमीमार के मध्य में आई हुई मन्दिर की
प्रतिमायें तथा उनकी पीढिकायें अयौत्
नव चौंढ़ी रंग मेंडप आदि ।
(थी) चौक की भभती देहारियों का भीतरी हिस्सा।
४--भन्दिर के कार्यकर्ताओं के कहने पर चमड़े के या
कुछ भाग में चमड़े से बने हुए जूते (8॥०९७) उतार
देना होगा। बहाँ पर चमड़े से रहित जूते पहिनने
के लिये दिये जावेंगे ।
%--मन्दिर के भीतर कोई भी खाद्य और पेय पदाथे नहीं
ले जा सकेंगे।
७--शखत्र तथा छड़ी (लकड़ी) बाहर रख देनी चादिए।
<--यदि कोई शिकायत हो तो आबू के मजिस्देट से
करना चाहिये ।
हस्ताचर
आबू मजिस्ट्रेट,
(३०४ )
0गि06 ० शा8 05४00६ श्चड्टांदा2/०
क0०धा, 809पघ-
अर्रपटाड
उक्त म्ट 3६ 2608, 3१6 347०), 2928.
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शापशाएड्र (दाल परॉकाफो९ ब्यादे बीणपोवे 40फ सीशाव-
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उ9हह7०४ 2चिध्ठाजद(8 ० 20५
डिस्ट्क्ट माजिस्ट्रेट माउण्ट आाबू का ऑफिस
नोटिस
३ मार्च १६१६, माउण्ट आायू
प्रेच्कों को देलवांड़ा में प्रवेश करने के सभय॑ योग्य
मान दर्शोना होगा तथा मन्दिरों के कम्चारियों की सचना
के मुवाधिक चलना होगा !
चमड़े के जूते निकाल कर मन्दिर के फार्येकत्तोओं
से दिये हुए, बिना चमड़े के जूते पद्दिनमा चादिए ।
(द०) एच, सी. ग्रीनफील्ड,
हिस्ट्िक्ट मर्जिस्टेट, झावू
( रेड )
0059 ० हहहथा ० 4297/299 2, 2 22, बद(०व
हा शादं 2060600" 7939, 7"07॥ 8 4773#4९४ 24978-
468९, 30078 4008, ६0 हो8 <ी.-84९४8 ०/ द।ह 2/द969-
बंधक 0090९, 0७ उ26009%6 42079705, 58008.
'फ़षा कर्शद्त्ालल [० ३०प्ण० ]%#07 ०. 464/]933,
दे छ्पे १९ 28७9 5९७५०फ७९० 4982, ॥ ॥0ए९ ६॥९ ]6900७7
६0 घघ9 सब त. चीज टणाइशाए छपी "6 8प्रष्टह९-प0ा8
९णाएपंधश्ते व ए0पा' ॥९६७० शाते शा ॥078 6 ४०08
८१6० एिप्रा0छुछथा) ०? फ़णंमथ्ते क्ह 7९प 4 ० थे। घ७
[08968 43760 ७ए ॥0९, 'ंध 7९हुडावे ६० पी कवेतापत
० 0686 %0तेंड 07 पं।6 70006 ऐ०च्यवेड व] 6 ;शा ७७
क्षा एप एौ९४०९ 2807९ घा0ए फोशा व जण्पोत 96
207ए९घरांश३५ 07 0९ ६0 8श6 & ए0४786/* ६0 थे० ६06 ए०7४६:५
नकल चिट्ठी नम्बर ४२३१-१६६ डी एम. ३२, तारीख दे
वदिसम्बर १६३२ डिस्ट्रिफ्ट मजिस्ट्रेट आबू की तरफ से घनाम
अमुफ-ध्यवस्थापक कमिटी, आदत देलचाड़ा मन्दिर; सिरोही.
बसिलसिले आपकी चिट्ठी नंधर ४६३४/ १६३२ तारीख
२८ सितम्बर १६३२, सेरा यह कहना है कि आपकी
सिंखित ५5. पे मन न ५
लिखित तजवीज के साथ में पूरी तोर से सहमत हूं और
चास जो के यहां से मेरी तरफ से जारी किये जांयेंगे, उन
पर फॉर यूरोंपियन ओन््ली' ( मात्र अंग्रेजों के लिये )
इतने शब्द में लाल श्याही से छपवा रद्य हूँ। कृपा कर
2 कक ० ३ हम
यह लिखें कि इन शब्दों को मन्दिर के नोटिस बोर्ड पर
लिखने के लिये रज्ञताज को किस सप्रय भेजना ठीक होगा |
६. 7
( ३०६ )
परिशिष्ठ ५
| प ब््क
देलवाड़े के जेन मन्दिरों के विषय में कुछ
अभिप्राय
*+[६ %+8 983) ॥009 यारा | ९ 6ँञ९१ पा? 2889
'ण शद्वों8 30888, बा0 35 ४76 छत केट्यपे ता ४0धप्मा
+ंए 070४४१ प्रकृणा 778, राज 7९677 06६४ व०्यक उंग्क, खछ
जांच ध8 5६88 ० 5च४०१5७ 3 €एणबंगा९त / (टच.
5 न के क्र िज ऋः डर
“पृ तल्बंहुए शरण ९४९९ए०१ ता (गां5 इ्र॥९, घाएपे
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ब्रधह, राणा, व076०९४%, 95 % फछव0९, ६ 807फ25९९४.. ॥६
फश्ञब ॥70#2. बाफफरंड शाद्ांटहाए, ९ विवल्वे 2्गप्रायशाह
ऋजगा प्राण पीठ >ैपिशत39 (99500) १7७ 0675, ३70 0
अ5एॉ६6त 7९707 75 [ए09 टवुपन (6 026 0९7 78 ए0ठ-
2९५5 ए 807 फाप्रा8 पते धग'707 60 48 43 ए९७९॥।।०07,
ऋधिए। (5 प्राण #९8 उएते ॥ गिल पड,
*गु।6 30708 42 ४४४ ०४४०४ 38 ६89 046 8 पंएट
464707९ दधतें & 72529470€९7£ ए/8९७ 6६ छऋ०४६, छत प्रडड
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ईल्ल 49 [०89, ४50 5 % 9४:/०९६ हु," डगतते % कांटी
( ३०७ )
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प्रशरए ए प6 व्णन्तिंइ्णो०९९०0 3,0६7, एं056 पड
76 80 ां।, 80 विध्ाशुशाला, गएते 50 परठट्याणंणेत
नणा0घहााएं, पाता 46 क्६65 6 ९४९5 शतेणा:॥त0ा-
0०, 409,
मैं जब शीतला माता के घाट से चला, तब भध्याष्ठ
था और जब आबू की ऊँची टेकरी दृष्टिगोचर हुई तब
औरा हृदय आनन्द से नाच रद्ा था और सीराक्युक के
(प्रसिद्ध) ऋषि की तरह 'ऑपयरेका ' ( जिसको खोजता
था चद्द मिला) ऐसी आवाज लगाई |
इस मंदिर की त्तज और उठाव और शभ्ृृद्धार संबन्धी
अथम जो वर्णन किया गया है वैसा ही मगर चढ़कर है ।
अथम से ज्यादा सादा मगर पिशेप शोभायमसान है। मंडप
को उठाने वाले सखम्मे बहुत ऊँचे हैं और गुम्घन का भीतरी
हिस्सा, नक्शी की विपुलता की अपेत्ता से समान है परन्तु
उसकी कारीगरी जो कि ज्यादा उच्च कोटि फी तया विशेष
स्वतंत्र हे वह ज्यादा बढ़ करके है ।
मध्य का गुम्बज लद को खींचने वाला और शिल्प-
कला के अत्यन्त मनोहर नमूने रूप है। उसके मध्य भाग
से एक पेन्डेण्ट ( भुम्बज के मध्य भाग में उसके साथ
( रेण्८ )
लगे हुए पत्थर की, काच के फाड के आकार की चीज )'
जो कि लम्ब वर्तुलाकार वाला और तीन फीट लम्बा है,
वह वास्तविक में एक रत्न समान है। वह जिस स्थान पर
उस सुम्पज में से लटकता है, वहा वह अद्धे पिकृसित कमल
के समूह जैसा मालूम होता है, जिसके पत्ते इतने पतले,
इतमे पारदर्शी और इतनी छद्म नकशी वाले हैं किः
जिससे दमारे नेय आअय्ये के साथ पद्दां पर टकटकी लगाए
रहते हैं |
कनेल टॉड.
ैग००85 मे गत ॥9शी 0कृा3 ॥707 ॥॥6
हटपंफ0म8 एाउ९ी, (75०. परथ्याफराह5 चा<, 05
सी पाक जावे 3९फाया), वॉापँ 0एा 85 ए7ए९फापरए
छत हएशलभीर ऐेशशच्रणड ण॑ 708 गाते फापावए- ऐणीः
फ्रेभावए दाप्रा(ए ० फए९ प्रशशक्री९ दाात व्कल्ए कर
त्यी सच ब्लाच्यरए धरातों श/टषटहर 0/ 77 का स्आ ६ क्री
(गठ #र ०४८८१ (/ मावदधय दा बाद धर कग्राढ ७ स्टार
लाल्वतग्य त््बाँवे चंद. वर बाएं, 0 णावाशाों
रोलजां हास्य 05९7 0९६९ डप्पलै॑ प्रात्ड गा पक गरधाप्र॑शेफ़
ए4०१९त त९टप्द्छात्त ० ९९शौ।9..५, प्र००००5७४४, [0क्975,
कृ5०६॥९ 0ए ह72े॥७८ ३५ उग्ागरज् राहजक्श।005, श)]8 409
७77, (॥क पाशगेएटल्यँ सजी! श्र फल्कीफ्ारए। ० िए
( ३०६ )
ज्ाफऑ8 आकक्च३8४८४ काइप्रोचय ३6्टाप थैहललो872,.. दापवे
30776 ० 6 06४ंह8ु05 धा९ |७६ ऐ/रद्या8 ० एशाए, 6
इलाकों ज़ोबा। ० ॥॥० ९9965, 400, एपंशी 48 700255९8
ब्यात ९070000 ]शा05 8 एश'ए ॥7एए॥ए गा कैशंहा6
नथाते शाइप्रेए फांति ७एशड़ लाष्याह्ु० 9 08 8ण7४ ]0थं४0घ५
(०, ए8एप्र,
शिल्पकला की कारीगरी के इस विशाल प्रदश्शन :में
'खास करके दो मंदिर अधथीात् आदिनाथ तथा नेमनाथ के
“मन्दिर अपू् ध्यान देने योग्य तथा प्रशंसा के योग्य हैं।
ये दोनों मंदिर सफेद संगमरमर के और उस काल में
,जब कि ये निर्माण किये गये थे, उतने शिल्पकला
के साधन जो खोज कर सकते हैं, उतनी सक्षमता से तथा
'भांत २ फी विविधता के साथ बनाये गये हैं। इन इमारतों
में सौंदये की सक्ष्मता का) तथा शुम्बज तोरण, स्तंभः
छत और गोख ( आला ) की झद्म नक्शी की सुन्दरता
में जो विशेषता नजर आती है वह पास्तविक में अद्भुत
है। आरस में इृष्टिगोचर होने वाला बरड, पतला, पार-
दशेक तथा शंख के जेसा नक्शी काम, अन्य स्थानों में
देखने में आता है, उस काम से यह बढ़कर है। कितनीक
डिजाइनें तो वास्तविक में सोंदर्य के (साक्षात् ) स्वप्न
5
के जैसी हैं। प्रकाशवन्त धूप में, मंदिर की सामान्य
( हेर० )
बनावट भी अपने गोख व भमती के साथ बहुत सुन्दर
मालूम होती है और उये की गति के परिवत्तेन से वहा
प्रकाश और छाया का विविध असर होता है।
कर्नल एरस्किन,
46 ब्हुड |३ण॥ (6 ९९॥/९ ग्रा09 ]॥॥6 8 वप्रऑ+8
०0 ढएडॉनोी 07093 एच) ६ 806 9888 0 राधण्०, त0
कफ गंइहते कांप 2 १ेशेंट्वएए 00 बढ) बरप्पे ॥ए970-
कृपंधाशा888 07 0/742707६ भरकाशी 39 97094929 हशआएई-
ए88९वैं. फड़. गाए शशि हडदायाएश [0 06 तिप्रयते
श्याए फ्राशः8 छा58.,.. 7056 ईंपगण्वेए०९वे 97 49 90976
-ैफछऐम६९०३४ 4) परेछणाज़ धा6 86एथा्रा8 शाण्फुणें ४
एए०४्ांधरभ2ट, 07 80 02070, 878 00956 ०0)॥7॥59 479
0०059877807,
35, फफ्ाएएए४४0४,
4%6 उक्राश०ा६ 4>2०0९०70978/.
बह आरस के एक ठोस सूद के बजाय एक रत
विन्दुओं के गुच्छे के समान मध्य भाग से लटकता है
और उस दम नकशी को ऐसी बारीकाई से और डिजा-
इन को इस योग्यता से बनाया है कि इस प्रकार का नमूना
किसी भी जमद इससे बढ़ कर नहीं दोगा। वेस्टमिनिस्टर के
( ३११ )
सप्तम देनरी की देरी में अथवा ऑक्सफोर्ड में गॉथिकः
शिल्पियों के रक्खे ड्डुए नमूने (8776७) आओचू केः
उपयुक्त नपूने से भी उतरते हुए और ( शिल्प की दृष्टि से )
बेडौल हैं ।
प्रि. फरग्युसन,
एक प्रसिद्ध पुरातत्व बेत्ा
“गए त78 ६४० एछशै॥९९३, पं९67 (4९०) जाते.
खक्रफ़पा, 8घणकष्ञंग ड़ थो। जगणी 7 ॥8ए४० 8९छ७ा 0 6
कीफश्णात, 07 460त 06 06 40772... ५ ००-०००००००० 5६
चादे #।० बउक्कक बैश्ाए४8४ ० 4900.......- -+२--००-- कं
व)95९ हर वो!
फछाह्या0ए प्रफ्फ़्नछ,
मैंने जो कुछ फरेमलिन ( राशिया में मोस्को ग्राम के
राज्यगढ ) में देखा अथवा अलहंगा ( दक्षिण स्पेन
में सेरेसीन जाति की बनाई हुई एक इमारत ) सम्बन्धी
सुना, उससे अंबेर और जैपुर ज्यादा अच्छे स्थान हैं।
७००० ०००० ०००५ ०००० और आवू कक जन मन्दिर सब से
चढकर हैं।
विशॉप हेघर
( ३१२ )
विमलशाह द्वारा निर्माण किया हुआ देलबाड़े फा
बढ़ा देवालय समस्त भारत में शिल्प विद्या का सर्वोत्तम
जमृना माना जाता है । देलवाड़े के मन्दिर केवल जेन
मन्दिर ही नहीं हैं किन्तु वे सभी|गुजराती की अतीत गौरव-
शीलता की अपूत प्रतिकृतियों हैं। उनके एक एक तोरण
से, भुम्भेज से, स्तम ओर गवाज्षों से गुजरात की अपूवे
कला, शोप़ और लद्मी की अग्रतिहत धारा बहती नजर
आती है । ऐसी अपूवे कृत्तियाँ निर्माण कराने पाली और
उनको उत्तेजन देने वाली प्रजा का साहित्य और रसबज्ञवा
उस समय के अल्ुरूप ही होना चाहिये ।
६. कर हा कै न
देलबाड़ा के मंदिर
देलबाड़े में कुल पांच मन्दिर हें ।उनमें से दो के सदश
समस्त हिन्द में एक भी मन्दिर नहीं है। इनमें प्रथम
अन्दिर आदिनाथ दीयेकर का है! शिलालेख द्वासा ज्ञात
दोता हैँ कि विमलशाद ने यह मन्दिर १० सन् १०३१२ में
चअनयाया था। इस मन्दिर में आदिनाथ की एक भव्य
मूर्ति है। चच्ुओं के स्थान पर रत्न लगे हुए हैं| बाइर से
देखन पर मन्दिर बिलकुल सामान्य नगर आता है भार
६ हरें३ )
“निरित्कों को उसकी आन्तरिक भव्यता का खयाल कभी
भी नहीं आ सकृता। इसके सामने ही नेमिनाथ तीथकर
“का मन्दिर है। उसको चस्तुपाल और तेजपाल नामक दो
“माईओं ने $० सन् १२३१ में पनवाया था।
हमारे असाधारण स्थापत्य में से, अवशेष रूप से रहे
हुए आयु-देलवाड़ा के ये देवालय आज भी गुजर संस्कृति
“के ताध्श मूर्च स्वरूप को बतलाते हैं। युरोपवासियों में
उनकी ओर सबसे प्रथम निगाह फेंकने वाला 'कनेल टॉड'
इन मन्दिरों का मसुकागला महान् मुगल सम्राद् शाहजहाँ
-की हृदसेश्वरी सुमताज की आरामगाह ताज महल से करता
है और अन्त में वह लिसता है कि-दोनों का सौंदय ऐसा
अलोकिक है कि किसी का क्षिसी के साथ मुकाबला नहीं
हो सकता | दोनों में खगत विशेषतायें हैं । उसफा माप
“अस्पेक अपनी घाद्धे अनुकूल निकाल सकता है ।
' किन्तु हम देलवाड़े के मन्दिरों में और उसके इतिद्वास
"में ताज से मी बढ़कर एक विचित्र विशेषता देख सकते
हैं। ताज अनन्य पत्नी भेम से बनवाया गया है। देलवाड़े
के मन्दिर जनों की भक्ति, कम करने पर भी अद्भुत विराग
“ओर अपरिमित दान-शीलता से बनवाये गये हैं। ताज
“उसके चारों तफ के मकानात/ बाग, नदी आदि दृश्यों की
( रेर४ )
ध्षमग्रता में ही रम्य नजर आठा है | देलवाड़े के अन्दर
से एक-एक स्तेम, घुम्मठझ, गोख या तोरण भलग-अलग
देखो या साथ में देखो रम्प ही नमर आते हैं। ताज में
ऐसा नहीं है। ताज अर्थात् संगमरमर का विराद-खिलौना
देलबाड़ा अर्थात् एक मनोहर आभूपण । ताज अर्थात् एक
महासाम्राज्य के मेज पर का सुन्द्र पेपर वेट है। देलवाड़े
के मान्दर अर्थात् गुजरी के लावण्यपुर में इद्धि करने वाले
सुन्दर कर्णपुर ( ॥04० ।/ ) हैं | ताज की रंग विरंगी जड़ाऊ
काम की नवीनता को निकाल देने पर केवल (शिल्प विद्या
और नकशी में देलवाड़ा की रम्प नकशी उससे चढ़ जाती
है | कमी-कमी नवीनता समय भेद से मी हो सकती है।
उन दोनों महा मन्दिरों के समय में पांच सदियों का अन्तर
पड़ा है । देलवाड़े के मन्द्रि पांच सौ साल से ज़्यादा
आचीन हैं, इस वात का विस्मर्ण न होना चाहिए ।
सबसे महत्व की वस्तु यह है कि ताज के निर्माण में समग्र
आरतवर्ष की लक्ष्मी खड़ी है जब कि देलवाड़ा एक गुजराती
व्योयारी ने बनवाया है। ताज के पत्थरों में राज सच की (वेठ)
शक्ति के निश्चास मरे हैं। देलवाड़ा में गुजर वैश्यों की
उदारता से उत्पन्न शिल्पियों के आशीनाद हैं और इसी
कारण से सत्ता के भय से निर्भक्त इन शिन्पियों ने खगे
(३१४ )
एक मन्दिर बना कर इस सौंदर्य की सरिता में शद्धि कीर
है। ताज के मजद्रों को महनत के पूरे पैसे भी नहीं मिले ।
एक का निमोता-महान् सम्राट, अन्य का एक गुजराती
न्यापारी है। जिस संस्कृति ने ऐसे मर पैदा किये हैं उसकी:
मंगलमपी महत्ता आज दिन तक कायम है |
( र्मणीराव भीमराव )
'कुमार!--मासिक, अइ-३८, पछ-५६
(माह से० १६८३, वर्ष ४, अड्ड-२ )
गुजरात का अप्रतिम शिवप
देलवाड़ के जन मन्दिर में संगमरमर
का एक गुम्बज
गुजरात ने भूतकाल में कला और शिल्प का समा-
दर करने में तथा धम तत्व के साथ उसका मंगल योग
करने में केसी उच्च संस्कारिता बताई है तथा कितनी लक्ष--
लूट दौलत खचे की है, इन बातों को आयू देलवाड़ा केः
भन्दिर प्रत्यक्त चतलाते हैं। आबू के पर्वत पर एक सुन्दर
धृष्य में स्थित यह मन्दिरों का छोटासा सप्तच्यय कला की:
( ३२१६ )
एक छोलीसी प्रदर्शनी जैसी मालूम होती है किन्तु उसके
हाई का शिल्प वैभव विश्व की अप्रातिम कृत्तियों की
'पक्कि में गौरव पूर्ण स्थान पा जुका है । कुशल में भी कुशल
“कारीगर को रतब्ध बमानेव्ाली क्रोमलता पूर्ण नकशी
देखते देखते नेत्र तृप्ति से श्रमित हो जाते हैं, भगर देंयना
फम नहीं होता। इतनी कारीगरी वहां के प्रस्थेक गुस््रण
में इतनी फँचाई पर कैसे स्थिर हुई होगी यह कल्पना ही
हष्टी फो मूढ बनाती है। मोम में भी हुप्कर ऐसी नकशी
आरस में लटकती जब नजर आती है तन इस थुग की
कला आप्ति का हिसाब शून्य ही नजर आता है। ऊपर
-बनाया हुआ प्रुतलियों का छोटा गुम्पबन केवल ६ फ्रीट
चौड़ाई का होगा किन्तु उसमें स्थित आक्ृततियों में
नृत्य की जो तनमनाट भरी विविधता नजर आती है उससे
यद मालूम होता है कि पत्थर के जड़त्त को विलांजली
देकर भ्रत्येक आंक्तियां सजीब भाव की स्वतंत्रता का
आस्वाद कर रही हैं। ऊपर के चित्र को चौतर्फ से घुमा
कर देखने पर भी प्रत्येक आकृति का अह् भक्छ ( हृत्य
आय ) श्न्य से अद्वितीय सुरेप तथा समतोलन से एंणे
इप्टि गोचर होता हैं। मनुष्य देह की इतनी विविधता
व्यूण लीलाओं का च्प्य और उन लीलाओं को निरवीव
( ३3१७ )
पत्थरों में अपर बनाने बाला सृष्टा-शिल्पी अनेकः
शताब्दियों के व्यतीत होने पर भी आज हमारा हृदयः
उत्साहपूण सन््मान को श्राप्त होता है।
('कुमाए' मालिक अड्ढू-६३, पूछ २४८, अपाढ़ १६८५)
५ आर >5
आलू, अर्बुद्गिरि
देलवबाड़े के जेन मन्दिर पश्चिम हिन्द के स्थापत्य के
उत्तमोत्तम नमूने स्वरूप है बल्कि समस्त हिन्द के हिन्दू
स्थापत्य के उत्तम नमूने स्परूप भी कह सकते है। स्थापत्य
कला कोर्जिंद इन मन्दिरों को तथा ताज महल को
एक समान गिनते हैं। ताज महल के निमोण में एक प्रेमी
शहनशाह का खजाना तथा एक महान् साम्राज्य की अपार
साधन संपत्ति सचे की गई है, जब कि आयू के ये मन्दिर
भर भ्ेम से गुजरात के पौरवाल मंत्रियों ने बनवाये हैं।
अलबत्त, इन मंत्रियों ने अगनित द्रव्य खचे किया है और
उस समय की गुजरात की सम्रद्धि ही ऐसी थी जो कि इन
मंत्रियों ने १०-१२ मील से सफेद आरस मेगवाकर, पर्वत
के।ऊपर इतनी ऊेचाई पर ले जाकर यह रमणीय सृष्टिः
पैदो की है ।
६ वेह८)
विमलवसहद्दि का सविस्तर वर्णन करने का यह स्मर
नहीं है किन्तु गुजरात के एक स्थापित कलामिज्ञ सल
कहते हैं कि यह देवल उसके अणिशद्ध नक़शी काम है
मेज्षक को विचार में गके कर देता है। उसकी कल्पना
में यद्द महुष्य कृति होगी ऐसी कल्पना नहीं आ सकती।
ये इतने तो पूरे हैं कि कुछ भी परिवर्तन ही नहीं हो सकता।
उस मन्दिर का सामान्य सानगिरिनार अथवा अन्य जैन
ध्मन्दिरों के जैसा है । मध्य में मुख्य मन्दिर और आस-पास
में छोटी देदरियों हैं। मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार के अग्र-
आग में एक मडण्प है। इस मन्द्रि के आगे छः खम्मे
चाला एक लम्बचौरस फमरा है, जिसमें पिमलशाह अपने
कुदुम्ब को मन्दिर की भोर ले जाता है। यह कल्पना नवीन
है। ये हाथियों की मूर्चियों कद में छोटी किन्तु प्रमाखयुक्त
हैं और होंदे का काम भी वहुत अच्छा हैं।
सामान्य रीति से मन्दिर भीतर से बहुत ही सुशोमित
ओर कारीगरी से भरपूर है क्रिन्तु बाइर से बिलकुल सादे
नजर शझाते हैं । इन मन्दिरों को बाहर से देखने पर उसकी
आन्वारिक शोभा का जय भी खयाल नहीं आता। विमान
का शिखर भी नौचा और कहंगा है। ये मंदिर कद में छोटे
शक्खे गये दें क्योंकि उतनी ऊँचाई पर बहुत बढ़े मंदिर
( ३१६ )
चनवाना शकक््य न था। क्योंकि आबू के पयेत पर घरती-
ऋम्प होता रहता है। इस बात का ज्ञान वहाँ के निमोता को
अवश्य होना चाहिये। इसलिये ऊँचाई या विशालता से
भान्दिर भण्य घनाने के बजाय जिवनी दो सकी उतनी कला
भीतर के काम में खचे की ।
इस मन्दिर में सब से ज्याद! नकशी का काम्त मण्डप
मे देखने में आता है। मएडप की ऊंचाई प्रमाणयुक्त है
ओर उसके भीतर के सफेद आरस के नकशी काम से इतना
सो मनोहर मालूम होता है कि प्रेचतक स्तब्ध हो जाता है।
' सण्डप का गुम्बज अष्टकोणाकार में खंभों के ऊपर इतना
, नकशी काम किया है कि उसकी नकशी देखते देखते थक
जाते हैं ओर इतना महीन नकशी काम के लिये आज
“के मनुष्य को चैये भी नहीं रह सकता। मण्डप में खड़े
* रहने पर चारों ओर का हिस्सा नकशी काम के शणगार
से भरा नजर आता है। यह इतना तो बारीक है कि
ओम के ढाँचे में बनाया मालूम होता है और उसकी
अधंपारदशक किनारी की मोटाई नजर नहीं आती | इसके
बाद पस्तुपाल तेजपाल के मन्दिरों में नकशी काम विभल-
शाह के मन्दिर से बहुत ही ज्यादा है। किन्तु कलाकी
नजर से तत्वज्ञों का ऐसा अभिप्राय है कि विसलशाह व
बाण
- मान्दर मसलमान: क पद़िले की स्थायत्य कला की सर्वो-
' शप्तता बतलाता है | ,
, + : इस तरह ताज महल के पीछे एक प्रेम पात्र ख्ली की
याददास्त खड़ी है वो आबू के मन्दिरों के पीछे एक धरम
निष्टठ उदार चरित ख््री की ग्रेरया-ह | का
मण्डप के ऊपर का शुम्बन विमलशाह के मन्दिर के
जैसा ही रक््खा है किन्तु उसके भीतर की नकशी का काम:
अथम से बढ़ कर है| गुम्बज के दूसरे थर से १६ बैठकों के:
ऊपर विधादेवियों की मूर्चियाँ रकखी हैं। इस गुम्बजं के
बिलकुल मध्य भाग में एक लोलक किया दे जो कि बहुतः
रमणीय माना जाता है। मद बहुत ही नाजुक है। गरुलाकः
के बढ़े पुष्प को उसकी डरूडी से सीधा पकड़ने से जैसा.
आकार द्वेता है वैसा ही आकार उसका है। इस लोलकः
( ?वढ६ ) की समानता पर इड्नलेएड के सप्तम हेनरी:
के समय के वेस्थमिनिस्टर के लॉसक ( एलशातवे४६ )
प्रमाण से रहित और मारी नजर आते हैं | इसकी सुन्द्रताः
और सुकुमारता का सच्चा खयाक्ू केवल देखने से.ही
आता है ।ः
( माप्तिक, झुजरात, पुस्तक १९२, अद्भ ३)
६ ३२१ )
शंका समाधान
जैनों में विश्वासपूर्षंक माना जाता है कि विमलवसदि
की लागत अठारद करोड़ तिरेपन लाख रुपये और लूथ-
बसहि की लागत बारद करोड़ तिरेपन लाख रुपये हैं !
विमलवसद्दि और लूणवसहि इन दोनों मन्दिरों की
लागत का घुकापला फरते एक प्रश्न खामाविक उपखित
दोत है कि-इन दोनों मन्दिरों की कारीगरी आदि के काम
में करीब २ समानता है। इसी प्रकार इसके बाद काम की
सामग्री एकत्र करने का खचे करीब २ समान होने पर भी
इनके खचे के आंकड़े में इतना फरक क्यों रहा ?
इस पर दी विचार करने से यह विदित होता है कि-
एक भ्रलुष्य हजारों प्रकार के प्रयत्न से नवीन आविष्कार करके
नई चीज का आयोजन सत्र से प्रथम करता है। जब कि
दूसरा मनुष्य इसी चीज का नमूना अपने सामने रख उसकी
नकल करता है। इन दोनों मलुष्यों के परिश्रम और खचे
में बहुत फरक पड़ता है। यही बात उपरोक्त मन्दिरों के
बनाने में भी हुई है ।
( ३२२ )
विमलवसहि मन्दिर सब से प्रथम बना है वह तथा
जिस और जितनी भूमि पर बना है उस जमीन को चौरस
सोना-मोहर बिछा कर खरीदनी पड़ी थी |
इन कारणों से विमलवसहि मन्दिर के निमोख में
विशेष रुपया ख्चे हुआ है ।
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( श्र३े )
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महावीर स्वामि आदीश्वर भगवान्
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